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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1491
    ऋषिः - प्रियमेध आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    3

    इ꣡न्द्रा꣢य꣣ गा꣡व꣢ आ꣣शि꣡रं꣢ दुदु꣣ह्रे꣢ व꣣ज्रि꣢णे꣣ म꣡धु꣢ । य꣡त्सी꣢मुपह्व꣣रे꣢ वि꣣द꣢त् ॥१४९१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣡न्द्रा꣢꣯य । गा꣡वः꣢꣯ । आ꣣शि꣡र꣢म् । आ꣣ । शि꣡र꣢꣯म् । दु꣣दु꣢ह्रे । व꣣ज्रि꣡णे꣢ । म꣡धु꣢꣯ । यत् । सी꣣म् । उपह्वरे꣢ । उ꣣प । ह्वरे꣢ । वि꣣द꣢त् ॥१४९१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्राय गाव आशिरं दुदुह्रे वज्रिणे मधु । यत्सीमुपह्वरे विदत् ॥१४९१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्राय । गावः । आशिरम् । आ । शिरम् । दुदुह्रे । वज्रिणे । मधु । यत् । सीम् । उपह्वरे । उप । ह्वरे । विदत् ॥१४९१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1491
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह बताया गया है कि आत्मा ज्ञान कैसे प्राप्त करता है।

    पदार्थ

    (वज्रिणे) वीर्यवान् (इन्द्राय) जीवात्मा के लिए (गावः) मन और बुद्धि सहित इन्द्रियरूप धेनुएँ (मधु) मधुर (आशिरम्) ज्ञानरूप दूध को (दुदुह्रे) दुहती हैं, (यत्) जिस ज्ञान-दुग्ध को वह इन्द्र जीवात्मा (सीम्) सब ओर से (उपह्वरे) अपने समीप (विदत्) लाता है ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा ने जीवात्मा को मन, बुद्धि, इन्द्रियरूप श्रेष्ठ साधन प्रदान किये हैं, जिनसे वह सारा ज्ञान अर्जित कर सकता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (वज्रिणे-इन्द्राय) ओजस्वी४ परमात्मा के लिये (गाव) उपासक की स्तुतिवाणियाँ५ (आशिरं मधु दुदुह्रे) आश्रय लेने वाले६ उपासक अपने आत्मा को७ समर्पित करता है (यत् सीम्-उपह्ररे विदत्) जो परमात्मा अपने आश्रय में८ प्राप्त करता है—ले लेता है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    समाधि में साक्षात्कार

    पदार्थ

    (इन्द्राय) = इन्द्रियों का मन में निरोध करके जितेन्द्रिय बननेवाले (वज्रिणे) = [वज गतौ] क्रियाशीलतारूप वज्र को हाथ में लिये हुए ‘प्रियमेध' के लिए (गावः) = सब वेदवाणियाँ व इन्द्रियाँ (आशिरम्) = [आशृ] = सब ओर से मलों को भस्म कर देनेवाले (मधु) = सारभूत ज्ञान का, मधुविद्या का, ब्रह्मविद्या का (दुदुहे) = दोहन करती हैं ।

    मधुविद्या को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि हम जितेन्द्रिय बनें । जितेन्द्रिय बनने के लिए आवश्यक है कि क्रियाशीलतारूप वज्र को हम हाथ में लिये हुए हों । ऐसा करने पर ये पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ [गाव:] वेदवाणियों [गाव:] के अध्ययन व अधिगमन से हमें मुधुविद्या को – सारभूत तत्त्वज्ञान को प्राप्त कराएँगी ।

    (यत्) = इसका परिणाम यह होगा कि (सीम्) = निश्चय से (उपह्वरे) = अपने हृदय के एकान्त स्थान [A solitary place, Proximity] में, अपने समीप ही यह प्रियमेध (विदत्) = उस प्रभु को पा लेगा [विद्-लाभे] । यहीं प्रियमेध प्रभु का साक्षात्कार कर रहा होगा । ये प्रभु तो हृदयरूप गुफ़ा के अन्दर विचरनेवाले होने से ‘गुहाचरन्' नामवाले हैं। प्रियमेध अपनी सब इन्द्रिय -वृत्तियों को इसी हृदय में केन्द्रित करता है और प्रभु को अपने समीप ही पाता है । 

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    विषय

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    भावार्थ

    (गावः) ये सब गतिमान् रक्तधारायें तथा इन्द्रियगण (इन्द्राय) इस इन्द्ररूप आत्मा के लिये (आशिरम्) उसके जीवन के आश्रयरूप (मधु) हर्ष कर उस शुक्र या ज्ञान को (दुदुह्रे) उत्पन्न करती हैं, (यत्) जिसको वह इन्द्र (उपह्वरे) भीतरी हृदय कोश में (सीम्) सब ओर से (विदत्) प्राप्त करता है। ईश्वर पक्ष में—ये गतिमान् तेजस्वी पिण्ड (आशिरं) समस्त ब्रह्माण्ड के आश्रयरूप (मधु) शक्ति को उत्पन्न करते हैं जिसको वह इस ब्रह्माण्ड में धारण किये हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१,९ प्रियमेधः। २ नृमेधपुरुमेधौ। ३, ७ त्र्यरुणत्रसदस्यू। ४ शुनःशेप आजीगर्तिः। ५ वत्सः काण्वः। ६ अग्निस्तापसः। ८ विश्वमना वैयश्वः। १० वसिष्ठः। सोभरिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ वसूयव आत्रेयाः। १४ गोतमो राहूगणः। १५ केतुराग्नेयः। १६ विरूप आंगिरसः॥ देवता—१, २, ५, ८ इन्द्रः। ३, ७ पवमानः सोमः। ४, १०—१६ अग्निः। ६ विश्वेदेवाः। ९ समेति॥ छन्दः—१, ४, ५, १२—१६ गायत्री। २, १० प्रागाथं। ३, ७, ११ बृहती। ६ अनुष्टुप् ८ उष्णिक् ९ निचिदुष्णिक्॥ स्वरः—१, ४, ५, १२—१६ षड्जः। २, ३, ७, १०, ११ मध्यमः। ६ गान्धारः। ८, ९ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथात्मा ज्ञानं कथं लभत इत्याह।

    पदार्थः

    (वज्रिणे) वीर्यवते। [वीर्यं वै वज्रः। श० ७।३।१।१९।] (इन्द्राय) जीवात्मने (गावः) मनोबुद्धिसहिता इन्द्रियरूपा धेनवः (मधु) मधुरम् (आशिरम्) ज्ञानरूपं दुग्धम् (दुदुह्रे) दुहन्ति। [इरयो रे। अ० ६।४।७६ इति इरे इत्यस्य रे आदेशः।] (यत्) ज्ञानदुग्धम् स इन्द्रो जीवात्मा (सीम्) सर्वतः (उपह्वरे) अन्तिके। [‘रहोऽन्तिकमुपह्वरे’ इत्यमरः ३।३।१८३।] (विदत्) प्राप्नोति ॥३॥

    भावार्थः

    परमात्मना जीवात्मने मनोबुद्धीन्द्रियरूपाणि सत्साधनानि प्रदत्तानि यैः स निखिलं ज्ञानमर्जयितुं शक्नोति ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The energetic rays of knowledge create supreme felicity for the dynamic soul, which it cherishes internally.

    Translator Comment

    Which refers to felicity.

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    Meaning

    Lands and cows, suns and planets, indeed all objects in motion, exude for Indra, wielder of thunder, the ichor of emotional adoration seasoned with ecstasy like honey sweet milk mixed with soma which he receives close at hand and cherishes. (Rg. 8-69-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वज्रिणे इन्द्राय) ઓજસ્વી પરમાત્માને માટે (गाव) ઉપાસકની સ્તુતિ વાણીઓ (आशिरं मधु दुदुह्रे) આશ્રય લેનાર ઉપાસક પોતાના આત્માને સમર્પિત કરે છે. (यत् सीम् उपह्वरे विदत्) જે પરમાત્મા પોતાના આશ્રયમાં પ્રાપ્ત કરે છે-લઈ લે છે. (૩)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याने जीवात्म्याला मन, बुद्धी, इंद्रियरूपी श्रेष्ठ साधन प्रदान केलेले आहेत, ज्या द्वारे तो संपूर्ण ज्ञान अर्जित करू शकतो. ॥३॥

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