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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1269
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
ए꣣ष꣢ हि꣣तो꣡ वि नी꣢꣯यते꣣ऽन्तः꣢ शु꣣न्ध्या꣡व꣢ता प꣣था꣢ । य꣡दी꣢ तु꣣ञ्ज꣢न्ति꣣ भू꣡र्ण꣢यः ॥१२६९॥
स्वर सहित पद पाठए꣣षः꣢ । हि꣣तः꣢ । वि । नी꣣यते । अन्त꣡रिति꣢ । शु꣣न्ध्या꣡व꣢ता । प꣣था꣢ । य꣡दि꣢꣯ । तु꣣ञ्ज꣡न्ति꣢ । भू꣡र्ण꣢꣯यः ॥१२६९॥
स्वर रहित मन्त्र
एष हितो वि नीयतेऽन्तः शुन्ध्यावता पथा । यदी तुञ्जन्ति भूर्णयः ॥१२६९॥
स्वर रहित पद पाठ
एषः । हितः । वि । नीयते । अन्तरिति । शुन्ध्यावता । पथा । यदि । तुञ्जन्ति । भूर्णयः ॥१२६९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1269
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 4
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 4
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
आगे फिर वही विषय है।
पदार्थ
(यदि) यदि (भूर्णयः) ज्ञान आदि से भरे हुए मनुष्य (तुञ्जन्ति) स्वयं को परमेश्वर के लिए समर्पित करते हैं, तो इस (शुन्ध्यावता पथा) शुद्धियुक्त मार्ग से (अन्तः हितः) अन्तर्मुख किया हुआ (एषः) यह सोम जीवात्मा (वि नीयते) विशेषरूप से मोक्ष की ओर ले जाया जाता है ॥४॥
भावार्थ
अहङ्कार का परित्याग करके परमात्मा के प्रति आत्मसमर्पण से मोक्ष का मार्ग सरल हो जाता है ॥४॥
पदार्थ
(यद्-इ) जब ही (एषः-हितः) यह हितकर सोम-शान्त परमात्मा (शुन्ध्यावता पथा) शुद्धि—आत्मपरिशुद्धि वाले यम, नियम आदि मार्ग—योगमार्ग से (अन्तः-विनीयते) अन्दर बिठा लिया जाता है—बैठ जाता है तो (भूर्णयः-तुञ्जन्ति) धारण करने वाले उपासकजन इसे ग्रहण कर लेते हैं—अपना लेते हैं१॥४॥
विशेष
<br>
विषय
दान, हृदयशुद्धि, प्रभु-दर्शन
पदार्थ
(एषः) = यह (अन्तः हितः) = अन्दर ही रक्खा हुआ प्रभु (शुन्ध्यावता) = शुद्धिवाले (पथा) = मार्ग से (विनीयते) = प्राप्त किया जाता है, (यत्) = जब (ई) = निश्चय से (भूर्णय:) = औरों का भरण-पोषण करनेवाले व्यक्ति (तुञ्जन्ति) [नि० ३.२०.९ दान] = दान देते हैं ।
प्रभु-प्राप्ति आत्मशुद्धि से होती है और आत्मशुद्धि दान देने से होती है। दान ‘व्यसनवृक्ष' के मूलभूत लोभ को नष्ट कर देता है और इस प्रकार मनुष्य को शुद्ध मनोवृत्तिवाला बनाता है । यह शुद्ध मनोवृत्तिवाला पुरुष ही प्रभु के दर्शन कर पाता है। प्रभु तो हृदय के अन्दर ही वर्त्तमान हैं, हृदय की मलिनता उसका दर्शन नहीं होने देती । हृदय शुद्ध हुआ और दर्शन हुआ ।
भावार्थ
दान से हृदय शुद्ध होता है और शुद्ध हृदय में प्रभु दर्शन हो पाता है ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
पदार्थः
(यदि) चेत् (भूर्णयः२) ज्ञानादिभिः परिपूर्णाः जनाः। [बिभ्रति पुष्णन्ति स्वात्मानं ये ते भूर्णयः। बिभर्तेः ‘घृणिपृश्निपार्ष्णिचूर्णिभूर्णयः।’ उ० ४।५३’ इति नि प्रत्ययः।] (तुञ्जन्ति) परमेश्वराय आत्मानं समर्पयन्ति। [तुञ्जतिर्दानकर्मा। निघं० ३।२०।] तदा अनेन (शुन्ध्यावता पथा) शुद्धियुक्तेन मार्गेण। [शुन्ध शुद्धौ, भ्वादिः।] (अन्तः हितः) अन्तर्मुखीकृतः (एषः) अयं सोमः जीवात्मा (वि नीयते) विशेषेण मुक्तिं प्रति नीयते ॥४॥
भावार्थः
अहंकारं परित्यज्य परमात्मानं प्रति स्वात्मसमर्पणेन मोक्षमार्गः सरलीभवति ॥४॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।१५।३, ‘शु॒भ्राव॑ता प॒था’ इति पाठः। २. भूर्णयः भरणशीलाः—इति सा०। भ्रमणशीलाः—इति वि०।
इंग्लिश (2)
Meaning
When learned persons exert, controlling their breaths through Pranayama this soul hidden inside, is realised through consecrated path.
Translator Comment
Consecrated path means Yoga.
Meaning
This divine Spirit is attained and internalised in the core of the heart and soul by the brilliant path of clairvoyance, when the passionate seekers surrender themselves in obedience to it. (Rg. 9-15-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (यद् इ) જ્યારે પણ (एषः हितः) એ હિતકર સોમ-શાન્ત પરમાત્મા (शुन्ध्यावता पथा) શુદ્ધિ-આત્મ પરિશુદ્ધિ વાળા યમ; નિયમ આદિ માર્ગ-યોગમાર્ગ દ્વારા (अन्तः विनीयते) અંદર બેસાડવામાં આવે છે-બેસી જાય છે, ત્યારે (भूर्णयः तुञ्जन्ति) ધારણ કરનારા ઉપાસકજનો તેને ગ્રહણ કરી લે છે-અપનાવી લે છે. (૪)
मराठी (1)
भावार्थ
अहंकाराचा परित्याग करून परमेश्वराला आत्मसमर्पण करून मोक्षाचा मार्ग सरळ, सुलभ होतो. ॥४॥
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