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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1131
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    2

    प꣢रि꣣ य꣡त्काव्या꣢꣯ क꣣वि꣢र्नृ꣣म्णा꣡ पु꣢ना꣣नो꣡ अर्ष꣢꣯ति । स्व꣢꣯र्वा꣣जी꣡ सि꣢षासति ॥११३१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प꣡रि꣢꣯ । यत् । का꣡व्या꣢꣯ । क꣣विः꣢ । नृ꣣म्णा꣢ । पु꣣नानः꣢ । अ꣡र्ष꣢꣯ति । स्वः꣢ । वा꣣जी꣢ । सि꣣षासति ॥११३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि यत्काव्या कविर्नृम्णा पुनानो अर्षति । स्वर्वाजी सिषासति ॥११३१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    परि । यत् । काव्या । कविः । नृम्णा । पुनानः । अर्षति । स्वः । वाजी । सिषासति ॥११३१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1131
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    आगे फिर वही विषय है।

    पदार्थ

    (कविः) क्रान्तद्रष्टा, बुद्धिमान्, कविहृदय, विद्वान् आचार्य (नृम्णा) बलों को (पुनानः) पवित्र करता हुआ (यत्) जब (काव्या) वेदादि काव्यों की (परि अर्षति) व्याख्या करता है, तब (वाजी) बलवान् और विज्ञानवान् वह शिष्यों को (स्वः) आनन्द (सिषासति)प्रदान करना चाहता है ॥४॥

    भावार्थ

    विद्वान् आचार्य की वेदादिशास्त्रों की व्याख्या शिष्यों को परमानन्द देनेवाली और उनकी ज्ञानवृद्धि करनेवाली होती है ॥४॥

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    पदार्थ

    (कविः) क्रान्तदर्शी सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा (यत्) कि जब (नृम्णा पुनानः) मन्त्ररूप ज्ञानधनों को झिराने हेतु (परि-अर्षति) सम्भजन स्थान ऋषियों के अन्तःकरण को परिप्राप्त होता है तब (स्वर्वाजी काव्या सिषासति) स्वः—मोक्ष भोगवाला—मोक्ष चाहनेवाला उपासक आत्मा उन काव्यधनों मन्त्रज्ञानों को सम्भजन करना चाहता है॥४॥

    विशेष

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    विषय

    मोक्ष का मार्ग

    पदार्थ

    (यत्) = जब यह ‘असित् काश्यप, देवल' प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि १. (कवि:) = क्रान्तदर्शी बनता है । सब वस्तुओं के तत्त्व को समझने का प्रयत्न करता है, २. (नृम्णा) = धनों को (पुनानः) = पवित्र करता है । प्रत्येक बात को तात्त्विक दृष्टि से सोचनेवाला व्यक्ति अपवित्र साधनों से धन कमाएगा ही नहीं । ३. यह (काव्या) = वेदज्ञानों को (परि अर्षति) = पूर्णरूप से प्राप्त होता है । तात्त्विक दृष्टिवाला व्यक्ति ज्ञानप्रधान जीवन बिताता ही है । ४. ज्ञान-प्रधान जीवन बिताता हुआ यह (वाजी) = शक्तिशाली व क्रियाशील बनता है [वाज=शक्ति, वज गतौ] ।५. यह व्यक्ति वस्तुतः (स्वः) = अपने मोक्षसुख को भी (सिषासति) = बाँटना चाहता है। स्वयं अकेला मुक्त भी नहीं होना चाहता।

    भावार्थ

    मुक्ति का मार्ग यही है कि मनुष्य – १. कवि-क्रान्तदर्शी बने, २. पवित्र धनवाला हो, ३. वेदज्ञान को प्राप्त करे, ४. शक्तिशाली व क्रियाशील हो, ५. सभी को सुख प्राप्त कराना चाहे ।
     

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    (कविः) क्रान्तद्रष्टा मेधावी कविहृदयः सोमः विद्वान् आचार्यः (नृम्णा) नृम्णानि बलानि (पुनानः) पवित्रयन् (यत्) यदा (काव्या) वेदादिकाव्यानि (परि अर्षति) व्याख्याति, तदा (वाजी) बलविज्ञानवान् सः शिष्येभ्यः (स्वः) आनन्दम् (सिषासति) प्रदातुमिच्छति। [षण सम्भक्तौ षणु दाने वा धातोः सनि रूपम्] ॥४॥

    भावार्थः

    विदुष आचार्यस्य वेदादिशास्त्रव्याख्यानं शिष्येभ्यः परमानन्दकरं ज्ञानवर्धकं च जायते ॥४॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।७।४, ‘पुनानो’ इत्यत्र ‘वसा॑नो॒’।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    When a wise and learned person, purging the hearts of men, acquires the knowledge of Vedic verses, then through his superior knowledge, he cherishes the joy of final beatitude.

    Translator Comment

    Final beatitude means salvation.

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    Meaning

    When the poetic spirit of omniscience wrapped in glory moves and inspires the vision and imagination of the poet, the creative spirit flies to the heavens and celebrates divinity in poetry. (Rg. 9-7-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (कविः) ક્રાન્તદર્શી સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (यत्) જ્યારે (नृम्णा पुनानः) મંત્રરૂપ જ્ઞાનધનોને વહાવવા માટે (परि अर्षति) સંભજન સ્થાન-ઋષિઓનાં અન્તઃકરણને પરિપ્રાપ્ત થાય છે, ત્યારે (स्वर्वाजी काव्या सिषासति) સ્વઃ-મોક્ષ ભાગવાળો મોક્ષ ચાહનાર ઉપાસક આત્મા તે કાવ્યધનો મંત્ર જ્ઞાનોને સંભજન કરવા ચાહે છે. (૪)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वान आचार्याची वेद इत्यादी शास्त्रांची व्याख्या शिष्यांना परमानंद देणारी व त्यांची ज्ञानवृद्धी करणारी असते. ॥४॥

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