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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1247
    ऋषिः - नृमेध आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
    3

    ए꣡न्द्र꣢ नो गधि प्रिय꣣ स꣡त्रा꣢जिदगोह्य । गि꣣रि꣢꣫र्न वि꣣श्व꣡तः꣢ पृ꣣थुः꣡ पति꣢꣯र्दि꣣वः꣢ ॥१२४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ꣢ । इ꣣न्द्र । नः । गधि । प्रिय । स꣡त्रा꣢꣯जित् । स꣡त्रा꣢꣯ । जि꣣त् । अगोह्य । अ । गोह्य । गिरिः꣢ । न । वि꣣श्व꣡तः꣢ । पृ꣣थुः꣢ । प꣡तिः꣢꣯ । दि꣣वः꣢ ॥१२४७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एन्द्र नो गधि प्रिय सत्राजिदगोह्य । गिरिर्न विश्वतः पृथुः पतिर्दिवः ॥१२४७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ । इन्द्र । नः । गधि । प्रिय । सत्राजित् । सत्रा । जित् । अगोह्य । अ । गोह्य । गिरिः । न । विश्वतः । पृथुः । पतिः । दिवः ॥१२४७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1247
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 9; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ३९३ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में की जा चुकी है। यहाँ फिर उसी विषय का वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    हे (प्रिय) तृप्तिप्रदाता, (सत्राजित्) एक साथ सब शत्रुओं को जीत लेनेवाले, (अगोह्य) न छिपाये जा सकने योग्य अर्थात् सर्वत्र प्रकाशमान (इन्द्र) परमात्मन् ! आप (गिरिः न) बादल के समान (सर्वतः) सब ओर (पृथुः) प्रख्यात और (दिवः पतिः) तेजस्वी सूर्य के वा जीवात्मा के स्वामी हो ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥

    भावार्थ

    यद्यपि परमेश्वर चर्मचक्षु से दिखाई नहीं देता, तो भी वह सूर्य के समान सर्वत्र प्रकाशित, तृप्तिप्रदायक, सर्वविजेता, सुख आदि की वर्षा करने के कारण बादल के समान प्रसिद्धि-प्राप्त और सब जड़-चेतन जगत् का अधिपति है ॥१॥

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    टिप्पणी

    (देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या ३९३)

    विशेष

    ऋषिः—नृमेधः (मुमुक्षु मेधावाला५)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—उष्णिक्॥<br>

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    विषय

    सत्राजित् अगोह्य

    पदार्थ

    ३९३ संख्या पर मन्त्रार्थ द्रष्टव्य है |
     

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३९३ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्र पुनरपि स एव विषयो वर्ण्यते।

    पदार्थः

    हे (प्रिय) प्रीणयितः, (सत्राजित्) युगपत् सर्वान् शत्रून् जेतः ! [सत्रा सह जयतीति सत्राजित्।] (अगोह्यः) गोहितुमशक्य, सर्वत्र प्रकाशमान (इन्द्र) परमात्मन् ! त्वम् (नः) अस्मान् (आ गधि) आगहि आगच्छ। त्वम् (गिरिः न) मेघ इव। [गिरिः इति मेघनाम। निघं० १।१०।] (सर्वतः) विश्वतः (पृथुः) प्रख्यातः, अपि च (दिवः पतिः) द्योतमानस्य सूर्यस्य जीवात्मनो वा स्वामी असि ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥

    भावार्थः

    यद्यपि परमेश्वरश्चर्मचक्षुषा न दृश्यते तथापि स सूर्यवत् सर्वत्र प्रकाशितस्तृप्तिप्रदायकः सर्वविजेता सुखादीनां वृष्टिकरणान्मेघवत् प्रसिद्धिं गतः सर्वस्य जडचेतनात्मकस्य जगतोऽधिपतिश्चास्ति ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।९८।४, अथ० २०।६४।१, उभयत्र ‘प्रि॒यः स॑त्रा॒जिदगो॑ह्यः’ इति पाठः। साम० ३९३।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Lightning, deaf onto us, the Conqueror of all clouds, apparent and hence unhidden, expanded on all sides like a cloud, thou pervadest directional.

    Translator Comment

    See verse 393.

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    Meaning

    Indra, come, take us over as your own. Dear and giver of fulfilment you are, all dominant by nature, character and action, inconceivably open and bright, expansive and unbounded all round like a cloud of vapour, lord and master of the light of heaven. (Rg. 8-98-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (प्रिय) હે પ્યારે (सत्राजित्) તુરત એક સાથે જયકર્તા (अगोह्य) ન છૂપાવવા ન લુપ્ત કરવા યોગ્ય (इन्द्र) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! તું (गिरिः न) ઊંચા પર્વત સમાન મહાન છે-ઊંચે રહેનાર છે. (विश्वतः पृथुः) સવથી મહાન છે (दिवः पतिः) અમૃત મોક્ષનો સ્વામી છે. (नः आ गधि) અમને આવીને મળ-અમને પ્રાપ્ત થા. (૩)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : ઉપાસકનાં પ્રતિબંધકને તુરત જીતવા, નષ્ટ કરનાર,સદા પ્રકાશમાન-ઉપાસકથી ન છૂપનારસાક્ષાત્ થનાર પ્રિય પરમાત્મન્ ! તું ઊંચા પર્વતની સમાન મહાન મોક્ષધામનો સ્વામી છે, તેથી અમને મળ-પ્રાપ્ત થા-એ જ આકાંક્ષા છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा जरी चर्मचक्षूनी दिसत नाही, तरीही तो सूर्याप्रमाणे प्रकाशित, तृप्तिप्रदायक, सर्वविजेता, सुख इत्यादीचा वर्षाव करणारा असल्यामुळे मेघाप्रमाणे प्रसिद्ध व सर्व जड चेतन जगाचा अधिपती आहे. ॥१॥

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