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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1492
ऋषिः - नृमेधपुरुमेधावाङ्गिरसौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
4
आ꣢ नो꣣ वि꣡श्वा꣢सु꣣ ह꣢व्य꣣मि꣡न्द्र꣢ꣳ स꣣म꣡त्सु꣢ भूषत । उ꣢प꣣ ब्र꣡ह्मा꣢णि꣣ स꣡व꣢नानि वृत्रहन्परम꣣ज्या꣡ ऋ꣢चीषम ॥१४९२॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । नः꣣ । वि꣡श्वा꣢꣯सु । ह꣡व्य꣢꣯म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । स꣣म꣡त्सु꣢ । स꣣ । म꣡त्सु꣢꣯ । भू꣣षत । उ꣡प꣢꣯ । ब्र꣡ह्मा꣢꣯णि । स꣡व꣢꣯नानि । वृ꣣त्रहन् । वृत्र । हन् । परमज्याः꣢ । प꣣रम । ज्याः꣢ । ऋ꣣चीषम ॥१४९२॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो विश्वासु हव्यमिन्द्रꣳ समत्सु भूषत । उप ब्रह्माणि सवनानि वृत्रहन्परमज्या ऋचीषम ॥१४९२॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । नः । विश्वासु । हव्यम् । इन्द्रम् । समत्सु । स । मत्सु । भूषत । उप । ब्रह्माणि । सवनानि । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । परमज्याः । परम । ज्याः । ऋचीषम ॥१४९२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1492
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में २६९ क्रमाङ्क पर परमेश्वर के विषय में की गयी थी। यहाँ विघ्न दूर करने के लिए परमात्मा और राजा से प्रार्थना करते हैं।
पदार्थ
हे राष्ट्रवासी जनो ! तुम (विश्वासु समत्सु) सब देवासुरसंग्रामों में (नः) हम प्रजाजनों के (हव्यम्) आह्वान करने योग्य (इन्द्रम्) परमात्मा वा राजा को (आभूषत) स्वागत-गानों से अलङ्कृत करो। हे (वृत्रहन्) विघ्न-विदारक, पाप-दल के विध्वंसक, (ऋचीषम) स्तोताओं को मान देनेवाले परमात्मन् वा राजन् ! (परमज्याः) प्रबल आन्तरिक तथा बाह्य शत्रुओं को विनष्ट करनेवाले आप, हमारे (ब्रह्माणि) ब्रह्मयज्ञों में, तथा (सवनानि) सोमयाग के प्रातः-सवन, माध्यन्दिन-सवन और सायं-सवनों में (उप) आओ ॥१॥
भावार्थ
जैसे जगदीश्वर नास्तिक पापियों को दण्ड देकर और धर्मात्मा आस्तिक लोगों से मित्रता करके धार्मिकता का पोषण करता है, वैसे ही राजा भी करे ॥१॥
टिप्पणी
(देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या २६९)
विशेष
ऋषिः—नृमेधः पुरुमेधश्च (नायक बुद्धि वाला और बहुत बुद्धि वाला)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>
विषय
सामूहिक स्तवन [ Congregational Prayers ]
पदार्थ
२६१ संख्या पर मन्त्रार्थ इस रूप में है -
‘नृमेध और पुरुमेध' प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि हैं [मेध-सङ्गम] – - जो सब मनुष्यों के साथ मिलकर चलते हैं और जिनका मेल [पृ-पालनपूरणयोः] पालन व पूरण करनेवाला है। ये कहते हैं कि (न:) = हमारी (विश्वासु समत्सु) = सब सभाओं में (हव्यं इन्द्रम्) = उस पुकारने योग्य प्रभु को (आभूषत) = सब प्रकार से अलंकृत करो, जो (उप) = सदा हमारे समीप हैं। ऐसा करने से (ब्रह्माणि) = हमारे जीवन में स्तोत्र होंगे, (सवनानि) = यज्ञ होंगे ।
वे प्रभु (वृत्रहन्) = वृत्रों को समाप्त करनेवाले हैं, (परमज्या) = एक प्रबल शक्ति हैं, (ऋचीषम) = स्तुति के समान गुणोंवाले हैं - उन उन गुणों को हमें भी प्राप्त करानेवाले हैं।
भावार्थ
हम एकत्र होने पर सदा प्रभु-स्तवन करें, जिससे हमारा जीवन ज्ञानमय व यज्ञमय हो ।
विषय
missing
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! (नः) हमारे (हव्यं) स्मरण करने स्तुति करने, और पुकारने, आश्रय करने योग्य (इन्द्रम्) उस परमेश्वर को (विश्वासु समत्सु) समस्त आनन्द और उत्सवों में तथा परस्पर मेल मिलाप करने के अवसरों पर (आभूषत) नाना वचनालंकारों से सुभूषित करो। हे (वृत्रहन्) विघ्नों के निवारक ! हे (परम) सबसे उत्कृष्ट विजयशील, हे (ऋचीषम) ऋचाओं द्वारा मनन करने योग्य परमात्मन् ! आप (नः) हमारे (सवनानि) यज्ञों और (ब्रह्माणि) वेद स्वाध्यायों एवं व्रतादि के अवसरों पर (उप) सदा समीप हृदय देश में विराजें। देखो अवि० सं० [२६९] पृ० १३७।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१,९ प्रियमेधः। २ नृमेधपुरुमेधौ। ३, ७ त्र्यरुणत्रसदस्यू। ४ शुनःशेप आजीगर्तिः। ५ वत्सः काण्वः। ६ अग्निस्तापसः। ८ विश्वमना वैयश्वः। १० वसिष्ठः। सोभरिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ वसूयव आत्रेयाः। १४ गोतमो राहूगणः। १५ केतुराग्नेयः। १६ विरूप आंगिरसः॥ देवता—१, २, ५, ८ इन्द्रः। ३, ७ पवमानः सोमः। ४, १०—१६ अग्निः। ६ विश्वेदेवाः। ९ समेति॥ छन्दः—१, ४, ५, १२—१६ गायत्री। २, १० प्रागाथं। ३, ७, ११ बृहती। ६ अनुष्टुप् ८ उष्णिक् ९ निचिदुष्णिक्॥ स्वरः—१, ४, ५, १२—१६ षड्जः। २, ३, ७, १०, ११ मध्यमः। ६ गान्धारः। ८, ९ ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २६९ क्रमाङ्के परमेश्वरविषये व्याख्याता। अत्र विघ्ननिवारणाय परमात्मा नृपतिश्च प्रार्थ्यते।
पदार्थः
हे राष्ट्रवासिनो जनाः ! यूयम् (विश्वासु समत्सु) सर्वेषु देवासुरसंग्रामेषु (नः) प्रजाजनानाम् अस्माकम् (हव्यम्) आह्वातुं योग्यम् (इन्द्रम्) परमात्मानं नृपतिं वा (आभूषत) स्वागतगानैः अलङ्कुरुत। हे (वृत्रहन्) विघ्नविदारक पापदलविध्वंसक (ऋचीषम२) स्तोतॄणां मानप्रद परमात्मन् राजन् वा ! [ऋचन्ति स्तुवन्तीति ऋचीषाः तान् मानयतीति ऋचीषमः। ऋच् स्तुतौ, बाहुलकादौणादिक ईषन् प्रत्ययः।] (परमज्याः) परमान् प्रबलान् आन्तरान् बाह्यांश्च शत्रून् जिनाति हिनस्तीति तथाविधः त्वम् अस्माकम् (ब्रह्माणि) ब्रह्मयज्ञान् (सवनानि) सोमयागस्य प्रातर्माध्यन्दिनसायंसवनानि च (उप) उपागच्छ ॥१॥
भावार्थः
यथा जगदीश्वरो नास्तिकान् पापान् दण्डयित्वा धर्मात्मभिरास्तिकैश्च सख्यं विधाय धार्मिकतां पुष्णाति तथैव नृपतिरपि कुर्यात् ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O learned persons, on all occasions of joy, adorn God, Worthy of our praise. O Remover of obstacles, Greatest Conqueror, Worthy of reflection through Vedic hymns, remain near us on occasions of our sacrifices and Vedic studies!
Translator Comment
See verse 269.
Meaning
O yajakas, adore and glorify Indra, lord of universal energy, world power and human forces, worthy of reverence and invocation in all our joint battles of life. May the lord of strongest bow, destroyer of evil and dispeller of darkness and ignorance, great and glorious as sung in the Rks, grace our songs of adoration and faithful efforts with the beauty and glory of success. (Rg. 8-90-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (विश्वासु समत्सु) સમસ્ત પ્રતિદ્વંદ્વી પ્રવૃત્તિઓમાં દૈવ વૃત્તિઓ અને આસુરી વૃત્તિઓના સંઘર્ષોમાં (हव्यम् इन्द्रम्) આમંત્રણીય પરમાત્માને (आः भूषत) આભૂષિત કરો , પુજિત કરો યતઃ (ऋचीषम) સ્તુતિને અનુરૂપ ફળપ્રદ (परमज्याः) વિરોધીઓ પર અલૌકિક જય સાધનવાળા (वृत्रहन्) સર્વત્ર પાપનાશક (नः) અમારા (ब्रह्माणि सवनानि) મન , બુદ્ધિ , ચિત્ત , અહંકાર ઉપાસનારસ ઉત્પાદન સ્થાનોને (उप उपभूषत) ઉપભૂષિત કર પોતાના આનંદ સ્વરૂપથી વાસિત કર. (૭)
भावार्थ
ભાવાર્થ : ઉપાસકો ! સંપૂર્ણ વિરોધી પ્રવૃત્તિઓના પ્રસંગોમાં આમંત્રણીય પરમાત્માને આહૂત કરો , સ્મરણ કરો , જેથી તે તેના પર પરમ જય સાધનવાળો , પાપનાશક , સ્તુતિને અનુરૂપ ફળપ્રદ પરમાત્મા. અમારા મનો-મન , બુદ્ધિ , ચિત્ત , અહંકાર એ ઉપાસનારસના ઉત્પન્ન સ્થાનોને ઉપભોષિત - અલંકૃત કરે , પોતાના આનંદ સ્વરૂપથી વાસિત કરી દે. (૭)
मराठी (1)
भावार्थ
जसा जगदीश्वर नास्तिक पापी लोकांना दंड देऊन व धर्मात्मा आस्तिक लोकांशी मैत्री करून धार्मिकतेचे पोषण करतो, तसेच राजानेही करावे. ॥१॥
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