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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 150
    ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    3

    उ꣡प꣢ नो꣣ ह꣡रि꣢भिः सु꣣तं꣢ या꣣हि꣡ म꣢दानां पते । उ꣡प꣢ नो꣣ ह꣡रि꣢भिः सु꣣त꣢म् ॥१५०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ꣡प꣢꣯ । नः꣣ । ह꣡रि꣢꣯भिः । सु꣣त꣢म् । या꣣हि꣢ । म꣣दानाम् । पते । उ꣡प꣢꣯ । नः꣣ । ह꣡रि꣢꣯भिः । सु꣣त꣢म् ॥१५०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप नो हरिभिः सुतं याहि मदानां पते । उप नो हरिभिः सुतम् ॥१५०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उप । नः । हरिभिः । सुतम् । याहि । मदानाम् । पते । उप । नः । हरिभिः । सुतम् ॥१५०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 150
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में उपासक परमात्मा को और बालक के माता-पिता आचार्य को कहते हैं।

    पदार्थ

    प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (मदानां पते) आनन्दों के अधिपति परमात्मन् ! आप (नः) हमारे (हरिभिः) ज्ञान को आहरण करनेवाली ज्ञानेन्द्रियों से (सुतम्) उत्पन्न किये ज्ञान को (उप याहि) प्राप्त हों। (नः) हमारे (हरिभिः) कर्म को आहरण करनेवाली कर्मेन्द्रियों से (सुतम्) उत्पादित कर्म को (उप याहि) प्राप्त हों ॥ द्वितीय—आचार्य के पक्ष में। हे (मदानां पते) हर्षप्रदायक ज्ञानों के अधिपति, विविध विद्याओं में विशारद आचार्यप्रवर ! आप (हरिभिः) ज्ञान का आहरण करानेवाले अन्य गुरुजनों के साथ (नः) हमारे (सुतम्) गुरुकुल में प्रविष्ट पुत्र के (उप याहि) पास पहुँचिए। (हरिभिः) दोषों को हरनेवाले अन्य गुरुओं के साथ (नः) हमारे (सुतम्) गुरुकुल में प्रविष्ट पुत्र के (उप याहि) पास पहुँचिए ॥५॥ इस मन्त्र श्लेषालङ्कार है, ‘उप नः हरिभिः सुतम्’ की आवृत्ति में पादावृत्ति यमक है ॥६॥

    भावार्थ

    उपासक लोग परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि हमारे प्रत्येक ज्ञान और प्रत्येक कर्म में यदि आप व्याप्त हो जाते हैं, तभी हमारा जीवन-यज्ञ सफ़ल होगा। और अपने पुत्र को गुरुकुल में प्रविष्ट कर माता-पिता कुलपति से प्रार्थना करते हैं कि आप विद्याओं को पढ़ाने और चरित्र-निर्माण के लिए अन्य गुरुजनों सहित कृपा करके प्रतिदिन हमारे पुत्र के साथ सान्निध्य करते रहना ॥६॥

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    पदार्थ

    (मदानां पते) हे समस्त हर्षों और आनन्दों के स्वामिन्! तू (नः सुतम्) हमारे निष्पादित हावभावपूर्ण उपासनारस एवं भक्तिभाव को (हरिभिः-उप-याहि) दुःखापहरण करने वाले एवं सुखाहरण करने वाले गुणों से प्राप्त हो (नः सुतं हरिभिः-उप) हमारे निष्पादित भक्तिभाव को दुःखापहरण करने वाले सुखाहरण करने वाले गुणों से प्राप्त हो।

    भावार्थ

    हर्ष सुखों के स्वामिन् परमात्मन्! तू हमारे द्वारा निष्पादित उपासनारस को दुःखापहरण करने वाले सुखाहरण करने वाले गुणों से हमें प्राप्त होता है अतः हम प्रार्थना करते हैं कि आप हमारे उपासना रस को हमारे कल्याणार्थ सेवन कीजिए॥६॥

    विशेष

    ऋषिः—श्रुतकक्षः सुकक्षो वा (अध्यात्मकक्ष जिसने सुन लिया या शोभन अध्यात्मकक्ष जिसका चल रहा है ऐसा जन)॥<br>

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    विषय

    यज्ञमय जीवन का प्रारम्भ

    पदार्थ

    (नाना मद) = इस संसार में मानव को कितने ही मद- हर्ष प्राप्त हैं । १. मनुष्य का शरीर स्वस्थ हो, तो उसे जो हर्ष प्राप्त होता है, उसे 'तन्दुरुस्ती हज़ार नियामत है' इस लोकोक्ति में प्रतिक्षिप्त हुआ देख सकते हैं। २. कोई इन्द्रिय किसी भी विषयपङद्म से लिप्त न हो तो उस समय इस निर्मल इन्द्रियवाले पुरुष के चेहरे पर विद्यमान सतत स्मित उसके हर्ष की सूचना देती है। ३. सत्य से पवित्र हुए हुए मन में एक विशेष प्रकार का ही उल्लास होता है। ४. ज्ञान की वृद्धि के साथ दीप्त होता हुआ विज्ञानमयकोश एक अद्भुत आनन्द का कारण बनता है। ५. जिस समय हम अज्ञानियों से किये जा रहे अपमानों से क्षुब्ध नहीं होते, उस समय वह सहनशक्ति का बल हमें आनन्द की सीमा पर पहुँचा देता है । ६. इन सब आन्तरिक आनन्दों के साथ बाह्य धन व सम्पत्ति का भी आनन्द है जो मनुष्य को घृतलवण-तण्डुलेन्धन की चिन्ता से मुक्त-सा किये रखता है।

    (मदों के पति) = इन सब हर्षों के स्वामी प्रभु हैं। उन्हें सम्बोधित करते हैं कि (मदानां पते) = हे मदों के स्वामिन्! आपकी कृपा से ही हम इस जीवन में इन हर्षों को प्राप्त कर पाते हैं। हम इन मदों को प्राप्त कर सकें, अतः (हरिभिः) = इन इन्द्रियरूप घोड़ों के उद्देश्य से आप (नः) = हमें (सुतम्) = शक्ति [सोम सुत] (उपयाहि) = प्राप्त कराइए । भोजन से उत्पन्न वीर्यशक्ति का अपव्यय हम क्षणिक आनन्द के लिए न कर डालें। वीर्य का पान शरीर में होगा तो वह वीर्य अङ्ग-प्रत्यङ्ग को शक्तिशाली बनाएगा। =

    यज्ञों में इस प्रकार जब हमारी इन्द्रियाँ इस सोमपान के द्वारा शक्तिशाली बनें तो हे प्रभो! आप नः=हमें हरिभिः = इन्द्रियों के द्वारा सुतम् यज्ञ को उपयाहि = = प्राप्त कराइए । शक्तिशाली बनी हुई हमारी इन्द्रियाँ यज्ञों में प्रवृत्त हों।

    वस्तुतः मनुष्य का जीवन हर्ष से ओत-प्रोत तभी हो सकता है जबकि १. उसकी इन्द्रियाँ शक्तिशाली हों और २. शक्तिसम्पन्न इन्द्रियाँ यज्ञों में प्रवृत्त हो जोएँ ।

    ऐसा वही व्यक्ति हो सकता है जो 'श्रुतकक्ष' - ज्ञान को अपनी शरण बनाता है। इस ज्ञानरूप कवच को धारण करनेवाला 'सु - कक्ष' = उत्तम रक्षण स्थानवाला है। इस प्रकार इसकी इन्द्रियाँ आसुर भावनाओं से अनाक्रान्त रहकर इसे 'आङ्गिरस'= शक्तिसम्पन्न अङ्गोंवाला बनाती हैं। यही श्रुतकक्ष - सुकक्ष- आङ्गिरस इस मन्त्र का ऋषि है।

    भावार्थ

    हम अपनी इन्द्रियों को वीर्य - रक्षा के द्वारा शक्तिशाली बनाएँ और उन सशक्त इन्द्रियों से यज्ञों में प्रवृत्त हों।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( मदानां पते ) = सब आनन्दों और ज्ञान, विवेकों के पालन करने हारे, ( नः ) = हमारे ( हरिभिः ) = ज्ञान इन्द्रियों द्वारा ( सुतं ) = उत्पादित ज्ञान को ( उप याहि ) = तू प्राप्त कर ( नः ) = हमारे ( हरिभिः सुतम् ) =  प्राण इन्द्रियों द्वारा किये कर्म और उनसे उत्पन्न सुख भोग को तू ( उप याहि ) = प्राप्त हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    उपासकाः परमात्मानं, बालकस्य मातापितरश्चाचार्यं ब्रुवन्ति।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपरः। हे (मदानां पते) आनन्दानाम् अधीश्वर इन्द्र परमात्मन् ! त्वम् (नः) अस्माकम् (हरिभिः) ज्ञानाहरणशीलैः ज्ञानेन्द्रियैः (सुतम्) अभिषुतम् उत्पादितं ज्ञानम् (उप याहि) उपगच्छ। (नः) अस्माकम् (हरिभिः) कर्माहरणशीलैः कर्मेन्द्रियैः सुतम् अभिषुतं कृतं कर्म उप (याहि) उपगच्छ ॥ अथ द्वितीयः—आचार्यपरः। हे (मदानां पते) माद्यन्ति हर्षन्ति एभिरिति मदाः ज्ञानानि तेषाम् अधिपते विविधविद्याविशारद इन्द्राख्य आचार्य ! त्वम् (हरिभिः) ज्ञानाहरणशीलैः इतरैः गुरुजनैः सह (नः) अस्माकं (सुतम्) गुरुकुले कृतप्रवेशं पुत्रम् (उप याहि) उपगच्छ। (हरिभिः) दोषहरणशीलैः इतरैः गुरुजनैः सह (नः) अस्माकम् (सुतम्) गुरुकुले कृतप्रवेशं पुत्रम् (उपयाहि) उपगच्छ, प्राप्नुहि ॥६॥ अत्र श्लेषालङ्कारः उप नः हरिभिः सुतम् इत्यस्यावृत्तौ च पादावृत्ति यमकम् ॥६॥

    भावार्थः

    उपासका जनाः परमेश्वरं प्रार्थयन्ते यत् अस्माकं प्रतिज्ञानं प्रतिकर्म च त्वं चेद् व्याप्नोषि तदैवास्माकं जीवनयज्ञः सफलः। स्वपुत्रं गुरुकुलं प्रवेश्य मातापितरश्च कुलपतिं प्रार्थयन्ते यत् त्वं विद्याध्ययनाय चरित्रनिर्माणाय चान्यैर्गुरुजनैः सह प्रतिदिनमस्माकं पुत्रेण कृपया सन्निधिं कुरु ॥६॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।९३।३१, ऋषिः सुकक्षः। साम० १७९०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O soul, the Lord of rapturous joys, enjoy the knowledge derived from our organs.

    Translator Comment

    The repetition here is for the sake of emphasis.

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    Meaning

    O lord and protector of the joys of life, come to us to taste the soma of life prepared by us with our mind, imagination and senses in your honour, come to us for the soma distilled by our heart and mind for you. (Rg. 8-93-31)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ


    પદાર્થ : (मदानां पते) હે સમસ્ત હર્ષો અને આનંદોના સ્વામિન્ ! તું (नः सुतम्) અમારા નિષ્પાદિત હૃદયના ભાવપૂર્ણ ઉપાસનારસ અને ભક્તિભાવને (हरिभिः उप याहि) દુ:ખનું અપહરણ કરનાર અને સુખનું આહરણ કરનાર ગુણોથી પ્રાપ્ત થાય. (नः सुतं हरिभिः उप) અમારા નિષ્પાદિત ભક્તિભાવને દુઃખનું અપહરણ સુખનું આહરણ કરાનારા ગુણોથી પ્રાપ્ત થાય.

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હર્ષ સુખોના સ્વામિન્ પરમાત્મન્ ! તું અમારા દ્વારા નિષ્પાદિત ઉપાસનારસને દુઃખનું અપહરણ કરનારા સુખનું આહરણ કરનારા ગુણો દ્વારા અમને પ્રાપ્ત થાય છે, તેથી અમે પ્રાર્થના કરીએ છીએ કે, આપ અમારા ઉપાસનારસને અમારા કલ્યાણને માટે સેવન કરો. (૬)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    آئیے اور آئیے میرے پاس!

    Lafzi Maana

    لفظی معنیٰ: (مدانام پتے) ہے آنندوں کے پتی پرمیشور! (نہ) ہماری (ہری بھی) اِندریوں (حواس خمسہ) کے ذریعے (سُتم) جوڑے ہوئے بھگتی رس کے (اُپ یاہی) نزدیک آئیے۔ (نہ) ہماری (ہری بھی) اِندریوں کے ذریعے (سُتم) اکٹھے کئے گئے بھگتی رس کے (اُپ) پاس اوستیہ ہی آئیے!

    Tashree

    بھگت کے ہردیہ میں بڑی تڑپ ہے، بڑی چاہ ہے بھگوان کو اپنے پاس بُلانے کی جس کے لئے اُس نے دوبار ایک ہی بات کو دوہراتے ہوئے اپنے بیحد خوشی کا اظہار کیا ہے۔ بھگتی رس کو جوڑ رکھا ہے پربُھو تیرے لئے، جوہتا ہُوں باٹ کہ آئیں پربُھو میرے لئے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    उपासक लोक परमात्म्याला प्रार्थना करतात, की आमच्या प्रत्येक ज्ञान व प्रत्येक कर्मात तू व्याप्त झालास तर आमचा जीवन यज्ञ सफल होईल. तसेच माता-पिता, गुरु, कुलपतीला प्रार्थना करतात, की आमच्या पुत्राला गुरुकुलमध्ये प्रविष्ट करून विद्या, शिक्षण व चरित्र निर्माण करण्यासाठी गुरुजनांनी कृपा करून प्रत्येक दिवशी आमच्या पुत्राबरोबर राहावे ॥६॥

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    विषय

    पुढील मंत्रात उपासक परमेश्वराला आणि माता- पिता आचार्याला सांगत आहेत

    शब्दार्थ

    प्रथम अर्थ (परमात्मपर) हे (मदानां पते) आनंदाचे अधिपती परमेश्वर, आपण (नः) आमच्या (आम्हा उपासकांनी) (हरिभिः) ग्रह ज्ञान ग्रहम करणाऱ्या इंद्रियांद्वारे (सुतम्) प्राप्त ज्ञानाला (उप याहि) प्राप्त वाहा (आम्हाला ज्ञान - चक्षूंद्वारे तुम्हांस जाणून घेता येईल, असे करा) (नः) आमच्या (हरिभिः) कर्म- आहरण करणाऱ्या कर्मेन्द्रियांद्वारे (सुतम्) उत्पादित कर्माला (उपयाहि) प्राप्त व्हा. (आमच्या श्रम व यज्ञ सफल होऊ द्या.) द्वितीय अर्थ - (आचार्यपर) हे (मदानां पते) हर्षदायक ज्ञानाचे अधिपती, विविध विद्याविशारद आचार्य प्रवर, आपण (हरिभिः) ज्ञान- संचय करणाऱ्या अन्य गुरुजनांसह (नः) आमच्या (आम्हा माता- पित्याच्या) (सुतम्) गुरुकुलात प्रविष्ट पुत्राच्या (उष याहि) जवळ या (वा त्यास जवळ घ्या.)

    भावार्थ

    उपासक गण परमेश्वराला प्रार्थना करीत आहे की जर आमच्या प्रत्येक ज्ञानात व कर्मात आपण व्याप्त असाल, तरच आमचा जीवन यज्ञ सफल होईल. त्याचप्रमाणे मुलाने आई-वडील आचार्याला विनंती करीत आहेत की आपण विद्या अध्यापनासाठी आणि या मुलाच्या चरित्र निर्माणासाठी अन्य गुरुजनांसह प्रतिदिनी या आमच्या मुलाजवळ रहा. ।। ६।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. ‘उप नः हरिभिः सुतम्’ या पदसमूहाची आवृत्ती असल्यामुळे इथे पादावृत्ती यमक अलंकार आहे. ।। ६।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    மகிழ்ச்சியின் தலைவனே! [1](குதிரைகளால்) எங்கள் யக்ஞத்திற்கு துரிதமாய் வரவும். குதிரைகளோடு எங்கள் பொழியும் நிலயத்திற்கு வரவும்.

    FootNotes

    [1].குதிரைகளால் - இந்திரியங்கள் வழியாய்

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