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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1246
    ऋषिः - उशना काव्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    3

    त्वं꣡ य꣢विष्ठ दा꣣शु꣢षो꣣ नॄ꣡ꣳपा꣢हि शृणु꣣ही꣡ गिरः꣢꣯ । र꣡क्षा꣢ तो꣣क꣢मु꣣त꣡ त्मना꣢꣯ ॥१२४६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । य꣣विष्ठ । दाशु꣡षः꣢ । नॄन् । पा꣣हि । शृणुहि꣢ । गि꣡रः꣢꣯ । र꣡क्ष꣢꣯ । तो꣣क꣢म् । उ꣣त꣢ । त्म꣡ना꣢꣯ ॥१२४६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं यविष्ठ दाशुषो नॄꣳपाहि शृणुही गिरः । रक्षा तोकमुत त्मना ॥१२४६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । यविष्ठ । दाशुषः । नॄन् । पाहि । शृणुहि । गिरः । रक्ष । तोकम् । उत । त्मना ॥१२४६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1246
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 9; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा और राजा से प्रार्थना की गयी है।

    पदार्थ

    प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (यविष्ठ) सबसे अधिक युवा अर्थात् युवा के समान शक्तिसम्पन्न परमात्मन् ! (त्वम्) आप (दाशुषः) आत्मसमर्पण करनेवाले (नॄन्) उपासक जनों की (पाहि) पालना कीजिए, उनकी (गिरः) स्तुति-वाणियों को (शृणुहि) सुनिए, (उत) और (त्मना) अपने आप (तोकम्) उनकी सद्विचार-रूप सन्तान की (रक्ष) रक्षा कीजिए ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे (यविष्ठ) अतिशय युवक राजन् ! (त्वम्) आप (दाशुषः) विद्या के दाता वा धन के दाता (नॄन्) पुरुषों की (पाहि) रक्षा कीजिए। (उत) और (त्मना) स्वयम् (तोकम्) युद्ध में मृत सैनिकों की सन्तान की (रक्ष) पालना कीजिए ॥३॥३

    भावार्थ

    जगदीश्वर अपने उपासकों को पालता है और उनकी रक्षा करता है। उसी प्रकार राजा को दो कर्म अवश्य करने चाहिए—एक विद्वानों का पालन और उनका उपदेश सुनना और दूसरा युद्ध में मारे गये सैनिकों के सन्तान, पत्नी आदि का पालन ॥३॥

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    पदार्थ

    (यविष्ठ) हे अत्यन्त मिलने वाले४ आत्मभाव से अपनाने वाले परमात्मन्! तू (त्वं दाशुषः-नृन्-पाहि) स्वात्मदान करने वाले मुमुक्षुजनों की पालना कर (गिरः शृणुधि) स्तुति को सुन—स्वीकार कर (उत) अपि-और (त्मना तोकं रक्ष) अपने पुत्र रूप आत्मा की रक्षा कर सत्सङ्ग प्रदान करके॥३॥

    विशेष

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    विषय

    स्वयं रक्षा कीजिए

    पदार्थ

    प्रभु-प्राप्ति की प्रबल कामनावाला 'उशना: ' संसार की वास्तविकता को समझनेवाला 'काव्य' प्रभु से प्रार्थना करता है कि १. हे (यविष्ठ) = युवतम ! बुराइयों से पृथक् तथा भलाइयों से सम्पृक्त करनेवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप दाशुषः (नँः) = अपना समर्पण करनेवाली प्रजाओं का (पाहि) = पालन कीजिए । वस्तुत: प्रभु के प्रति अपना अर्पण करने से प्रभु असत् से दूर करके हमें सत् के समीप पहुँचाते हैंतमस् को दूर कर ज्योति देते हैं तथा मृत्यु से बचाकर अमरता प्राप्त कराते हैं । २. हे प्रभो! आप (गिरः) = हमारी प्रार्थनावाणियों का (शृणुहि) = श्रवण कीजिए। हमारी प्रार्थना पूर्ण पुरुषार्थ के उपरान्त हो जिससे वह श्रवण के योग्य हो । ३. (उत) = और आप (त्मना) = स्वयं ही (तोकम्) = [क] अपने पर शासन करनेवाले, [ख] लक्ष्य को प्राप्त करनेवाले, [ग] ज्ञान इत्यादि से फूलने-फलनेवाले, [घ] क्रियाशील, तथा [ङ] कामादि का संहार करनेवाले आपके पुत्र मेरी रक्ष-रक्षा कीजिए। [To have authority, to attain, to thrive, to go, to kill]।

    वस्तुत: पुत्र वही होता है जो अपने सुचरितों से पिता को प्रीणित करता है, जो जितेन्द्रिय बनता है, लक्ष्य-सिद्धि के लिए दृढ़ संकल्प होता है, ज्ञानैश्वर्य को प्राप्त करता है, क्रियाशील होता है तथा कामादि का संहार करता है। प्रभु इसकी रक्षा क्यों न करेंगे ? 

    भावार्थ

    हे प्रभो ! हम आपके सच्चे पुत्र बनें और आपकी रक्षा के पात्र हों ।

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    पदार्थ

    शब्दार्थ = ( यविष्ठ ) = हे अत्यन्त बलयुक्त प्रभो !  ( दाशुष: ) = दानशील  ( नॄःं पाहि ) = मनुष्यों की रक्षा कीजिये  ( गिरः शृणुहि ) = उनकी प्रार्थना रूपी वाणियों को सुनिये  ( उत तोकम ) = और उन के पुत्रादि सन्तान की  ( त्मना रक्षा ) = अपने अनन्त सामर्थ्य से रक्षा कीजिये।

    भावार्थ

    भावार्थ = हे सर्वशक्तिमन् जगदीश्वर ! आप कृपा कर, दानशील धर्मात्माओं की और उनके पुत्र-पौत्रादि परिवार की रक्षा कीजिये। जिससे वे दाता धर्मात्मा परम प्रसन्न हुए, सुपात्रों को अनेक पदार्थों का दान देते हुए संसार का उपकार करें और आपकी कृपा के पात्र सच्चे प्रेमी भक्त बनकर दूसरों को भी प्रेमी भक्त बनाएँ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मानं नृपं च प्रार्थयते।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपक्षे। हे (यविष्ठ) युवतम, तद्वच्छक्तिसम्पन्न परमात्मन् ! (त्वम् दाशुषः) आत्मसमर्पकान् (नॄन्) उपासकान् जनान् (पाहि) पालय, तेषाम् (गिरः) स्तुतिवाचः (शृणुहि) शृणु। [अत्र ‘उतश्च प्रत्ययाच्छन्दो वा वचनम्। अ० ६।४।१०६ वा०’ इत्यनेन छन्दसि हेर्लुको विकल्पविधानात् हेर्लुक् न, संहितायाम् ‘अन्येषामपि दृश्यते। अ० ६।३।१३७’ इति दीर्घः।] (उत) अपि च (त्मना) आत्मना (तोकम्) तेषां सद्विचाररूपं सन्तानम् (रक्ष) शत्रुभ्यः त्रायस्व। [संहितायां ‘नॄँ पाहि’ इत्यत्र ‘नॄन् पे’ अ० ८।३।१० इत्यनेन नकारस्य रुत्वम्। ‘अत्रानुनासिकः पूर्वस्य तु वा’ अ० ८।३।२ इत्यनेन पूर्वस्यानुनासिकः] ॥ द्वितीयः—नृपतिपक्षे। हे (यविष्ठ) अतिशयेन तरुण राजन् ! (त्वम् दाशुषः) विद्यादातॄन् धनदातॄन् वा (नॄन्) मनुष्यान् (पाहि) रक्ष, (गिरः) विदुषां वाचः (शृणुहि) शृणु, (उत) अपि च (त्मना) आत्मना (तोकम्) युद्धे मृतानां सैनिकानामपत्यम् (रक्ष) पालय ॥३॥२

    भावार्थः

    जगदीश्वरः स्वोपासकान् पालयति रक्षति च। तथैव नृपतिना द्वे कर्मणी अवश्यं कर्तव्ये, एकं विदुषां पालनं तदुपदेशश्रवणं च, द्वितीयं युद्धे हतानां सैनिकानामपत्यपत्न्यादिपालनञ्च ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।८४।३, य० १३।५२, १८।७७, सर्वत्र ‘शृणुधी’ इति पाठः। २. एतद् राजपरं व्याख्यानं य० १८।७७। इत्यस्य दयानन्दभाष्यमनुसरति। य० १३।५२ इत्यस्य भाष्ये मन्त्रोऽयं तेन महर्षिणा पशुभिर्नृणां रक्षाविषये व्याख्यातः। ३. यह राजापरक व्याख्या य० १८।७७ के दयानन्दभाष्य के अनुसार है।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Omnipotent God, do Thou protect the men who are charitably disposed, hear their say, preserve even the tiniest creature!

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    Meaning

    O lord eternal, ever youthful beyond age, pray protect and promote the families of the generous people, listen to their voices of prayer and, by all your will and power, protect and promote the children and grand children of humanity. (Rg. 8-84-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (यविष्ठ) હે અત્યંત મળનાર આત્મભાવી અપનાવનાર પરમાત્મન્ ! તું (त्वं दाशुषः नृन् याहि) સ્વ આત્મદાન કરનારા મુમુક્ષુજનોનું પાલન કર. (गिरः श्रृणुधि) સ્તુતિને સાંભળ-સ્વીકાર કર. (उत) અને (त्मना तोकं रक्ष) તારા પુત્રરૂપ આત્માની રક્ષા કર. સત્સંગ પ્રદાન કરીને.-[રક્ષા કર.] (૩)
     

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    ত্বং যবিষ্ঠ দাশুষো নৃঁঃ পাহি শৃণুহী গিরঃ।

    রক্ষা তোকমুত ত্মনা।।৪৮।।

    (সাম ১২৪৬)

    পদার্থঃ (যবিষ্ঠ) হে অত্যন্ত বলযুক্ত ঈশ্বর! (ত্বম্) তুমি (দাশুষঃ) দানশীল (নৃন্ পাহি) মনুষ্যদের রক্ষা করো। (গিরঃ শৃণুহি) তাদের প্রার্থনারূপ বাণীকে শ্রবণ করো (উত তোকম্) এবং তাদের সন্তানদের (ত্মনা রক্ষা) তোমার অনন্ত সামর্থ্য দিয়ে রক্ষা করো।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে সর্ব শক্তিমান জগদীশ্বর! তুমি কৃপা করো, দানশীল ধর্মাত্মা ও তাঁদের সন্তানসহ পরিবারকে রক্ষা করো; যাতে তাঁরা দাতা ধর্মাত্মা পরম প্রসন্ন হয়ে সুপাত্রে অনেক পদার্থের দান দিয়ে সংসারের উপকার করতে পারেন। তোমার কৃপা প্রাপ্ত প্রিয় ভক্ত হয়ে আমরাও যেন অপরকে তোমার প্রিয় ভক্ত বানাতে পারি ।।৪৮।।

     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जगदीश्वर आपल्या उपासकांचे पालन करतो व त्यांचे रक्षण करतो. त्याचप्रकारे राजाने दोन कर्म अवश्य केले पाहिजेत. एक विद्वानांचे पालन व त्यांचा उपदेश ऐकणे व दुसरे युद्धात मृत्यू पावलेल्या सैनिकांच्या संतानांचे व पत्नीचे पालन ॥३॥

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