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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1290
    ऋषिः - नृमेध आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    2

    ए꣣ष꣢ शु꣣꣬ष्म्य꣢꣯सिष्यदद꣣न्त꣡रि꣢क्षे꣣ वृ꣢षा꣣ ह꣡रिः꣢ । पु꣣ना꣢꣫न इन्दु꣣रि꣢न्द्र꣣मा꣡ ॥१२९०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए꣣षः꣢ । शु꣣ष्मी꣢ । अ꣣सिष्यदत् । अन्त꣡रि꣢क्षे । वृ꣡षा꣢꣯ । ह꣡रिः꣢꣯ । पु꣣नानः꣢ । इ꣡न्दुः꣢꣯ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । आ ॥१२९०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष शुष्म्यसिष्यददन्तरिक्षे वृषा हरिः । पुनान इन्दुरिन्द्रमा ॥१२९०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एषः । शुष्मी । असिष्यदत् । अन्तरिक्षे । वृषा । हरिः । पुनानः । इन्दुः । इन्द्रम् । आ ॥१२९०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1290
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 5
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    आगे फिर वही विषय है।

    पदार्थ

    (एषः) यह (शुष्मी) बलवान्, (वृषा) आनन्दवर्षक, (हरिः) पापों को हरनेवाला (इन्दुः) रसमय परमेश्वर (इन्द्रम्) जीवात्मा को (आ पुनानः) चारों ओर से पवित्र करता हुआ (अन्तरिक्षे) मनोमय कोश में (असिष्यदत्) प्रवाहित हो रहा है ॥५॥

    भावार्थ

    जैसे अन्तरिक्ष में स्थित चन्द्रमा चाँदनी के रस को प्रसारित करता है, वैसे ही हृदय-प्रदेश में स्थित परमेश्वर आनन्द-रस को प्रवाहित करता है ॥५॥

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    पदार्थ

    (एषः) यह (शुष्मी) बलवान्४ (वृषा) कामनावर्षक (हरिः) दोष-हर्ता (पुनानः) शोधता हुआ (इन्दुः) रसीला परमात्मा (इन्द्रम्-आ) उपासक आत्मा को प्राप्त होकर (अन्तरिक्षे) हृदयावकाश में (असिष्यदत्) सञ्चार करता है॥५॥

    विशेष

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    विषय

    हृदय में प्रभु का प्रवाह

    पदार्थ

    (एषः) = यह नृमेध १. (शुष्मी) = शत्रुओं का शोषण कर देनेवाले बलवाला होता है २. (वृषा) = यह अद्भुत शक्तिवाला बनता है ३. (हरिः) = शक्ति का प्रयोग आर्तों की आर्ति के हरण में करता है, अतः हरि कहलाता है ४. (पुनान:) = अपने जीवन को पवित्र बनाये रखता है। अभिमानवश बल का प्रयोग औरों को पीड़ित करने में करने से मानवजीवन अपवित्र हो जाता है । ५. (इन्द्रः) = यह नृमेध शक्ति व पवित्रता आदि परमैश्वर्यों को प्राप्त करता है । ६. और ऐसा बनकर (अन्तरिक्षे) = अपने हृदयाकाश में (इन्द्रम्) = उस सर्वशत्रुविनाशक परमैश्वर्य के स्वामी प्रभु को (आ) = सर्वथा (असिष्यदत्) = प्रस्तुत करता है। इस नृमेध के हृदय में प्रभु-स्तोत्र प्रवाहित होते हैं । वास्तव में हृदय में बहनेवाला यह प्रभुस्तुति का प्रवाह ही नृमेध की 'शक्ति, ज्ञान व पवित्रता' का रहस्य है । इसका शरीर शक्तिशाली है, इसका मस्तिष्क ज्ञानाग्नि से दीप्त है और इसका हृदय पवित्रता से पूर्ण है, क्योंकि यह हृदय में निरन्तर प्रभु का ध्यान कर रहा है ।

    भावार्थ

    प्रभु का भक्त १. शत्रुओं का शोषण करता है २. शक्तिशाली होता है ३. आर्तों का त्राण करता है ४. पवित्र जीवनवाला होता है ५. परमैश्वर्य को प्राप्त करता है और ६. हृदय में निरन्तर प्रभु का ध्यान करता है ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनः स एव विषयो वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (एषः) अयम् (शुष्मी) बलवान्। [शुष्ममिति बलनाम शोषयतीति सतः। निरु० २।२३।] (वृषा) आनन्दवर्षकः (हरिः) पापहर्ता (इन्दुः) रसमयः परमेश्वरः (इन्द्रम्) जीवात्मानम् (आ पुनानः) समन्तात् पावयन् (अन्तरिक्षे) मनोमयकोशे (असिष्यदत्) प्रस्यन्दते ॥५॥

    भावार्थः

    यथाऽन्तरिक्षे स्थितश्चन्द्रमाश्चन्द्रिकारसं प्रसारयति तथा हृद्देशे स्थितः परमेश्वर आनन्दरसं प्रवाहयति ॥५॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The Glorious God, the Alleviator of all sufferings, the Bestower of all joys. Omnipotent, purifying the soul, reigned supreme in the heart.

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    Meaning

    This Soma Spirit of eternal joy is omnipotent, all pervasive in space, infinitely generous, eliminator of suffering, and, purifying and sanctifying the human soul, it is the ultimate bliss of existence. (Rg. 9-27-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (एषः)(शुष्मी) બળવાન (वृषा) કામનાવર્ષક (हरिः) દોષ હર્તા (पुनानः) પવિત્ર કરીને (इन्दुः) રસીલા પરમાત્મા (इन्द्रम् आ) ઉપાસક આત્માને પ્રાપ્ત થઈને (अन्तरिक्षे) હૃદયાવકાશમાં (असिष्यदत्) સંચાર કરે છે. (૫)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा अंतरिक्षातील चंद्र चांदणेरूपी रस प्रसारित करतो, तसेच हृदयात स्थित परमेश्वर आनंद रस प्रवाहित करतो. ॥५॥

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