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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1414
    ऋषिः - सौभरि: काण्व: देवता - अग्निः छन्दः - काकुभः प्रगाथः (विषमा ककुबुष्णिक्, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    2

    अ꣣पां꣡ नपा꣢꣯तꣳ सु꣣भ꣡ग꣢ꣳ सु꣣दी꣡दि꣢तिम꣣ग्नि꣢मु꣣ श्रे꣡ष्ठ꣢शोचिषम् । स꣡ नो꣢ मि꣣त्र꣢स्य꣣ व꣡रु꣢णस्य꣣ सो꣢ अ꣣पा꣢꣫मा सु꣣म्नं꣡ य꣢क्षते दि꣣वि꣢ ॥१४१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣पा꣢म् । न꣡पा꣢꣯तम् । सु꣣भ꣡ग꣢म् । सु꣣ । भ꣡ग꣢꣯म् । सु꣣दी꣡दि꣢तिम् । सु꣣ । दी꣡दि꣢꣯तिम् । अ꣣ग्नि꣢म् । उ꣣ । श्रे꣡ष्ठ꣢꣯शोचिषम् । श्रे꣡ष्ठ꣢꣯ । शो꣣चिषम् । सः꣢ । नः꣣ । मि꣣त्र꣡स्य꣢ । मि꣣ । त्र꣡स्य꣢꣯ । व꣡रु꣢꣯णस्य । सः । अ꣣पा꣢म् । आ । सु꣣म्न꣢म् । य꣣क्षते । दिवि꣢ ॥१४१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपां नपातꣳ सुभगꣳ सुदीदितिमग्निमु श्रेष्ठशोचिषम् । स नो मित्रस्य वरुणस्य सो अपामा सुम्नं यक्षते दिवि ॥१४१४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अपाम् । नपातम् । सुभगम् । सु । भगम् । सुदीदितिम् । सु । दीदितिम् । अग्निम् । उ । श्रेष्ठशोचिषम् । श्रेष्ठ । शोचिषम् । सः । नः । मित्रस्य । मि । त्रस्य । वरुणस्य । सः । अपाम् । आ । सुम्नम् । यक्षते । दिवि ॥१४१४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1414
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में एक साथ परमात्मा, राजा और आचार्य तीनों का विषय है।

    पदार्थ

    (अपाम्) उत्कृष्ट प्राणों वा उत्कृष्ट कर्मों को (नपातम्) अधःपतित न करनेवाले, (सुभगम्) अत्यधिक यशस्वी, (सुदीदितिम्) उत्कृष्ट तेज देनेवाले, (श्रेष्ठशोचिषम्) उत्तम तेज से युक्त (अग्निम् उ) मार्गदर्शक परमात्मा, राजा वा आचार्य को, हम (ववृमहे) वरण करते हैं। (सः) वह परमात्मा राजा वा आचार्य (मित्रस्य) सूर्य वा प्राण के, (वरुणस्य) वायु, बिजली वा अपान के (सः) वह परमात्मा राजा वा आचार्य (अपाम्) जलों के, व्याप्त लोकों के वा प्राणों के (सुम्नम्) सुख व सुखदायक ज्ञान को (नः) हमारे (दिवि) तेजोमय जीवात्मा में (आ यक्षते) प्राप्त कराये। [यहाँ ‘ववृमहे’ पद पूर्व मन्त्र से लाया गया है] ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे जगदीश्वर सबकी उन्नति करनेवाला, यशस्वी, तेजस्वी, तेज देनेवाला, सुखदाता और ज्ञानप्रदाता है, वैसे ही राजा और आचार्य को भी होना चाहिये ॥२॥ इस खण्ड में परमात्मा, राजा और आचार्य के गुणों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ बारहवें अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (अपां नपातम्) आप्तजनों११ उपासक मुमुक्षुओं को न गिराने वाले अपितु उन्नत करने वाले—(सुभगम्) शोभनैश्वर्य वाले (सुदीदितिम्) शोभन दीप्ति वाले१२ (श्रेष्ठ शोचिषम्) अति प्रशंसनीय ज्योति वाले१३ (अग्निम्-उ) अग्रणायक परमात्मा को अवश्य ‘ववृमहे’ हम वरते हैं—स्वीकार करते हैं—अपनाते हैं (सः) वह परमात्मा (नः) हमारे (मित्रस्य वरुणस्य) अध्यात्म में प्रेरित करने वाले उपदेशक के अध्यात्म शिक्षण में वरने वाले—अपनाने वाले अध्यापक के—(सः) वह (अपाम्) हम अध्यात्म विद्या प्राप्त उपासक जनों के (सुम्नम्) सुख या साधु—साधनीय लक्ष्य को (दिवि) द्योतनात्मक अमृत के धाम मोक्ष में (यक्षत) सङ्गत करता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    मित्र, वरुण और अपों का सुम्न

    पदार्थ

    पिछले मन्त्र में सोभरि ने 'यजिष्ठ, देवों में देव, होता, अमर्त्य और इस जीवन-यज्ञ के सुक्रतु' प्रभु का वरण किया था। उसी प्रसङ्ग में सोभरि कहता है कि हम उस प्रभु का (ववृहे) = वरण करते हैं, जो — १. (अपां न पातम्) = [आप:=रेतः ] शक्ति का नाश न होने देनेवाले हैं। प्रभु के स्मरण से वासना-विनाश होकर मनुष्य 'ऊर्ध्वरेतस्' बनता है । २. (सुभगम्) = उत्तम (भग) = समग्र ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान तथा वैराग्य को प्राप्त करानेवाले वे प्रभु हैं । उपासना द्वारा प्रभु का सम्पर्क हमारे जीवन को छह-के-छह भगों से युक्त कर देता है । ३. (सुदीदितिम्) = उत्तम ज्ञान की ज्योति से द्योतित करनेवाले वे प्रभु हैं ४. (अग्निम्) = ज्ञान ज्योति देकर वे हमें आगे ले चलनेवाले हैं ५. (उ) = और (श्रेष्ठशोचिषम्) = सर्वोत्कृष्ट दीप्तिवाले वे प्रभु हैं।

    (सः) = वह प्रभु (नः) = हमें (सुम्नम्) = रक्षण व आनन्द [Protection and joy] (आयक्षते) = प्राप्त कराते हैं । किसका ? १. (मित्रस्य) = प्राणशक्ति का, २. (वरुणस्य) = अपानशक्ति का तथा ३. (सः) = वे प्रभु हमें । (अपाम्) = वीर्यशक्ति के सुम्न को दिवि - ज्ञान होने पर या ज्ञान के निमित्त आयक्षते प्राप्त कराते हैं। प्राणापान के द्वारा वीर्यरक्षा होती है, वीर्यरक्षा से ज्ञान की वृद्धि होती है । एवं, प्रभुकृपा से हमें ‘प्राण, अपान, वीर्य व ज्ञान' प्राप्त होते हैं । एवं, इसी प्रभु का वरण ठीक है । प्रभु का वरण न कर जब मनुष्य प्रकृति प्रवण हो जाता है तब प्राणापान की शक्ति को क्षीण कर बैठता है, ऊर्ध्वरेतस् न बनकर भोग-विलास में व्यर्थ वीर्य का व्यय करनेवाला हो जाता है और ज्ञान को खोकर अन्याय्य मार्गों में विचरण करने लगता है, अतः प्रभु वरण ही उचित है ।

    भावार्थ

    प्रभु कृपया हमें प्राण, अपान, शक्ति व ज्ञान प्राप्त कराएँ ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    (अपां नपातं) लोकों, कर्मों और प्रजाओं के पतन, विनाश या लोप न होने देने हारे, (सुभगं) ऐश्वर्य संपन्न, (सुदीतिं) उत्तमकान्ति से युक्त (श्रेष्टशोचिषम्) सबसे श्रेष्ठ, प्रशंसनीय तेज से सम्पन्न (अग्निम्) अग्नि स्वरूप, सर्वप्रकाशक आत्मा को वरण करो क्योंकि (सः) वह जीवरूप अग्नि (मित्रस्य) समस्त जीव को स्नेह से देखने हारे और (वरुणस्य) सब दुःखों का वरण करने हारे परमेश्वर के (अपां) समस्त प्रज्ञाओं, कर्मों और समस्त लोकों के (सुम्नं) सुख को (दिवि) ज्ञान प्रकाशमान मुक्तदशा में भी (नः) हमें (यक्षते) प्राप्त कराता है। अग्नि का आत्मस्वरूप देखो नचिकेतोपाख्यान काठक उपनिषद् और मुण्डक उपनिषद् में।

    टिप्पणी

    ‘ऊर्जोनपातं’ इति ऋ०। ‘ऊर्जा नपात’ इत्येव सायणसमन्तश्च पाठः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ गोतमो राहूगणः, वसिष्ठस्तृतीयस्याः। २, ७ वीतहव्यो भरद्वाजो वा बार्हस्पत्यः। ३ प्रजापतिः। ४, १३ सोभरिः काण्वः। ५ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ६ ऋजिष्वोर्ध्वसद्मा च क्रमेण। ८, ११ वसिष्ठः। ९ तिरश्वीः। १० सुतंभर आत्रेयः। १२, १९ नृमेघपुरुमेधौ। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १५ नोधाः। १६ मेध्यातिथिमेधातिथिर्वा कण्वः। १७ रेणुर्वैश्वामित्रः। १८ कुत्सः। २० आगस्त्यः॥ देवता—१, २, ८, १०, १३, १४ अग्निः। ३, ६, ८, ११, १५, १७, १८ पवमानः सोमः। ४, ५, ९, १२, १६, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—१, २, ७, १०, १४ गायत्री। ३, ९ अनुष्टुप्। ४, १२, १३, १६ प्रागाथं। ५ बृहती। ६ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। ८, ११, १५, १० त्रिष्टुप्। १७ जगती। १६ अनुष्टुभौ बृहती च क्रमेण। २९ बृहती अनुष्टुभौ क्रमेण॥ स्वरः—१, २, ७, १०, १४ षड्जः। ३, ९, १०, गान्धारः। ४-६, १२, १३, १६, २० मध्यमः। ८, ११, १५, १८ धैवतः। १७ निषादः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ युगपत् परमात्मनृपत्याचार्याणां विषयमाह।

    पदार्थः

    (अपाम्) उत्कृष्टप्राणानाम् उत्कृष्टकर्मणां वा (नपातम्) अधो न पातयितारम्, (सुभगम्) सुयशसम्, (सुदीदितिम्) शोभनदीप्तिप्रदम्। [दीदयति ज्वलतिकर्मा। निघं० १।१६।] (श्रेष्ठशोचिषम्) उत्तमवर्चसम् (अग्निम् उ) मार्गदर्शकम् परमात्मानं नृपतिम् आचार्यं च वयं (ववृमहे) वृण्महे इति पूर्वेण सम्बन्धः। (सः) असौ परमात्मा नृपतिराचार्यो वा (मित्रस्य) सूर्यस्य, प्राणस्य वा, (वरुणस्य) वायोः विद्युतोऽपानस्य वा, (सः) असौ परमात्मा नृपतिः आचार्यो वा (अपाम्) उदकानाम्, व्याप्तानां लोकानां, प्राणानां वा (सुम्नम्) सुखम्, सुखकरं ज्ञानम् (नः) अस्माकम् (दिवि) द्योतमाने आत्मनि (आ यक्षते)आगमयेत्। [यजतेर्विध्यर्थे लेटि सिपि प्रथमैकवचने रूपम्] ॥२॥

    भावार्थः

    यथा जगदीश्वरः सर्वेषामुन्नायको यशस्वी तेजस्वी तेजःप्रदाता सुखयिता ज्ञानप्रदाता चास्ति तथैव नृपतिनाऽऽचार्येण च भाव्यम् ॥२॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मनृपत्याचार्याणां विषयवर्णनादेतस्य खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I praise the soul, that allows not the spirit of action decay, is full of glory, endowed with halo, and most excellent. It makes us realise in a state of emancipation, the joy of the achievement of God, Who is the friend of all, and the Alleviator of all sufferings.

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    Meaning

    We worship Agni, protector and promoter of water energy and men of energy, lord of grandeur and glory and the holy refulgence of nature that shines bright with the highest flames of fire and light. In the light and fire of cosmic yajna, He is the giver of joy in the light of day and the bliss of peace in the night, and He is the giver of the nectar of pleasure in the liquid run of water and the dynamics of karmic flow. (Rg. 8-19-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अपां नपातम्) આપ્તજનો ઉપાસક મુમુક્ષુઓને નીચે ન પાડનાર પરંતુ ઉન્નત કરનારા, (सुभगम्) શોભન ઐશ્વર્યવાળા, (सुदीदितिम्) સુંદર પ્રકાશમાન, (श्रेष्ठ शोचिषम्) અત્યંત પ્રશંસિત જ્યોતિવાળા, (अग्निम् उ) અગ્રણી પરમાત્માને ‘વવૃમહે’ અમે વરીએ છીએ-સ્વીકાર કરીએ છીએ-અપનાવીએ છીએ. (सः) તે પરમાત્મા (नः) અમને (मित्रस्य वरुणस्य) અધ્યાત્મમાં પ્રેરિત કરનારા, ઉપદેશકના અધ્યાત્મ શિક્ષણમાં વરવાવાળા-અપનાવવાવાળા અધ્યાપક ને (सः) તે (अपाम्) અમે અધ્યાત્મ વિદ્યા પ્રાપ્ત ઉપાસક જનોના (सुम्नम्) સુખ અથવા સાધુ-સાધનીય લક્ષ્યને (दिवि) પ્રકાશાત્મક અમૃતના ધામ મોક્ષમાં (यक्षत) સંગત કરે છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा जगदीश्वर सर्वांची उन्नती करणारा, यशस्वी, तेजस्वी, तेजप्रदाता, सुखदाता व ज्ञानप्रदाता आहे, तसेच राजा व आचार्यानेही व्हावे. ॥२॥ या खंडात परमात्मा, राजा व आचार्याच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे

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