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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1268
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    2

    ए꣣तं꣡ मृ꣢जन्ति꣣ म꣢र्ज्य꣣मु꣢प꣣ द्रो꣡णे꣢ष्वा꣣य꣡वः꣢ । प्र꣣चक्राणं꣢ म꣣ही꣡रिषः꣢꣯ ॥१२६८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए꣣त꣢म् । मृ꣣जन्ति । म꣡र्ज्य꣢꣯म् । उ꣡प꣢꣯ । द्रो꣡णे꣢꣯षु । आ꣣य꣡वः꣢ । प्र꣣चक्राण꣢म् । प्र꣣ । चक्राण꣢म् । म꣣हीः꣢ । इ꣡षः꣢꣯ ॥१२६८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतं मृजन्ति मर्ज्यमुप द्रोणेष्वायवः । प्रचक्राणं महीरिषः ॥१२६८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एतम् । मृजन्ति । मर्ज्यम् । उप । द्रोणेषु । आयवः । प्रचक्राणम् । प्र । चक्राणम् । महीः । इषः ॥१२६८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1268
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अगले मन्त्र में आत्मशुद्धि का विषय है।

    पदार्थ

    (महीः) महान्, (इषः) ज्ञान और कर्म की सम्पत्तियों को (प्रचक्राणम्) अधिकाधिक सञ्चित किये हुए (मर्ज्यम्) शुद्ध करने योग्य (एतम्) इस जीवात्मा को (आयवः) मनुष्य (द्रोणेषु) उपासना-रस के कुण्डों में (उपमृजन्ति) शोधते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    जीवात्मा जब अविद्या, पाप आदियों से लिप्त हो जाता है, तब उसकी शुद्धि के लिए परमेश्वर की उपासना अपेक्षित होती है ॥३॥

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    पदार्थ

    (महीः-इषः-चक्राणम्) महती कामनाओं को पूरा करने वाले (एतं मर्ज्यम्) इस प्राप्त करने योग्य को (आयवः) उपासकजन८ (द्रोणेषु) मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार पात्रों में (उपमृजन्ति) उपगत होते हैं—मनन आदि करके अपनाते हैं॥३॥

    विशेष

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    विषय

    मृग्य का मृजन

    पदार्थ

    (आयवः) = गतिशील पुरुष – क्रियाशील व्यक्ति (एतम्) = इस (मर्ज्यम्) = अन्वेषण करने योग्य [मृज् to seek], अपने हृदयों में अलंकृत करने योग्य प्रभु को द्रोणेषु इन गति के आधारभूत शरीरों में (उपमृजन्ति) = समीपता से शोधने का प्रयत्न करते हैं। उस प्रभु को जोकि (महीः इषः) = महान् प्रेरणाओं को (प्रचक्राणम्) = प्रकर्ष से कर रहे हैं ।

    अन्त:स्थित प्रभु सदा उत्तम प्रेरणाएँ दे रहे हैं । यह हमारा दौर्भाग्य है कि हम उन्हें सुनते ही नहीं । आयु- गतिशील पुरुष ही अन्तःस्थ प्रभु का साक्षात्कार करते हैं और उसकी वाणी को सुन पाते हैं। यहाँ — शरीर में ही उस प्रभु का दर्शन होना है। शरीर को द्रोण कहा है, क्योंकि यही इन्द्रियों, मन व बुद्धि का आधार है, जैसेकि द्रोणपात्र पानी आदि का आधार बनता है । अथवा सारी गति इस शरीर में ही होती है, इसलिए भी इसे 'द्रोण' कहा है, [द्रु गतौ] । जब मनुष्य का झुकाव प्रभु की ओर होता है तब वह प्रभु की महनीय प्रेरणाओं को सुनता है ।

    भावार्थ

    हम प्रभु को ही मृग्य - अन्वेषणीय पदार्थ समझें।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथात्मशुद्धिविषय उच्यते।

    पदार्थः

    (महीः) महतीः (इषः२) ज्ञानकर्मसम्पत्तीः (प्रचक्राणम्) प्रकर्षेण सञ्चितवन्तम्। [प्रपूर्वात् करोतेर्लिटि कानजादेशः।] (मर्ज्यम्) शोध्यम्। [मृजू शौचालङ्कारयोः, यत् प्रत्ययः।] (एतम्) इमं जीवात्मानम् (आयवः) मनुष्याः (द्रोणेषु) उपासनारसकुण्डेषु (उपमृजन्ति) उपशोधयन्ति ॥३॥

    भावार्थः

    जीवात्मा यदाऽविद्यापापादिभिर्लिप्यते तदा तस्य शोधनाय परमेश्वरोपासनमपेक्ष्यते ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१५।७। २. महीः इषः महान्ति अन्नानि—इति सा०। इषः धानाः करम्भः पुरोडाशः—इति वि०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The learned, longing for longevity, beautify in their hearts, this soul, worthy to be beautified, and the cherisher of multifarious desires.

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    Meaning

    People adore this glorious power closely treasured in the heart, the divine power that creates and gives great food, energy and advancement. (Rg. 9-15-7)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (महीः इषः चक्राणम्) મહાન કામનાઓને પૂર્ણ કરનાર (एतं मर्ज्यम्) એ પ્રાપ્ત કરવા યોગ્ય (आयवः) ઉપાસકજનો (द्रोणेषु) મન, બુદ્ધિ, ચિત્ત, અહંકાર પાત્રોમાં (उपमृजन्ति) ઉપગત બને છે-મનન આદિ કરીને અપનાવે છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जीवात्मा जेव्हा अविद्या, पाप इत्यादींनी लिप्त होतो तेव्हा त्याच्या शुद्धीसाठी परमेश्वराची उपासना अपेक्षित असते. ॥३॥

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