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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 151
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
2
इ꣣ष्टा꣡ होत्रा꣢꣯ असृक्ष꣣ते꣡न्द्रं꣢ वृ꣣ध꣡न्तो꣢ अध्व꣣रे꣢ । अ꣡च्छा꣢वभृ꣣थ꣡मोज꣢꣯सा ॥१५१॥
स्वर सहित पद पाठइ꣣ष्टाः꣢ । हो꣡त्राः꣢꣯ । अ꣣सृक्षत । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । वृ꣣ध꣡न्तः꣢ । अ꣣ध्वरे꣢ । अ꣡च्छ꣢꣯ । अ꣣वभृथ꣢म् । अ꣣व । भृथ꣢म् । ओ꣡ज꣢꣯सा ॥१५१॥
स्वर रहित मन्त्र
इष्टा होत्रा असृक्षतेन्द्रं वृधन्तो अध्वरे । अच्छावभृथमोजसा ॥१५१॥
स्वर रहित पद पाठ
इष्टाः । होत्राः । असृक्षत । इन्द्रम् । वृधन्तः । अध्वरे । अच्छ । अवभृथम् । अव । भृथम् । ओजसा ॥१५१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 151
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में यजमानों का व्यवहार वर्णित है।
पदार्थ
(अध्वरे) हिंसादि दोषों से रहित अग्निहोत्र में, जीवन-यज्ञ में अथवा उपासना-यज्ञ में (इन्द्रम्) परमैश्वर्यशाली, दुःखविदारक, मुक्तिदायक परमात्मा को (वृधन्तः) बढ़ाते हुए अर्थात् उत्तरोत्तर हृदय में विकसित करते हुए यजमानगण (ओजसा) बलपूर्वक अर्थात् पूरे प्रयास से (अवभृथम् अच्छ) यज्ञान्त स्नान को लक्ष्य करके अर्थात् हम शीघ्र यज्ञ को पूर्ण करके यज्ञान्त स्नान करें, इस बुद्धि से (इष्टाः) अभीष्ट (होत्राः) आहुतियों को (असृक्षत) छोड़ते हैं ॥ यहाँ यह अर्थ भी ग्रहण करना चाहिए कि राष्ट्रयज्ञ को पूर्णता तक पहुँचाने के लिए पूरे प्रयत्न से राजा को बढ़ाते हुए अर्थात् अपने सहयोग से शक्तिशाली करते हुए प्रजाजन राष्ट्र के लिए सब प्रकार का त्याग करने के लिए उद्यत होते हैं ॥७॥
भावार्थ
अग्निहोत्र, जीवनयज्ञ, ध्यानयज्ञ, राष्ट्रयज्ञ, सभी यज्ञ आहुति देने से, परार्थ त्याग करने से या आत्मबलिदान करने से पूर्णता को प्राप्त होते हैं ॥७॥
पदार्थ
(अध्वरे) अध्यात्म यज्ञ में (इन्द्रं वृधन्तः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा को सम्यक् साक्षात् करने के हेतु (इष्टाः-होत्राः-असृक्षत) अनुकूल या जहाँ तक हो सके आत्मभावनाएँ—स्तुति-प्रार्थनोपासनाएँ हैं, उनको हे उपासको तुम लोग छोड़ो समर्पित करो पुनः (ओजसा) मानस रस से (अवभृथम्-अच्छ) अवभृथ—स्नान को भली प्रकार प्राप्त होओ।
भावार्थ
अध्यात्म यज्ञ—योगानुष्ठान में परमात्मा के साक्षात् करने के हेतु अनुकूल स्तुतिप्रार्थनोपासनाओं को भेंट करो पुनः परमात्मा के सत्संग मानस रस में गोता लगाना चाहिए॥७॥
विशेष
ऋषिः—श्रुतकक्षः (सुना है अध्यात्मकक्ष जिसने ऐसा जन)॥<br>
विषय
यज्ञान्त स्नान की ओर
पदार्थ
(उत्तम यज्ञ) = 'हमारी इन्द्रियाँ सशक्त बन यज्ञों में प्रवृत्त हों' यह पिछले मन्त्र का सार था। इस मन्त्र में कहते हैं कि 'यज्ञों में निरन्तर प्रवृत्त हुई हुई वे इन्द्रियाँ आगे और आगे बढ़ती चलें और इसी जीवन में हमें यज्ञान्त स्नान करने के योग्य बनाएँ । '( इष्टाः होत्रा:) = वांछनीय यज्ञ (असृक्षत) = हमारे द्वारा निरन्तर किये जाएँ। कुछ यज्ञ ऐसे भी हैं जिन्हें हम अवांछनीय कह सकते हैं। अभिचार यज्ञ किसी के विनाश के लिए की जानेवाली हीन क्रियाएँ, इसी कोटि में आएँगे। सशक्त, संयमी जीवनवाला पुरुष उत्तम यज्ञों को ही करता है।
(इन्द्र-शक्ति का विकास) = इन (अध्वरे) = हिंसारहित यज्ञों में ये लोग (इन्द्रं वृधन्तः) = अपने में इन्द्र-शक्ति का विकास करते हुए (ओजसा) = ओजस्विता के साथ (अवभृथम्) = यज्ञान्त स्नान की (अच्छ) =ओर बढ़ते चलते हैं। हिंसारहित उत्तम यज्ञों से आत्मिक शक्ति का विकास होता है। इन यज्ञों का करनेवाला ओजस्वी बनता है। यह ओजस्विता इसे यज्ञमार्ग पर और अधिक आगे बढ़ने की योग्यता प्राप्त कराती है और इस प्रकार वह इन यज्ञों में ऐसी तीव्रता से आगे बढ़ता है कि इसी जन्म में उसके यज्ञान्त स्नान कर सकने की सम्भावना हो जाती है। जिस दिन वह यज्ञों को पूर्ण कर यज्ञमय बन जाएगा, इस दिन यह उस यज्ञरूप विष्णु की सचमुच यज्ञ के द्वारा उपासना करेगा। पातक=पाप जहाँ मनुष्य को ‘पातयन्ति'= गिराते हैं, वहाँ यज्ञ मनुष्य को उपर उठाते हैं। पापों से शक्ति घटती है, पुण्य से उसकी अभिवृद्धि होती है। एवं, यज्ञों से ओजस्वी बननेवाला पुरुष सचमुच 'आङ्गिरस' है- रसमय अङ्गोवाला है। प्रतिपादित को अपनी शरण बनानेवाला यह श्रुतकक्ष व सुकक्ष है।
भावार्थ
हम इष्ट यज्ञों से आत्मिक शक्ति का विकास करें, और उससे यज्ञों की चरम सीमा तक पहुँचने के लिए प्रयत्नशील हों ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( अध्वरे ) = इस हिंसारहित या कभी नष्ट न होने वाले जीवनमय या आत्मज्ञानमय यज्ञ में ( इष्टा: ) = याग करने वाले या विषयरूप हवियों की आहुति प्राप्त करने वाले ( होत्रा:१ ) = ग्राह्य विषयाहुति को भांतर के चितिशक्ति की ज्वाला में हवन करनेवाले सात ऋषि, सात इन्द्रियां ( इन्द्रं वृधन्तः ) = आत्मा के ऐश्वर्य, ज्ञान गौरव को बढ़ाते हुए ( ओजसा ) = ज्ञान और बल से ( अवभृथम् ) = पूर्ण समाप्ति के अवभृथ स्नान पर्यन्त ( अच्छा) = उत्तम रूप से ( असृक्षत ) = यज्ञ करते हैं और बिसर्जन करते हैं ।
ब्राह्म यज्ञ की आध्यात्म व्याख्या का यह मूलमन्त्र है। शिर में सात छिद्र ,२ आंख, २ नाक, २ कान, १ मुख ये सात ऋषि सात होता है मुख्य आसन्य प्राण-आत्मा 'इन्द्र' है, वाक् सरस्वती यज्ञ की सम्पादिका भिषक् है, चितिशक्ति शची है। इत्यादि वैदिक अलंकार हैं। विशेष देखो छान्दोग्य उप० ( अ० ३ । ख० १६, १७। )
टिप्पणी
१. सप्तहोत्रकाः, इति सायणः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - गायत्री।
स्वरः - षड्ज।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ यजमानानां व्यवहारमाह।
पदार्थः
(अध्वरे) हिंसादिदोषरहितेऽग्निहोत्रे जीवनयज्ञे उपासनायज्ञे वा (इन्द्रम्) परमैश्वर्यशालिनं दुःखविदारकं मुक्तिदायकं परमात्मानम् (वृधन्तः) वर्धयन्तः उत्तरोत्तरं हृदि विकासयन्तो यजमानाः (ओजसा) बलेन, पूर्णप्रयत्नेन (अवभृथम् अच्छ) यज्ञान्तस्नानम् अभिलक्ष्य, वयं सद्यः यज्ञं सम्पूर्य यज्ञान्तस्नानं कुर्यामेति बुद्ध्या (इष्टाः) अभीष्टाः (होत्राः) आहुतीः (असृक्षत) विसृजन्ति, प्रयच्छन्ति। सृज विसर्गे दिवादेर्लुङि प्रथमपुरुषबहुवचने रूपम्। लडर्थे लुङ् ॥ राष्ट्रयज्ञं पूर्णतां नेतुं पूर्णप्रयासेन इन्द्रं राजानं वर्धयन्तः स्वसहयोगेन शक्तिशालिनं कुर्वन्तः प्रजाजनाः राष्ट्राय सर्वविधं त्यागं कर्तुमुद्यता भवन्तीत्यर्थोऽप्यनुसन्धेयः ॥७॥
भावार्थः
अग्निहोत्रं वा, जीवनयज्ञो वा, ध्यानयज्ञो वा, राष्ट्रयज्ञो वा, सर्वोऽपि यज्ञ आहुतिविसर्जनेन, परार्थत्यागेनात्मबलिदानेन वा पूर्णतां गच्छति ॥७॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।९३।२३, ऋषिः सुकक्षः,। वृधन्तो इत्यत्र वृधासो इति पाठः।
इंग्लिश (2)
Meaning
In this non-violent sacrifice of life, the Hotas, fed with the oblations of passions enhancing the knowledge, dimity and sublimity of the soul, nicely finish the Yajna (sacrifice) to the end.
Translator Comment
$ Hotas are seven Rishis, i.e., two eyes, two nostrils, two ears and month. These seven organs add to the knowledge and grandeur of the soul, and carry on this Yajna throughout life to the end. अवभृथ is the cleansing bath taken at the end of a Yajna.
Meaning
Cherished and lovely offers of havi offered into the fire in the yajna of life exalt Indra, and with light and lustre lead the yajamana to the sanctifying bath on the completion of the yajna. (Rg. 8-93-23)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अध्वरे) અધ્યાત્મયજ્ઞમાં (इन्द्रं वृधन्तः) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માનો સમ્યક્ સાક્ષાત્ કરવા માટે (इष्टाः होत्राः असृक्षत) અનુકૂળ અથવા જ્યાં સુધી બની શકે આત્મ ભાવનાઓ - સ્તુતિ - પ્રાર્થના - ઉપાસનાઓ છે , તેને હે ઉપાસકો તમે લોકો પ્રસારિત કરો - સમર્પિત કરો પુનઃ (ओजसा માનસ રસ દ્વારા (अवभृथम् अच्छ) અવભૃથ = સ્નાનને સારી રીતે પ્રાપ્ત થાઓ. (૭)
भावार्थ
ભાવાર્થ : અધ્યાત્મયજ્ઞ-યોગના અનુષ્ઠાનમાં પરમાત્માનો સાક્ષાત્ કરવા માટે અનુકૂળ સ્તુતિ-પ્રાર્થનાઉપાસનાઓની ભેટ ધરો, પુન: પરમાત્માના સત્સંગ માનસરસમાં ડૂબકી લગાવવી જોઈએ. (૭)
उर्दू (1)
Mazmoon
ویدبانی بھگوان کے راستے پر چلاتی ہے برہم یگیہ کا موُل منتر
Lafzi Maana
لفظی معنیٰ: (ہوترا) ویدبانیوں کا جب (اِشٹا) ست سنگ کیا جاتا ہے۔ حب سوادھیائے سے گیان یگیہ کیا جاتا ہے تب یہ وید بانیاں (اَدھورے) ہنسا رہت اِس ادھیاتمک یگیہ میں (اسرِکھشت) بھگتی رس کو پیدا کرتی ہیں اور (اِندرم ور دھنت) بھگوان کو اور ان کی صفاتِ حمیدہ کو اپنے اندر بڑھاتی ہیں۔ اِس طرح (ادھرتھم) بھرن پوشن کرنے والے محافظ عالم پرمیشور کی (اچھا اوجسا) طرف اُس کے راستے پر اُتساہ اور تیزی سے یہ وید بانیاں ہمیں چلاتی ہیں۔
Tashree
برہم یگیہ: "ہوترا" کی ویاکھیا کرتے ہوئے پنڈت جے دیوجی نے لکھا ہے، کہ یا سات ہوتا (ہوَن کرنے والے) سات رِشی ہیں، دو آنکھیں، دو کان، دو ناک کے سوراخ اور ایک مُکھ یہ سبھی آتما کی اگنی میں اپنے اپنے وِشیوں کو جلا کر ان کی آہوتی دے کر آتما کو شُدھ پِوتّر اور نِرمل بنا اُسے بھگوان کے ساکھشات کار کے یوگیہ بناتے ہیں۔ بس ہمارا دھرم ہے۔ کہ ہم اِن رشیوں، سات اِندریوں کو بُرے وِشیوں کی طرف جانے سے سدا روکتے رہیں، تب یہ ہمارا برہم یگیہ چلتا رہے گا اور ہمارے اندر ایشور بڑھتا رہے گا۔ (مزید دیکھو چھاند وگیہ اُپنشد اھیائے 3 کھنڈ 16-17) وید بانیوں کے ست سنگ سے ملتی ہے راہ ایشور کی، اُس کے گُن بڑھ جانے پر جیوتی جگتی جگدیشور کی۔
मराठी (2)
भावार्थ
अग्निहोत्र, जीवनयज्ञ, ध्यानयज्ञ, राष्ट्रयज्ञ इत्यादी सर्व यज्ञ आहुती देण्याने, परार्थ त्याग करण्याने, किंवा आत्मबलिदान करण्याने पूर्ण होतात. ॥७॥
विषय
पुढील मंत्रात यजमानांच्या व्यवहाराविषयी सांगितले आहे
शब्दार्थ
(अध्वरे) हिंसा आदी दोषापासून मुक्त अशा अग्निहोत्रात, जीवन सयज्ञात अथवा उपासना यज्ञात (इन्द्रम्) परमैश्वर्यशाली, दुःखविदारक, मुक्तिदायक परमेश्वराला (वृधन्तः) वाढवीत म्हणजे त्याचे हृदयात त्याचे ध्यान उत्तरोत्तर अधिकाधिक विकसित करीत यजमाननगण (ओजसा) बलात् अथा४त पूर्ण प्रयत्नाने (अवभृथम् अच्छ) यज्ञानंतर केल्या जाणाऱ्या स्नानाकडे लक्ष देत म्हणजे आम्ही शीघ्र यज्ञ पूर्ण करून यज्ञान्त स्नान करू, या विचाराने (इष्टाः) अभीष्ट (होत्राः) आहुती (असृक्षत) सोडतात।।७।।
भावार्थ
अग्निहोत्र असो, जीवनयज्ञ असो वा ध्यान यज्ञ असो, वा राष्ट्रयज्ञ असो, सर्व प्रकारच्या यज्ञात आहुती देण्याने, दुसऱ्यासाठी त्याग केल्याने वा आत्म बलिदान करण्याने सर्व यज्ञ पूर्णत्वास प्राप्त होतात. ।। ७।।
विशेष
इथे मंत्रातून हा अर्थदेखील घेतला पाहिजे. राष्ट्र यज्ञाच्या पूर्ततेसाठी प्रजाजनांनी पूर्ण प्रयत्न करावेत, आपल्या सहकार्याद्वारे राजाला शक्तिशाली करीत राष्ट्रोन्नतीकरिता सर्वदृष्ट्या त्याग करण्यास तत्पर असले पाहिजे. ।। ७।।
तमिल (1)
Word Meaning
யக்ஞத்தில்,ஆகாசத்தில், பெருகும் பிரியமுள்ள (ஹோதுருக்கள்) (அவர்களின் அளிப்புகள்) புனிதமாக்கும் ஸ்னானத்திற்கு பலத்தால் (இந்திரனை) அனுப்புகின்றன.
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