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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1508
    ऋषिः - त्र्यरुणस्त्रैवृष्णः, त्रसदस्युः पौरुकुत्सः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - ऊर्ध्वा बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
    3

    अ꣡जी꣢जनो अमृत꣣ म꣡र्त्या꣢य꣣ क꣢मृ꣣त꣢स्य꣣ ध꣡र्म꣢न्न꣣मृ꣡त꣢स्य꣣ चा꣡रु꣢णः । स꣡दा꣢सरो꣣ वा꣢ज꣣म꣢च्छा꣣ स꣡नि꣢ष्यदत् ॥१५०८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡जी꣢꣯जनः । अ꣣मृत । अ । मृत । म꣡र्त्या꣢꣯य । कम् । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । ध꣡र्म꣢꣯न् । अ꣣मृ꣡त꣢स्य । अ꣣ । मृ꣡त꣢꣯स्य । चा꣡रु꣢꣯णः । स꣡दा꣢꣯ । अ꣣सरः । वा꣡ज꣢꣯म् । अ꣡च्छ꣢꣯ । स꣡नि꣢꣯ष्यदत् ॥१५०८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अजीजनो अमृत मर्त्याय कमृतस्य धर्मन्नमृतस्य चारुणः । सदासरो वाजमच्छा सनिष्यदत् ॥१५०८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अजीजनः । अमृत । अ । मृत । मर्त्याय । कम् । ऋतस्य । धर्मन् । अमृतस्य । अ । मृतस्य । चारुणः । सदा । असरः । वाजम् । अच्छ । सनिष्यदत् ॥१५०८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1508
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अगले मन्त्र में फिर उसी विषय का वर्णन है।

    पदार्थ

    हे (अमृत) अमर सोम जगदीश्वर ! आपने (मर्त्याय) मनुष्य ले लिए (ऋतस्य धर्मन्) जल वा सत्यनियम के धारणकर्ता आकाश में (चारुणः) कल्याणकारी, (अमृतस्य) अमृतमय बादल वा सूर्य के (कम्) सुखकारी जल वा प्रकाश को (अजीजनः) उत्पन्न किया है। साथ ही (वाजम् अच्छ) बल प्राप्त कराने के लिए (सनिष्यदत्) प्रवृत्त होते हुए आप (सदा) हमेशा (असरः) धार्मिक उपासकों को प्राप्त होते हो ॥३॥

    भावार्थ

    जगदीश्वर का हमारे प्रति कितना उपकार है कि वह हमारे लिए आकाश में जल बरसानेवाले बादल को और तेज के खजाने सूर्य को स्थापित करता है और वही सब विपदाओं तथा विघ्नों से मुकाबला करने के लिए हमें मनोबल भी देता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (अमृत) हे अमृत—अविनाशी सोम—परमात्मन्! तू (मर्त्याय) मरणधर्मी—जन्म मरण में आने वाले उपासकजन के लिये (ऋतस्य कम्-अजीजनः) अमृत के४ सुख को प्रसिद्ध करता है (चारुणः-ऋतस्य धर्मन्) सुन्दर—ऋत—अमृत धारण करने वाले सरोवर में (सदा-असदः) सदा विचर रहा है (वाजम्-अच्छ-सनिष्यदत्) अमृत अन्नभोग को भुगाने के अभिमुख हो बहाकर॥३॥

    विशेष

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    विषय

    वृक्तबर्हिष् के जीवन में ‘कं, ऋत व वाज' की तीन बातें

    पदार्थ

    १. यह 'वृक्तबर्हिष्' विषय-स्रोत को सुखा देने से अब विषयों के पीछे मरता नहीं है, अतः यह ‘अमृत' बना है। हे (अमृत) = विषयों के पीछे न मरनेवाले 'वृक्तबर्हिष्'! तू (मर्त्याय) = विषयों में आसक्त – उनके पीछे मरनेवाले मनुष्यों के लिए (कम्) = ज्योति [ Light, Splendour] को (अजीजन:) = प्रकट करता है । २. तू स्वयं (ऋतस्य धर्मन्) [धर्मणि] = सदा ऋत के धर्म में स्थित होता है जो ऋत (चारुणः अमृतस्य) = सुन्दर अमरता का पोषक है अथवा सुन्दरता व अमरता का पोषक है। ऋत का अभिप्राय है ठीक [right], ठीक वह है जो ठीक समय पर हो और ठीक स्थान पर हो। यह ‘वृक्तबर्हिष्' सब कार्यों को ठीक समय पर तथा ठीक स्थान पर करता है । यह ऋत का पालन उसके जीवन के सौन्दर्य को बढ़ा देता है और उसे रोगों का शिकार न होने देकर अमर बनाता है। ३. इस ‘वृक्तबर्हिष्' के जीवन की तीसरी बात यह है कि (सनिष्यदत्) = सदा संविभागपूर्वक वस्तुओं का सेवन करता हुआ यह (वाजम् अच्छ) = शक्ति व त्याग की ओर (सदा असरः) = सदा बढ़ता है। वृक्तबर्हिष् लोगों में ज्ञान का प्रचार करता है, स्वयं अपने जीवन में ऋत का पालन करता हुआ 'में

    सुन्दरता व अमरता को पाता है तथा सदा त्याग व शक्ति की ओर अग्रसर होता है। ऐसे व्यक्ति के समीप 'काम, क्रोध व लोभ' का निवास सम्भव नहीं होता । 'ज्ञान' काम का प्रतिपक्ष होकर उसे प्रबल नहीं होने देता, 'ऋत के पालन से' उसके जीवन में क्रोध नहीं पनप पाता और 'त्याग' उसे लोभ से दूर रखता है । एवं, यह सचमुच 'त्रसदस्यु' बन जाता है।

    भावार्थ

    हम सुखद ज्ञान का लोगों में प्रसार करें, अपने जीवनों को ऋत में स्थिर करें, त्याग व शक्ति की ओर अग्रसर होते चलें।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    हे (अमृत) अमर सोम जगदीश्वर ! त्वम् (मर्त्याय) मानवाय (ऋतस्य धर्मन्) उदकस्य सत्यनियमस्य वा धारके आकाशे। [ऋतमिति उदकनाम सत्यनाम च। निघं० १।१२, ३।१०।] (चारुणः) कल्याणकरस्य (अमृतस्य) अमृतमयस्य पर्जन्यस्य आदित्यस्य वा (कम्) सुखकरं जलं प्रकाशं वा (अजीजनः) जनितवानसि। अपि च (वाजम् अच्छ) बलं प्रापयितुम् (सनिष्यदत्) प्रस्यन्दमानः त्वम् (सदा) सदैव (असरः) धार्मिकान् उपासकान् प्राप्नोषि। [सनिष्यदत्, स्यन्दू प्रस्रवणे धातोः‘दाधर्तिदर्धर्ति०।’ अ० ७।४।६५ इत्यनेन यङ्लुकि अभ्यासस्य निक् धातुसकारस्य च षत्वं निपात्यते] ॥३॥

    भावार्थः

    जगदीश्वरस्यास्मान् प्रति कियानुपकारो यत् सोऽस्मभ्यं, गगने वृष्टिप्रदातारं पर्जन्यं तेजसां निधिं सूर्यं च स्थापयति स एव च सर्वा विपदो विघ्नांश्च प्रतिरोद्धुमस्मभ्यं मनोबलं प्रयच्छति ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O learned person, thou createst deathless joy for the soul, and spreading knowledge and strength in the religious path preached by the immortal, excellent Veda, thou always nicely manifestest thyself!

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    Meaning

    Immortal Soma, for mortal humanity you create peace and pleasure radiating in the operative laws of eternal and immortal blissful dynamics of existence, vesting in mortals the energy and ambition to live, and you move on ever in union with mortals and immortals. (Rg. 9-110-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अमृत) હે અમૃત-અવિનાશી સોમ-પરમાત્મન્ ! તું (मर्त्याय) મરણધર્મી-જન્મ મરણમાં આવનાર ઉપાસકજનને માટે (ऋतस्य कम् अजीजनः) અમૃતનાં સુખને પ્રસિદ્ધ-ઉત્પન્ન કરે છે. (चारुणः ऋतस्य धर्मन्) સુંદર-ૠત-અમૃત ધારણ કરનાર સરોવરમાં (सदा असदः) સદા વિચરી રહેલ છે. (वाजम् अच्छ

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जगदीश्वराचे आमच्यावर अत्यंत उपकार आहेत. तो आमच्यासाठी आकाशात जलाचा वर्षाव करणारे मेघ व तेजाचा खजिना असलेला सूर्य स्थापित करतो व तोच सर्व विपदा व विघ्नांचा मुकाबला करण्यासाठी आम्हाला मनोबल देतो. ॥३॥

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