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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1490
    ऋषिः - प्रियमेध आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    3

    आ꣡ ह꣢꣯रयः ससृज्रि꣣रे꣡ऽरु꣢षी꣣र꣡धि꣢ ब꣣र्हि꣡षि꣢ । य꣢त्रा꣣भि꣢ सं꣣न꣡वा꣢महे ॥१४९०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ꣢ । ह꣡र꣢꣯यः । स꣣सृज्रिरे । अ꣡रु꣢꣯षीः । अ꣡धि꣢꣯ । ब꣣र्हि꣡षि꣢ । य꣡त्र꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । सं꣣न꣡वा꣢महे । स꣣म् । न꣡वा꣢꣯महे ॥१४९०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ हरयः ससृज्रिरेऽरुषीरधि बर्हिषि । यत्राभि संनवामहे ॥१४९०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ । हरयः । ससृज्रिरे । अरुषीः । अधि । बर्हिषि । यत्र । अभि । संनवामहे । सम् । नवामहे ॥१४९०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1490
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में जीवात्मा के अधिष्ठान देह का वर्णन है।

    पदार्थ

    (बर्हिषि अधि) यज्ञरूप इस देह में (अरुषीः) यज्ञ को न हिंसित करनेवाले (हरयः) मन और प्राणसहित ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय रूप घोड़े (आ ससृज्रिरे) आकर जुड़े हुए हैं,(यत्र) जिस देह-यज्ञ में स्थित इन्द्र जीवात्मा को, हम (अभि संनवामहे) संस्तुत करते हैं, उद्बोधन देते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    जो लोग शरीर को यज्ञस्थल, उसमें स्थित इन्द्रियों को ऋत्विज् और जीवात्मा को यजमान मानकर पवित्र जीवन बिताते हैं, वे सफल होते हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (बर्हिषि-अधि) हृदयाकाश में१ (अरुषीः-हरयः) आरोचन२ समस्त देह में प्रकाशमान प्राण३ (आससृज्रिरे) परमात्मा की ओर से समन्तरूप से छोड़े गए हैं (यत्र-अभिसंनवामहे) जिस हृदयाकाश में हम परमात्मा की स्तुति करें—करते हैं॥२॥

    विशेष

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    विषय

    धारणा व ध्यान

    पदार्थ

    इन्द्रियाँ इस शरीररूप रथ के घोड़े हैं। ये सदा घोड़ों की भाँति इधर-उधर घूमती रहती हैं, इसी से ये (अरुषी:) = [moving about like a horse] इधर-उधर घूमनेवाली कहलाती हैं | तत्त्वज्ञान की प्राप्ति में लगने पर ये चमक उठती हैं, इसलिए भी ये 'अरुषी: ' चमकती [ bright, shining] हुई कहलाती हैं। इस स्थिति में ये आसुर आक्रमणों से विद्ध नहीं होती, अ-विद्ध-अनाहत [unhurt ] होने से भी ये ‘अरुषी' हैं। ये (अरुषीः) = सामान्यतः इधर-उधर घूमनेवाली, ज्ञान को प्राप्त करने में लगने पर चमकनेवाली और आसुर आक्रमणों से अबिद्ध (हरयः) = इन्द्रियाँ (आ) = चारों ओर से (अधिबर्हिषि) = उस हृदयान्तरिक्ष में, जिसमें से कि सब वासनाओं का उद्बर्हण कर दिया गया है, (ससृज्रिरे) = [सृज्=put on, place on, apply] रखी गयी हैं। इनका भटकना समाप्त हो गया है और इनका मन में निरोध कर दिया गया है ।

    उस मन में हम इन इन्द्रियों का निरोध करें (यत्र) = जहाँ (अभि-सं-नवामहे) = चारों ओर से [अभि] सब चित्तवृत्तियों को केन्द्रित [सम्] करके हम प्रभु का स्तवन [नू-स्तुतौ] करें । इन्द्रियों का मन में निरोध ही एक देश में बन्धरूप 'धारणा' है और चित्तवृत्तियों को एकाग्र कर प्रभु की महिमा का चिन्तन ही ‘ध्यान’ है । यही ध्यान हमें समाधि की ओर अग्रसर करेगा और हम प्रभु का साक्षात्कार करनेवाले बनेंगे।

    भावार्थ

    हम इन्द्रियों का मन में निरोध करें – मन को प्रभु चिन्तन में प्रवृत्त करें । 

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    विषय

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    भावार्थ

    (बर्हिषि) धान्य या कुशा घास या दर्भ के समान उत्पन्न होकर पुनः ज्ञानाग्नि या योग समाधि द्वारा काटने योग्य निरन्तर वृद्धिशील इस देहबन्धन में (हरयः) गतिशील (अरुषीः) रक्त वर्ण की धारायें इस भूलोक में जल धाराओं के समान (ससृज्रिरे) नदियों के समान गति कर रही हैं और उस पर (अधि) अधिकार कर रही हैं (यत्र) जिस देह में रह कर हम इन्द्रियगण तथा विद्वान्जन (अभिसंनवामहे) उस आत्मरूप इन्द्र की साक्षात् महिमा का अनुभव करते और गान करते है अर्थात् जिस देह में हम उस इन्द्र के साक्षात् अधीन रहते हैं। ईश्वर पक्ष में—बर्हिः=यह संसार, अरुषी=कान्तिमान्, हरयः=सूर्यसदृशः गतिमान् पिण्ड।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१,९ प्रियमेधः। २ नृमेधपुरुमेधौ। ३, ७ त्र्यरुणत्रसदस्यू। ४ शुनःशेप आजीगर्तिः। ५ वत्सः काण्वः। ६ अग्निस्तापसः। ८ विश्वमना वैयश्वः। १० वसिष्ठः। सोभरिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ वसूयव आत्रेयाः। १४ गोतमो राहूगणः। १५ केतुराग्नेयः। १६ विरूप आंगिरसः॥ देवता—१, २, ५, ८ इन्द्रः। ३, ७ पवमानः सोमः। ४, १०—१६ अग्निः। ६ विश्वेदेवाः। ९ समेति॥ छन्दः—१, ४, ५, १२—१६ गायत्री। २, १० प्रागाथं। ३, ७, ११ बृहती। ६ अनुष्टुप् ८ उष्णिक् ९ निचिदुष्णिक्॥ स्वरः—१, ४, ५, १२—१६ षड्जः। २, ३, ७, १०, ११ मध्यमः। ६ गान्धारः। ८, ९ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ जीवात्मनोऽधिष्ठानं देहमुपवर्णयति।

    पदार्थः

    (बर्हिषि अधि) यज्ञरूपेऽस्मिन् देहे (अरुषीः) अरुषयः यज्ञस्य अहिंसकाः। [रुषिः हिंसकः, रुष हिंसार्थः। अरुषिः अहिंसकः। अरुषयः इति प्राप्ते पूर्वसवर्णदीर्घः।] (हरयः) मनःप्राणसहिता ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपाः अश्वाः (आ ससृज्रिरे) आसक्ताः सन्ति। [ससृजिरे इति प्राप्ते ‘बहुलं छन्दसि’ अ० ७।१।८ इति रुडागमः।] (यत्र) यस्मिन् देहयज्ञे स्थितम् (इन्द्रं) जीवात्मानम्, वयम् (अभि संनवामहे) अभिसंस्तुमः, उद्बोधयामः ॥२॥

    भावार्थः

    देहं यज्ञस्थलं तत्र स्थितानीन्द्रियाणि ऋत्विजः, जीवात्मानं च यजमानं मत्वा ये पवित्रं जीवनं यापयन्ति ते सफला जायन्ते ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    In the mind are rising fast, resplendent waves of thought, wherein we bow before God.

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    Meaning

    Let the vibrations of divinity, like crimson rays of dawn which bring the sun to the earth, bring Indra onto our sacred grass where we humans meet and pray and celebrate the lord in song together. (Rg. 8-69-5)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (बर्हिषि अधि) હૃદયાકાશમાં (अरुषीः हरयः) અરોચન-સમસ્ત શરીરમાં પ્રકાશમાન પ્રાણ (आससृज्रिरे) પરમાત્માની તરફથી સમગ્રરૂપથી છોડવામાં આવેલ છે. (यत्र अभिसंनवामहे) જે હૃદયાકાશમાં અમે પરમાત્માની સ્તુતિ કરીએ-કરીએ છીએ. (૧)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक शरीराला यज्ञस्थल, त्यात स्थित इंद्रियांना ऋत्विज व जीवात्म्याला यजमान मानून पवित्र जीवन जगतात, ते सफल होतात. ॥२॥

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