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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1310
ऋषिः - शतं वैखानसाः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
प꣡व꣢मानस्य꣣ जि꣡घ्न꣢तो꣣ ह꣡रे꣢श्च꣣न्द्रा꣡ अ꣢सृक्षत । जी꣣रा꣡ अ꣢जि꣣र꣡शो꣢चिषः ॥१३१०॥
स्वर सहित पद पाठप꣡व꣢꣯मानस्य । जि꣡घ्न꣢꣯तः । ह꣡रेः꣢꣯ । च꣣न्द्राः꣢ । अ꣣सृक्षत । जीराः꣢ । अ꣣जिर꣡शो꣢चिषः । अ꣣जिर꣢ । शो꣣चिषः ॥१३१०॥
स्वर रहित मन्त्र
पवमानस्य जिघ्नतो हरेश्चन्द्रा असृक्षत । जीरा अजिरशोचिषः ॥१३१०॥
स्वर रहित पद पाठ
पवमानस्य । जिघ्नतः । हरेः । चन्द्राः । असृक्षत । जीराः । अजिरशोचिषः । अजिर । शोचिषः ॥१३१०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1310
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 9; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 9; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
प्रथम मन्त्र में परमात्मा की धाराओं का वर्णन है।
पदार्थ
(पवमानस्य) अन्तरात्मा को पवित्र करनेवाले, (जिघ्नतः) दोषों को विनष्ट करनेवाले, (हरेः) चित्ताकर्षक परमात्मा की (चन्द्राः) आनन्ददायिनी (अजिरशोचिषः) अक्षय प्रकाशवाली (जीराः) शीघ्रगामिनी आनन्द-धाराएँ (असृक्षत) छूट रही हैं ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा की आनन्द-धाराओं में डुबकी लगाकर स्तोता जन निर्मल अन्तःकरणवाले होकर कृतकृत्य हो जाते हैं ॥१॥
पदार्थ
(जिघ्नतः) दुःख दोषों को नष्ट करते हुए (अजिर-शोचिषः) गमन व्यापनशील तेज वाले (हरेः) सुखाहर्ता (पवमानस्य) धारारूप में प्राप्त होने वाले शान्तस्वरूप परमात्मा की (जीराः-चन्द्राः-असृक्षत) शीघ्रगति वाली१ आह्लादकारी आनन्दधारायें हम उपासकों पर बरस रही हैं॥१॥
विशेष
ऋषिः—वैखानसः (परमात्मा को विशेष खनन करने खोजने में कुशल)॥ देवता—पवमानः सोमः (शान्तस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>
विषय
न जीर्ण होनेवाली ज्योतियाँ
पदार्थ
‘शतं वैखानसः'='‘सैकड़ों वासनाओं को [वि+खन्] विशेषरूप से खोद डालनेवाला' । प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि अपने जीवन को पवित्र कर लेता है। इस (पवमानस्य) = अपने हृदय को पवित्र करनेवाले (जिघ्नतः) = दुर्गुणों को नष्ट करते हुए (हरे:)= इन्द्रियों का प्रत्याहार करनेवाले वैखानस की (चन्द्राः) = बड़े आह्लाद को जन्म देनेवाली (जीराः) = शीघ्रता से कार्यों में व्याप्त होनेवाली (अजिरशोचिषः) = कभी जीर्ण न होनेवाली ज्योतियाँ (असृक्षत्) = उत्पन्न होती हैं।
मनुष्य को तीन पग रखने हैं – १. पवित्र बनना, २. दुर्गुणों का नाश करना, ३. इन्द्रियों का प्रत्याहरण। इन तीन पगों के रखने पर उसके जीवन में वे ज्योतियाँ जगेंगी, जो १. आह्लादमयता को जन्म देती हैं, २. उसके जीवन में स्फूर्ति लाती हैं तथा ३. जो जीर्ण नहीं होती ।
भावार्थ
पवमान बनकर हम अमर ज्योति प्राप्त करें ।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादौ परमात्मनो धारा वर्णयति।
पदार्थः
(पवमानस्य) अन्तरात्मानं पुनानस्य, (जिघ्नतः) दोषान् विनाशयतः [हन्तेः शतरि छान्दसः शपः श्लुः।] (हरेः) चित्ताकर्षकस्य परमात्मनः (चन्द्राः) आह्लादकारिण्यः,(अजिरशोचिषः) अक्षयरोचिषः, (जीराः) क्षिप्रगामिन्यः आनन्दधाराः। [जीराः इति क्षिप्रनाम। निघं० २।१५।] (असृक्षत) विसृज्यन्ते ॥१॥
भावार्थः
परमात्मन आनन्दधारासु निमज्ज्य स्तोतारो निर्मलान्तःकरणाः सन्तः कृतकृत्या जायन्ते ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
On flow the gladdening, woo-killing eternal gleams of the soul, pure in nature, the banisher of all sufferings, the destroyer of all the coatings of ignorance.
Meaning
Beauteous manifestations and brilliant radiations of eternal light and power of lord creator, destroyer of want and suffering, dispeller of darkness and negation, ever active and constantly flowing, pure and purifying, come into existence and flow according to divine plan and the cosmic model. (Rg. 9-66-25)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (जिघ्नतः) દુઃખ દોષોને નષ્ટ કરતાં (अजिर शोचिषः) ગમન વ્યાપનશીલ તેજવાળા (हरेः) સુખદાતા (पवमानस्य) ધારારૂપમાં પ્રાપ્ત થનાર શાંતસ્વરૂપ પરમાત્માની (जीराः चन्द्राः असृक्षत) શીઘ્રગતિવાળી આહ્લાદકારી આનંદધારાઓ અમારી - ઉપાસકોની ઉપર વરસી રહી છે. (૧)
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याच्या आनंद धारांमध्ये डुबकी मारून स्तोता लोक निर्मल अंत:करणयुक्त बनून कृतकृत्य होतात. ॥१॥
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