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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1510
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
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    उ꣢पो꣣ ह꣡री꣢णां꣣ प꣢ति꣣ꣳ रा꣡धः꣢ पृ꣣ञ्च꣡न्त꣢मब्रवम् । नू꣣न꣡ꣳ श्रु꣢धि स्तुव꣣तो꣢ अ꣣श्व्य꣡स्य꣢ ॥१५१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ꣡प꣢꣯ । ऊ꣣ । ह꣡री꣢꣯णाम् । प꣡ति꣢꣯म् । रा꣡धः꣢꣯ । पृ꣣ञ्च꣢न्त꣢म् । अ꣣ब्रवम् । नून꣢म् । श्रु꣣धि । स्तुवतः꣢ । अ꣣श्व्य꣡स्य꣢ ॥१५१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपो हरीणां पतिꣳ राधः पृञ्चन्तमब्रवम् । नूनꣳ श्रुधि स्तुवतो अश्व्यस्य ॥१५१०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उप । ऊ । हरीणाम् । पतिम् । राधः । पृञ्चन्तम् । अब्रवम् । नूनम् । श्रुधि । स्तुवतः । अश्व्यस्य ॥१५१०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1510
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अगले मन्त्र में जगदीश्वर की स्तुति है।

    पदार्थ

    (हरीणाम्) आकर्षण के गुण से एक-दूसरे के साथ बँधे हुए सूर्य, भूमण्डल, मङ्गल, बुध, चन्द्र, नक्षत्र आदियों के अथवा ज्ञान और कर्म का आहरण करनेवाली ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के (पतिम्) स्वामी, (राधः) ऐश्वर्य को (पृञ्चन्तम्) प्रदान करनेवाले इन्द्र परमात्मा के (उप) समीप होकर, मैं (अब्रवम्) स्तुतिवचन बोलता हूँ। हे इन्द्र परमात्मन् ! (स्तुवतः) स्तुति करनेवाले, (अश्व्यस्य) इन्द्रिय-रूपी घोड़ों को सन्मार्ग पर चलानेवाले मुझ उपासक के, उस प्रार्थना-वचन को, आप (नूनम्) अवश्य (श्रुधि) सुनो, पूर्ण करो ॥२॥

    भावार्थ

    आपस में आकर्षण-बल से बिना आधार के आकाश में स्थित लोक-लोकान्तरों का और शरीर में यथास्थान स्थित अङ्ग-प्रत्यङ्गों का एवं मन, बुद्धि, प्राण तथा इन्द्रियों का जो व्यवस्थापक है, उस परमात्मा की सब लोग जितेन्द्रिय होकर पुनः-पुनः भली-भाँति स्तुति करें ॥२॥

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    पदार्थ

    (हरीणां पतिम्) परमात्मा को अपनी ओर हरने—लाने वाले उपासकों के पालक (राधः पृचन्तम्) उपासकों को राधनीय—साधनीय आनन्द से संयुक्त करते हुए इन्द्र—परमात्मा को (उप-अब्रवम्-उ) उपासित—प्रार्थित करता हूँ (नूनम्) निश्चय (अश्वयस्यः-स्तुवतः-श्रुधि) इन्द्रिय घोड़ों के अधिकर्ता संयमी स्तुति करते हुए की स्तुति को सुन—स्वीकार कर॥२॥

    विशेष

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    विषय

    जितेन्द्रियता व सफलता, स्तुति व क्रियाशीलता

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'वैयश्व' विशिष्ट इन्द्रियरूप अश्वोंवाला प्रभु से प्रार्थना करता है कि (उप उ) = निश्चय से प्रभु के समीप बैठकर - उसके समीप निवास करता हुआ मैं (हरीणां पतिम्) = इन्द्रियरूप अश्वों के पति (राध: पृञ्चन्तम्) = मुझे जीवन में सफलता का सम्पर्क कराते हुए प्रभु को (अब्रवम्) = मैंने कहा है कि आप (नूनम्) = निश्चय से (स्तुवतः) = स्तुति करते हुए (अश्व्यस्य) [अश् व्याप्तौ]=सदा कर्मों में व्याप्त रहनेवाले मेरी प्रार्थना को (श्रुधि) = सुनिए ।

    ‘वैयश्व’=अपने इन्द्रियरूप अश्वों को इसीलिए विशिष्ट बना पाया है कि वह प्रभु को ‘हरीणां पति'= '= इन्द्रियों के स्वामी के रूप में देखता है— प्रभु 'हृषीकेश' - इन्द्रियों के ईश हैं । प्रभु जितेन्द्रियता के द्वारा हमारे साथ सफलता का सम्पर्क करते हैं। ('संनियम्य तु तान्येव ततः सिद्धिं नियच्छति')= इन्द्रियों का संयम करके सफलता को प्राप्त करता है ।

    ‘वैयश्व' यह भी समझता है कि प्रभु केवल प्रार्थना करनेवाले की बात नहीं सुनते । प्रभु तो उसी की बात सुनते हैं जो स्तुति के साथ कर्म भी करता है । 'स्तुवन्' होता हुआ 'अश्व' भी है । आचार्य के शब्दों में प्रार्थना तो पूर्ण परिश्रम के उपरान्त ही करनी ठीक है । 

    भावार्थ

    हम जितेन्द्रियता व सफलता के कार्यकारणभाव को समझें । हम स्तुति करनेवाले बनें, परन्तु साथ ही क्रियाशील भी हों ।
     

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रं जगदीश्वरं स्तौति।

    पदार्थः

    (हरीणाम्) आकर्षणगुणेन परस्परमाबद्धानां सूर्यभूमण्डलमङ्गलबुध- चन्द्रनक्षत्रादीनाम्, यद्वा ज्ञानकर्माहरणशीलानां ज्ञानेन्द्रियाणां कर्मेन्द्रियाणां च (पतिम्) स्वामिनम्, (राधः) ऐश्वर्यम् (पृञ्चन्तम्) प्रयच्छन्तम् इन्द्रं परमात्मानम्। [पृची सम्पर्चने, अदादिः।] (उप) उपेत्य अहम् (अब्रवम् उ) स्तुतिवचनं ब्रवीमि। हे इन्द्र परमात्मन् ! (स्तुवतः) स्तुतिं कुर्वतः (अश्व्यस्य२) अश्वेषु इन्द्रियतुरङ्गमेषु साधुः अश्व्यः इन्द्रियाश्वानां सुमार्गे चालयिता तस्य उपासकस्य मम, तत्प्रार्थनावचनम् (नूनं) निश्चयेन (श्रुधि) शृणु, पूरयेत्यर्थः ॥२॥

    भावार्थः

    परस्परमाकर्षणबलेन निराधारं गगने स्थितानां लोकलोकान्तराणां देहे च यथास्थानं धृतानामङ्गप्रत्यङ्गानां मनोबुद्धिप्राणेन्द्रियाणां च यो व्यवस्थापयिता वर्तते तं परमात्मानं सर्वे जना जितेन्द्रिया भूत्वा भूयोभूयः संस्तुवन्तु ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I, seeking the shelter of God, say unto Him, the Giver of wisdom and the Guardian of thee learned, listen certainly to the soul who sings Thy praise.

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    Meaning

    I reach the lord protector and controller of the moving worlds, the omnipotent who enjoins the soul with the world of nature, and I closely whisper in prayer: Listen to the celebrant devotee who is keen to move from humanity to divinity and deserves to be accepted. (Rg. 8-24-14)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (हरीणां पतिम्) પરમાત્માને પોતાની તરફ હરનાર-લાવનાર ઉપાસકોના પાલક (राधः पृचन्तम्) ઉપાસકોને રાધનીય-સાધનીય આનંદથી સંયુક્ત કરતાં ઇન્દ્ર-પરમાત્માને (उप अब्रवम् उ) ઉપાસિત પ્રાર્થિત કરું છું (नूनम्) નિશ્ચય (अश्वयस्य स्तुवतः श्रुधि) ઇન્દ્રિયરૂપી ઘોડાના અધિકર્તા સંયમી સ્તુતિ કરી રહેલાઓની સ્તુતિને સાંભળ-સ્વીકાર કર. (૨)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आपापसात आकर्षण-बलाशिवाय आधाराशिवाय आकाशात स्थित लोकलोकान्तराचा व शरीरात, स्थित अंगप्रत्यंगाचा व मन, बुद्धी, प्राण व इन्द्रियांचा जो व्यवस्थापक आहे त्या परमात्म्याची सर्वांनी जितेंद्रिय बनून पुन्हा पुन्हा चांगल्या प्रकारे स्तुती करावी. ॥२॥

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