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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1493
ऋषिः - नृमेधपुरुमेधावाङ्गिरसौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
3
त्वं꣢ दा꣣ता꣡ प्र꣢थ꣣मो꣡ राध꣢꣯साम꣣स्य꣡सि꣢ स꣣त्य꣡ ई꣢शान꣣कृ꣢त् । तु꣣विद्युम्न꣢स्य꣣ यु꣡ज्या वृ꣢꣯णीमहे पु꣣त्र꣢स्य꣣ श꣡व꣢सो म꣣हः꣢ ॥१४९३॥
स्वर सहित पद पाठत्व꣢म् । दा꣣ता꣢ । प्र꣣थमः꣢ । रा꣡ध꣢꣯साम् । अ꣣सि । अ꣡सि꣢꣯ । स꣣त्यः꣢ । ई꣣शानकृ꣢त् । ई꣣शान । कृ꣣त् । तु꣣विद्युम्न꣡स्य꣢ । तु꣣वि । द्यु꣡म्नस्य꣢ । यु꣡ज्या꣢꣯ । आ । वृ꣣णीमहे । पुत्र꣡स्य꣢ । पु꣣त् । त्र꣡स्य꣢꣯ । श꣡व꣢꣯सः । म꣣हः꣢ ॥१४९३॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं दाता प्रथमो राधसामस्यसि सत्य ईशानकृत् । तुविद्युम्नस्य युज्या वृणीमहे पुत्रस्य शवसो महः ॥१४९३॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । दाता । प्रथमः । राधसाम् । असि । असि । सत्यः । ईशानकृत् । ईशान । कृत् । तुविद्युम्नस्य । तुवि । द्युम्नस्य । युज्या । आ । वृणीमहे । पुत्रस्य । पुत् । त्रस्य । शवसः । महः ॥१४९३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1493
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में फिर परमात्मा और राजा का वर्णन है।
पदार्थ
हे इन्द्र अर्थात् परमैश्वर्यवान् जगदीश्वर वा राजन् ! (त्वम्) आप (राधसाम्) ऐश्वर्यों के (प्रथमः) श्रेष्ठ (दाता) दाता, (सत्यः) सत्य के प्रेमी और (ईशानकृत्) निर्धनों को भी धन के स्वामी बना देनेवाले (असि) हो। (तुविद्युम्नस्य) बहुत धनी वा यशस्वी, (शवसः पुत्रस्य) बल के पुत्र अर्थात् अति बली, (महः) महान् आपके (युज्या) मित्रभाव को, सहयोग को (वृणीमहे) हम वरते हैं ॥२॥
भावार्थ
परमदानी, अतिशक्तिशाली परमात्मा और राजा की मैत्री को स्वीकार करके निर्धन भी धनवान्, कुछ करने में असमर्थ भी बहुत कार्य कर सकनेवाले, सेवक भी स्वामी और निन्दित भी यशस्वी हो जाते हैं ॥२॥
पदार्थ
(त्वम्) हे इन्द्र—ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! तू (राधसः प्रथमः-दाता-असि) धनैश्वर्य का प्रमुख दाता—दानी है (सत्यः-ईशानकृत-असि) सच्चा समर्थ—सम्पन्न बनाने वाला है (तुविद्युम्नस्य) बहुत यशोरूप९—(महः-शवसः पुत्रस्य) महान् बल के पुत्र, अर्थात् अत्यन्त बलवान् या नरक से त्राण करने वाले१० के (युज्या-आवृणीमहे) योगों—सम्बन्धों को समन्तरूप से वरते हैं—चाहते हैं॥२॥
विशेष
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विषय
प्रभु का ही वरण करें
पदार्थ
हे प्रभो! (त्वम्) = आप (राधसाम्) = सफलताओं के तथा सफलताओं के साधनभूत ऐश्वर्यों के (प्रथमः दाता) = मुख्य दाता (असि) = हैं । (सत्यः असि) = आप ही पूर्ण सत्य [Absolute Truth] हैं। (ईशानकृत्) = आप अपने भक्तों को भी ईशान=इन्द्रियों व मन का स्वामी बनानेवाले हैं। प्रभु का भक्त अपने कार्यों में अवश्य सफल होता है, उसका जीवन सत्य से परिपूर्ण होता है । वह अपने जीवन में इन्द्रियों व मन का दास बनकर नहीं चलता, अपितु वह इनका ईशान होता है ।
इसलिए हे प्रभो ! हम आपके (युज्या) = मेल को ‘सायुज्य को' सङ्ग को (आवृणीमहे) = सब प्रकार से वरते हैं – सब प्रकार के प्रलोभनों को परे फेंककर हम आपका ही स्वीकार करते हैं। न सन्तान का, न सम्पत्ति का और न ही सम्भोगों का आकर्षण हमें आपसे दूर कर पाता है। हम तो आपकी ही कामना करते हैं, जो आप -
१. (तुविद्युम्नस्य) = [क] महान् ज्योतिवाले [Lustre] हैं, [ख] महान् शक्तिवाले [Power] हैं, [ग] अनन्त सम्पत्तिवाले [Wealth] हैं, [घ] महान् प्रेरणा देनेवाले [Inspiration] हैं, [ङ] सबसे बड़े होता [Sacrificer] हैं।
२. (शवसः पुत्रस्य) = जो आप बल के पुतले – शक्ति के पुञ्ज – सर्वशक्तिमान् हैं। ३. (महः) = जो आप महान् हैं, अतएव पूजनीय हैं। जिन आपकी दृष्टि में सभी के लिए अनुकम्पाही-अनुकम्पा है, जिन आपसे, आपकी सत्ता से इन्कार करनेवाला नास्तिक भी भोजन पाता ही हैप्रभु का सङ्ग हमें भी तुविद्युम्न-महान् ज्योतिवाला, शवसः पुत्र — शक्ति का पुञ्ज तथा महमहान् — विशाल हृदयवाला बनाएगा। हम सफलता प्राप्त करेंगे, सत्य के ईशान बनेंगे ।
भावार्थ
हम सब-कुछ छोड़कर प्रभु का ही वरण करनेवाले हों ।
विषय
missing
भावार्थ
हे परमेश्वर ! (त्वं) आप (एधसां) समस्त पदार्थों और ज्ञानों के (प्रथमः) सबसे पहले (दाता) देने हारे (असि) हो और (सत्यः) सत्यस्वरूप सच्चे, (ईशानकृत्) सामर्थ्य और प्रभुत्व के देने हारे हो। (शवसः) बलस्वरूप (पुत्रस्य) पुरुषों की विघ्नों से रक्षा करने हारे (महः) महान् (तुविद्युग्नस्य) बहुत धनैश्वर्यसम्पन्न आपके (युज्या) सत्संगति को समाधि द्वारा हम (आवृणीमहे) प्राप्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१,९ प्रियमेधः। २ नृमेधपुरुमेधौ। ३, ७ त्र्यरुणत्रसदस्यू। ४ शुनःशेप आजीगर्तिः। ५ वत्सः काण्वः। ६ अग्निस्तापसः। ८ विश्वमना वैयश्वः। १० वसिष्ठः। सोभरिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ वसूयव आत्रेयाः। १४ गोतमो राहूगणः। १५ केतुराग्नेयः। १६ विरूप आंगिरसः॥ देवता—१, २, ५, ८ इन्द्रः। ३, ७ पवमानः सोमः। ४, १०—१६ अग्निः। ६ विश्वेदेवाः। ९ समेति॥ छन्दः—१, ४, ५, १२—१६ गायत्री। २, १० प्रागाथं। ३, ७, ११ बृहती। ६ अनुष्टुप् ८ उष्णिक् ९ निचिदुष्णिक्॥ स्वरः—१, ४, ५, १२—१६ षड्जः। २, ३, ७, १०, ११ मध्यमः। ६ गान्धारः। ८, ९ ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनः परमात्मा नृपतिश्च वर्ण्यते।
पदार्थः
हे इन्द्र परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर राजन् वा ! (त्वम् राधसाम्) ऐश्वर्याणाम् (प्रथमः) श्रेष्ठः (दाता) प्रदाता, (सत्यः) सत्यप्रियः, (ईशानकृत्) दुर्गतानपि ईशानान् अधीश्वरान् करोतीति तथाविधः (असि) वर्तसे। (तुविद्युम्नस्य) बहुधनस्य बहुकीर्तेर्वा, (शवसः पुत्रस्य) बलस्य सूनोः, अतिशयेन बलवतः इत्यर्थः, (महः) महतः तव (युज्या) युज्यं सख्यम्। [अत्र ‘सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९’ इत्यनेन द्वितीयैकवचनस्य आकारादेशः।] (आ वृणीमहे) सम्भजामहे ॥२॥
भावार्थः
परमदातुरतिशयशक्तिशालिनः परमात्मनो नृपतेश्च सख्यं वृत्वा निर्धना अपि धनवन्तोऽकिञ्चित्करा अपि बहुकर्मक्षमाः सेवका अपि स्वामिनो निन्दिता अपि यशस्विनो जायन्ते ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, Thou art the Primordial Bestower of all riches and knowledge. Thou art the Giver of true strength and supremacy. May we claim through Samadhi, the alliance of God, Almighty, the Guardian of the people against calamities, the Supreme, and the Lord of wealth !
Meaning
You are the original giver of means of effort and success in all fields of life. You are the maker of leaders and giver of the wealth and honours of life. Of such great lord of glory and power, promoter and protector of strength and power, we pray for wealth, honour and excellence worthy of your glory. (Rg. 8-90-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (त्वम्) હે ઇન્દ્ર ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! તું (राधसः प्रथमः दाता असि) ધન ઐશ્વર્યનો મુખ્ય દાતા - દાની છે , (सत्यः ईशानकृत असि) સત્ય સમર્થ - સંપન્ન બનાવનાર છે , (तु विद्युम्नस्य) બહુજ યશોરૂપ , (महः शवस्यः पुत्रस्य) મહાન બળના પુત્ર અર્થાત્ અત્યંત બળવાન અથવા નરકથી ત્રાણ-રક્ષા કરનારના (युज्या आवृणीमहे) યોગો-સંબંધોને સમગ્રરૂપે વરણ કરે છે-ચાહે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
अत्यंत दानी, अनंत शक्तिमान परमात्मा व राजाची मैत्री स्वीकार करून निर्धनही धनवान, असमर्थ माणसेही कार्यकुशल व सेवक ही स्वामी व निंदितही यशस्वी होतात. ॥२॥
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