Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1409
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
2
शू꣡र꣢ग्रामः꣣ स꣡र्व꣢वीरः꣣ स꣡हा꣢वा꣣ञ्जे꣡ता पवस्व꣣ स꣡नि꣢ता꣣ ध꣡ना꣢नि । ति꣣ग्मा꣡यु꣢धः क्षि꣣प्र꣡ध꣢न्वा स꣣म꣡त्स्वषा꣢꣯ढः सा꣣ह्वा꣡न्पृत꣢꣯नासु꣣ श꣡त्रू꣢न् ॥१४०९॥
स्वर सहित पद पाठशू꣡र꣢꣯ग्रामः । शू꣡र꣢꣯ । ग्रा꣣मः । स꣡र्व꣢꣯वीरः । स꣡र्व꣢꣯ । वी꣣रः । स꣡हा꣢꣯वान् । जे꣡ता꣢꣯ । प꣣वस्व । स꣡नि꣢꣯ता । ध꣡ना꣢꣯नि । ति꣣ग्मा꣡यु꣢धः । ति꣣ग्म꣢ । आ꣣युधः । क्षिप्र꣡ध꣢न्वा । क्षि꣣प्र꣢ । ध꣣न्वा । स꣣म꣡त्सु꣢ । स꣣ । म꣡त्सु꣢꣯ । अ꣡षा꣢꣯ढः । सा꣣ह्वा꣢न् । पृ꣡त꣢꣯नासु । श꣡त्रू꣢꣯न् ॥१४०९॥
स्वर रहित मन्त्र
शूरग्रामः सर्ववीरः सहावाञ्जेता पवस्व सनिता धनानि । तिग्मायुधः क्षिप्रधन्वा समत्स्वषाढः साह्वान्पृतनासु शत्रून् ॥१४०९॥
स्वर रहित पद पाठ
शूरग्रामः । शूर । ग्रामः । सर्ववीरः । सर्व । वीरः । सहावान् । जेता । पवस्व । सनिता । धनानि । तिग्मायुधः । तिग्म । आयुधः । क्षिप्रधन्वा । क्षिप्र । धन्वा । समत्सु । स । मत्सु । अषाढः । साह्वान् । पृतनासु । शत्रून् ॥१४०९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1409
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में राजा और जीवात्मा को उद्बोधन देते हैं।
पदार्थ
प्रथम—राजा के पक्ष में। हे सोम अर्थात् वीर राजन् ! (शूरग्रामः) शूर योद्धा-गणवाले, (सर्ववीराः) सब वीर प्रजाओंवाले, (सहावान्) सहनशील, (जेता) विजयशील, (धनानि) ऐश्वर्यों के (सनिता) दाता, (तिग्मायुधः) तीक्ष्ण शस्त्रास्त्रोंवाले, (क्षिप्रधन्वा) शीघ्र धनुषवाले, (समत्सु) युद्धों में (अषाढः) परास्त न होनेवाले, (पृतनासु) शत्रु-सेनाओं में (शत्रून्) शत्रुओं को (साह्वान्) पराजित करनेवाले आप (पवस्व) पराक्रम दिखाओ ॥ द्वितीय—जीवात्मा के पक्ष में। हे सोम जीवात्मन् ! (शूरग्रामः) शूर प्राण-गणवाला, (सर्ववीरः) जिसके मन, बुद्धि आदि सब वीर हैं ऐसा, (सहावान्) उत्साही, (जेता) विजयशील, (धनानि) सद्गुणरूप ऐश्वर्यों को (सनिता) प्राप्त करनेवाला, (तिग्मायुधः) तीक्ष्ण शत्रुदाहक तेजोंवाला, (क्षिप्रधन्वा) वेग से चलनेवाले प्रणव-जपरूप धनुषवाला, (समत्सु) आन्तरिक देवासुर संग्रामों में (अषाढः) पराजित न होनेवाला, (पृतनासु) काम, क्रोध आदि की सेनाओं में (शत्रून्) शत्रुओं को (साह्वान्) पराजित करनेवाला तू (पवस्व) क्रियाशील हो अथवा स्वयं को पवित्र रख ॥२॥ यहाँ श्लेषालङ्कार है। विशेषणों के साभिप्राय होने से परिकर अलङ्कार भी है। ऐसे विलक्षण गुणों से सुशोभित भी तू यदि विक्रम नहीं दिखाता, क्रियाशील नहीं होता अथवा पवित्र आचरण नहीं रखता, तो ये गुण भारस्वरूप ही होंगे, यह आशय है ॥२॥
भावार्थ
देह में मनुष्य का आत्मा और राष्ट्र में राजा यदि शत्रुओं को पराजित करके योगक्षेम करते हैं, तो देह और राष्ट्र का स्वराज्य अक्षुण्ण रहता है ॥२॥
पदार्थ
(शूरग्रामः) हे सोम—शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू प्रगतिशील—हर्ष, सन्तोष, शान्तिगुण समूहवाला (सर्ववीरः) सबका प्रेरक—सर्व प्रकार प्रेरणादाता (सहावान्) तर्पण शक्तिवाला—तृप्तिदाता या सहस्वान्—बलवान्२ (जेता) अभिभव करनेवाला—अधिकर्ता—स्वामी३ (धनानि सनिता) विविध धनों को सम्भजन करनेवाला—दान करने के स्वभाववाला४ (तिग्मायुधः) कामादि के संघर्ष में उत्साहवर्धक सम्प्रहार शक्ति जिससे प्राप्त हो—ऐसा५ अथवा उत्साहवर्धक आयु का धारण करानेवाला (क्षिप्रधन्वा) शीघ्रगति—शीघ्रकारी (समत्सु-अषाढः) सम्मोदन हर्ष प्राप्त करने में असह्य—अत्यन्त हर्षमय होने से पूर्ण, न सह सकने योग्य६ (पृतनासु शत्रून् साह्वान्) उपासक मनुष्यों के अन्दर वर्तमान७ पापों को८ दबा देनेवाला (पवस्व) हमें आनन्दधारा में प्राप्त हो॥२॥
विशेष
<br>
विषय
कैसा बनकर
पदार्थ
प्रभु कहते हैं कि तू (पवस्व) = अपने जीवन को पवित्र कर अथवा मेरी ओर [आप्नुहि आगच्छ च] आ। कैसा बनकर – १. (शूरग्रामः) = शूरता का तू ग्राम बन । 'ग्राम' प्रत्यय समूह अर्थ में आता है, शूरता का तू समूह हो, अर्थात् शूरता तुझमें निवास करे। ग्राम शब्द 'ग्रस धातु से मन प्रत्यय से मन' आकर बनता है, अत: यह भी अर्थ हो सकता है कि [शृ हिंसायाम्] हिंसकों का तू ग्रसनेवाला हो । २. (सर्ववीरः) = तू पूर्ण वीर बनकर काम-क्रोधादि शत्रुओं को कम्पित करके दूर भगानेवाला हो तथा रोगों को नष्ट करनेवाला वीर्य तुझमें सुरक्षित हो । ३. (सहावान्) = तू शीतोष्णादि द्वन्द्वों को सहनेवाला बन । ४. (जेता) = सदा विजेता बन – पराजित होनेवाला न हो । एक-दो बार की असफलता तुझे कभी हतोत्साह न कर दे । ५. (धनानि सनिता) = धनों को तू प्राप्त करनेवाला तथा उनका संविभाग करनेवाला हो ५. (तिग्मायुधः) = तीक्षण अस्त्रोंवाला तू बन । शरीर में रोगों से लड़नेवाला प्रभु-स्मरणरूप अस्त्र है तथा बुद्धि में कुविचार को दूर करनेवाला तर्करूप अस्त्र है । तेरे ये सब अस्त्र तीव्र हों। ७. (क्षिप्रधन्वा) = शत्रुओं को दूर फेंकनेवाला [ क्षिप्र], प्रणवरूप धनुष लिये हुए [ प्रणवो धनुः] । जहाँ प्रणव=ओ३म् का उच्चारण है वहाँ से शत्रु शीघ्र ही दूर प्रेरित होते हैं – भगा दिये जाते हैं । ८. (समत्सु अषाढः) = प्रणवरूप धनुष के कारण ही यह कामादि के साथ संग्राम में अधर्षणीय होता है। आ वृत्तियाँ इसका धर्षण नहीं कर पातीं। ९. यह (पृतनासु) = संग्रामों में (शत्रून्) = शत्रुओं का (साह्वान्) = मर्षण करनेवाला होता है— इन्हें यह कुचल डालता है।
यहाँ मन्त्र में ‘शूरग्राम:' = बाह्य शत्रुओं के नाश का संकेत करता है, ‘सर्ववीर: ' रोगों के नाश का । सहावान्– शीतोष्णादि के सहने का सूचक है और जेता - विजयी होने का । 'सनिता धनानि ' से धनों की प्राप्ति व संविभाग कहे जा रहे हैं । 'तिग्मायुधः' से इन्द्रिय, मन व बुद्धि की तीव्रता का उल्लेख हुआ है, ‘क्षिप्रधन्वा' से प्रणवरूप धनुष को अपनाने का । ऐसा होने पर यह व्यक्ति संग्रामों में अधर्षणीय बनता है और शत्रुओं का मर्षण कर डालता है। ऐसा करने पर जीवन पवित्र होता है और यही व्यक्ति प्रभु की ओर जाने का अधिकारी होता है।
भावार्थ
उल्लिखित नौ बातों को अपनाकर हम जीवन को पवित्र बनाएँ और प्रभु की ओर चलें ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (सोम) प्राणरूप आत्मन् ! तू (शूरग्रामः) गति में वेगवान् इन्द्रियसंघ का स्वामी, (सर्ववीरः) सबसे अधिक सामर्थ्यवान्, (सहावान्) सहनशील, गर्मी सर्दी और सुख दुःख आदि द्वन्द्वों का सहन करने हारा, (जेता) सबको पराजय करने हारा या (जेता) काम क्रोध आदि और इन्द्रिय के वेगों पर विजयशील (धनानि) समस्त रमणीय विषय भोगों को (सनिता) प्रति इन्द्रिय विभाग करने हारा (तिग्मायुधः) तीक्ष्ण साधना रूप आयुधों से सम्पन्न, (क्षिप्रधन्वा) अतिशीघ्र गति देने हारा या स्वयं सबसे अधिक वेगवान् (समत्सु) परस्पर स्पर्द्धा के स्थलों में (अषाढः) किसी से न दबने हारा (पृतनासु) प्रजारूप इन्द्रिय वृत्तियों में (साह्वान्) सबको अपने वश करने हारा होकर (आपवस्व) प्रकट हो। और हमारे शरीर और अन्तःकरण को भी पवित्र कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ गोतमो राहूगणः, वसिष्ठस्तृतीयस्याः। २, ७ वीतहव्यो भरद्वाजो वा बार्हस्पत्यः। ३ प्रजापतिः। ४, १३ सोभरिः काण्वः। ५ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ६ ऋजिष्वोर्ध्वसद्मा च क्रमेण। ८, ११ वसिष्ठः। ९ तिरश्वीः। १० सुतंभर आत्रेयः। १२, १९ नृमेघपुरुमेधौ। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १५ नोधाः। १६ मेध्यातिथिमेधातिथिर्वा कण्वः। १७ रेणुर्वैश्वामित्रः। १८ कुत्सः। २० आगस्त्यः॥ देवता—१, २, ८, १०, १३, १४ अग्निः। ३, ६, ८, ११, १५, १७, १८ पवमानः सोमः। ४, ५, ९, १२, १६, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—१, २, ७, १०, १४ गायत्री। ३, ९ अनुष्टुप्। ४, १२, १३, १६ प्रागाथं। ५ बृहती। ६ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। ८, ११, १५, १० त्रिष्टुप्। १७ जगती। १६ अनुष्टुभौ बृहती च क्रमेण। २९ बृहती अनुष्टुभौ क्रमेण॥ स्वरः—१, २, ७, १०, १४ षड्जः। ३, ९, १०, गान्धारः। ४-६, १२, १३, १६, २० मध्यमः। ८, ११, १५, १८ धैवतः। १७ निषादः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ नृपतिं जीवात्मानं चोद्बोधयति।
पदार्थः
प्रथमः—नृपतिपरः। हे सोम वीर राजन् ! (शूरग्रामः) शूरो ग्रामो योद्धृसङ्घः यस्य सः, (सर्ववीरः) सर्वे प्रजाजना वीरा यस्य सः, (सहावान्) सहनशीलः, (जेता) विजयशीलः, (धनानि) ऐश्वर्याणि (सनिता) दाता, (तिग्मायुधः) तीक्ष्णशस्त्रास्त्रः, (क्षिप्रधन्वा) आशुधनुष्कः, (समत्सु) युद्धेषु (अषादः) अनभिभूतः, (पृतनासु) रिपुसेनासु (शत्रून्) रिपून् (साह्वान्) पराजेता, त्वम्। [‘दाश्वान् साह्वान् मीढ्वाँश्च।’ अ० ६।१।१२ इति षह मर्षणे इत्येतस्य क्वसौ परस्मैपदमुपधादीर्घत्वमद्विर्वचनमनिट्त्वं च निपात्यते।] (पवस्व) विक्रमस्व। [पवते गतिकर्मा। निघं० २।१४] ॥ द्वितीयः—जीवात्मपरः। हे सोम जीवात्मन् ! (शूरग्रामः) शूरो ग्रामः प्राणसमूहो यस्य सः, (सर्ववीरः) सर्वे मनोबुद्ध्यादयो वीराः यस्य सः, (सहावान्) उत्साहवान्, (जेता) विजयशीलः, (धनानि) सद्गुणरूपाणि ऐश्वर्याणि (सनिता) संभक्ता, (तिग्मायुधः) तिग्मानि तीक्ष्णानि आयुधानि शत्रुभर्जकतेजांसि यस्य सः, (क्षिप्रधन्वा) क्षिप्रप्रणवजपरूपधनुष्कः। [प्रणवो धनुः। मु० २।२।४ इति प्रामाण्यात्।] (समत्सु) आन्तरिकेषु देवासुरसंग्रामेषु (अषाढः) अपराजितः, (पृतनासु) कामक्रोधादीनां सेनासु (शत्रून्) रिपून् (साह्वान्) पराजितवान् त्वम् (पवस्व) क्रियाशीलो भव, स्वात्मानं पुनीहि वा ॥२॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। विशेषणानां साभिप्रायत्वात् परिकरोऽपि। एतादृशविलक्षणगुणविराजितस्त्वं चेद् विक्रमं न दर्शयसि क्रियाशीलो न भवसि पवित्राचारो वा न जायसे तर्हीमे गुणा भारभूता एवेत्याशयः ॥२॥
भावार्थः
देहे मनुष्यस्यात्मा राष्ट्रे च राजा यदि शत्रून् पराजित्य योगं क्षेमं च विधत्तस्तर्हि देहस्य राष्ट्रस्य च स्वराज्यमक्षुण्णं जायते ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O soul, thou art the lord of all organs, the greatest warrior forbearing, the conqueror, the giver of riches, the master of sharpened arms, fastest of all, unvanquished in battles, the vanquisher of foemen in fights, manifest thyself!
Translator Comment
Sharpened arms means effective devices and schemes to achieve success.
Meaning
Commander of a multitude of heroes, himself brave in every way, patient and mighty, all time victor, generous giver of all wealth, honour and excellence, wielding weapons of instant light and fire power, unconquerable in contests of values and destroyer of the enemy in battles of arms, may we pray, flow and purify us. (Rg. 9-90-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (शूरग्रामः) હે સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું પ્રગતિશીલ-હર્ષ, સંતોષ અને શાન્તિગુણ સમૂહવાળો, (सर्ववीरः) સર્વનો પ્રેરક-સર્વ રીતે પ્રેરણાદાતા, (सहावान्) તર્પણ શક્તિવાળો-તૃપ્તિદાતા વા સહસ્વાન્-બળવાન, (जेता) અભિભવ કરનાર-અધિકર્તા સ્વામી, (धनानि सनिता) વિવિધ ધનોનું સંભજન કરનાર-દાન કરવાના સ્વભાવવાળો, (तिग्मायुधः) કામ આદિના સંઘર્ષમાં ઉત્સાહવર્ધક સંપ્રહાર કરવાની શક્તિ જેમાં પ્રાપ્ત થાય-એવો અથવા ઉત્સાહવર્ધક આયુને ધારણ કરાવનાર, (क्षिप्रधन्वा) શીઘ્રગતિ-શીઘ્રકારી, (समत्सु अषाढः) સંમોદન-હર્ષ પ્રાપ્ત કરવામાં અસહ્ય-અત્યંત હર્ષમય હોવાથી પૂર્ણ, ન સહન થવા યોગ્ય, (पृतनासु शत्रून् साह्वान्) ઉપાસક મનુષ્યોની અંદર રહેલાં પાપોને દબાવી દેનાર (पवस्व) અમને આનંદધારામાં પ્રાપ્ત થાય.
मराठी (1)
भावार्थ
देहात माणसाचा आत्मा व राष्ट्रात राजा जर शत्रूंना पराजित करून योगक्षेम चालवीत असतील तर देह व राष्ट्राचे स्वराज्य अक्षुण्ण राहते. ॥२॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal