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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1519
    ऋषिः - शतं वैखानसाः देवता - अग्निः पवमानः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    2

    अ꣣ग्नि꣢꣫रृषिः꣣ प꣡व꣢मानः꣣ पा꣡ञ्च꣢जन्यः पुरोहितः । त꣡मी꣢महे महाग꣣य꣢म् ॥१५१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣ग्निः꣢ । ऋ꣡षिः꣢꣯ । प꣡व꣢꣯मानः । पा꣡ञ्च꣢꣯जन्यः । पा꣡ञ्च꣢꣯ । ज꣣न्यः । पुरो꣡हि꣢तः । पु꣣रः꣢ । हि꣣तः । त꣢म् । ई꣣महे । महागय꣢म् । म꣣हा । गय꣢म् ॥१५१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निरृषिः पवमानः पाञ्चजन्यः पुरोहितः । तमीमहे महागयम् ॥१५१९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः । ऋषिः । पवमानः । पाञ्चजन्यः । पाञ्च । जन्यः । पुरोहितः । पुरः । हितः । तम् । ईमहे । महागयम् । महा । गयम् ॥१५१९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1519
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह गया है कि योग-प्रशिक्षक कैसा हो।

    पदार्थ

    (अग्निः) विद्वान् योगिराज (ऋषिः) परमात्मा का द्रष्टा, (पवमानः) अपने तथा दूसरों के जीवन को पवित्र करनेवाला, (पाञ्चजन्यः) प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान रूप पञ्च प्राणों का हितकारी, (पुरोहितः) और योग-प्रशिक्षण के लिए सम्मुख स्थापित होता है। (महागयम्) महाप्राण (तम्) उस योगिराज से हम (ईमहे) योगसिद्धि की याचना करते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    सिद्ध योगियों के समीप योगाभ्यास करने से योगसाधन में तत्पर शिष्यों की योग-साधना सफल होती है ॥२॥

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    पदार्थ

    (अग्निः-ऋषिः) अग्रणायक परमात्मा सर्वद्रष्टा (पवमानः) पवित्रकारक है (पाञ्चजन्यः) पञ्चजनों—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, निषाद—वनवासी जनों का उपास्य—एवं हितकर (पुरोहितः) पुरः-हित—पूर्व से वर्तमान हितकर है (तं महागयम्-ईमहे) उस महान् घर वाले५ मोक्षरूप महान् घर वाले परमात्मा की माँग करते हैं—चाहते हैं६॥२॥

    विशेष

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    विषय

    'महागय' प्रभु का ध्यान

    पदार्थ

    १. (अग्निः) = वे प्रभु अग्नि हैं, अग्रेणी हैं, हमें उन्नति-पथ पर ले-चल रहे हैं। २. (ऋषिः) = वे तत्त्वद्रष्टा हैं या सर्वत्र प्राप्त [ऋष गतौ] सर्वव्यापक हैं । वस्तुतः सर्वव्यापकता से ही सर्वतत्त्वद्रष्टा व सर्वज्ञ हैं ।
    ३. (पवमानः) = हृदयस्थरूपेण सदा सुन्दर प्रेरणा देते हुए हमारे जीवनों को पवित्र बना रहे हैं । ४. (पाञ्चजन्यः) = पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पञ्चकर्मेन्द्रिय व पञ्चप्राणयुक्त जनों का अथवा ब्राह्मण, क्षत्रिय, इन पाँच भागों में विभक्त जनों का हित करनेवाले हैं वैश्य, शूद्र तथा निषाद - ।

    ५. (पुरोहितः) = वे बनने से पहले निहित= रक्खे हुए हैं, अर्थात् वे कभी बने नहीं, वे तो सदा से हैं, अथवा [पुर:हितं दधाति] सबसे पहले जीवहित को धारण करनेवाले हैं।

    ६. (तम्) = उन (महागयम्) = [नि० २.१० धन] महाधन [नि० ३.४ गृह] सबके निवास स्थान होने से महान् गृह अथवा [प्राणा वै गया: श० १४.८.१५.७] महाप्राण प्रभु को (ईमहे) = हम चाहते हैं [ई=to desire], उसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करते हैं [ई-to go ] उस प्रभु की भावना से अपने को गर्भित कर लेते हैं [ ई = to become pregnant with]।

    इस प्रकार प्रभु के ध्यान से शतशः वासनाओं को उखाड़ डालनेवाला यह व्यक्ति 'वैखानस' नामवाला होता है। वह प्रभु को ही अपना घर बनाता है। वहाँ उस महाप्राण प्रभु की गोद में वासनाओं ने इसपर क्या आक्रमण करना ?

    भावार्थ

    हम महाप्राण प्रभु का ध्यान करें ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    (अग्नि) ज्ञानवान्, प्रकाशस्वरूप परमात्मा (ऋषिः) स्वतः सब मन्त्रों का दष्टा, प्रकाशक, सर्वव्यापक और समस्त संसार का द्रष्टा है, वही (पवमानः) सबका पवित्रकारक ज्योतिष्मान् और सबका प्रेरक होने से (पाञ्चजन्यः) पांचों जन—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद, या देव, मनुष्य, गन्धर्व, अप्सरा, सर्प और पितर या ५ इन्दियों को समानरूप से हितकारी (पुरोहितः) समस्त कार्यों के पूर्व, हृदय में और समस्त विश्व सृष्टि के पूर्व, जगत् में साक्षी रूप से स्थित है, (तं) उस (महागयं) महान् प्राणों के प्राण, अथवा बड़े बड़े देवादि से भी स्तुति किये गये महान्, ज्ञानवान्, परम उपदेष्टा, विशाल कीर्ति वाले परमात्मा से हम (ईमहे) याचना करें।

    टिप्पणी

    प्रतीकमात्रम्। क्वचित् पूर्णापि ऋक् पठ्यते।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१,९ प्रियमेधः। २ नृमेधपुरुमेधौ। ३, ७ त्र्यरुणत्रसदस्यू। ४ शुनःशेप आजीगर्तिः। ५ वत्सः काण्वः। ६ अग्निस्तापसः। ८ विश्वमना वैयश्वः। १० वसिष्ठः। सोभरिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ वसूयव आत्रेयाः। १४ गोतमो राहूगणः। १५ केतुराग्नेयः। १६ विरूप आंगिरसः॥ देवता—१, २, ५, ८ इन्द्रः। ३, ७ पवमानः सोमः। ४, १०—१६ अग्निः। ६ विश्वेदेवाः। ९ समेति॥ छन्दः—१, ४, ५, १२—१६ गायत्री। २, १० प्रागाथं। ३, ७, ११ बृहती। ६ अनुष्टुप् ८ उष्णिक् ९ निचिदुष्णिक्॥ स्वरः—१, ४, ५, १२—१६ षड्जः। २, ३, ७, १०, ११ मध्यमः। ६ गान्धारः। ८, ९ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ योगप्रशिक्षकः कीदृशो भवेदित्युच्यते।

    पदार्थः

    (अग्निः) विद्वान् योगिराट् (ऋषिः) परमात्मद्रष्टा, (पवमानः) स्वस्य परेषां च जीवनं पवित्रीकुर्वाणः (पाञ्चजन्यः) पञ्चजनेभ्यः प्राणापानव्यानोदानसमानरूपेभ्यः पञ्चप्राणेभ्यो हितकरः, (पुरोहितः) योगप्रशिक्षणप्रदानाय सम्मुखं स्थापितश्च भवति। (महागयम्) महाप्राणम्। [प्राणा वै गयाः। श० १४।८।१५।७।] (तम्) योगिराजम् वयम् (ईमहे) योगसिद्धिं याचामहे। [ईमहे इति याच्ञाकर्मा। निघं० ३।१९] ॥२॥

    भावार्थः

    सिद्धयोगिनां सान्निध्ये योगाभ्यासेन योगसाधने तत्पराणां शिष्याणां योगसाधना सफला जायते ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    God is the Revealer of all the verses, the Purifier of all, the Lover of all five sorts of men. Present in the universe before its creation. To Him we pray Whose knowledge is great.

    Translator Comment

    Five sorts of men: (1) Brahman, (2) Kshatriya, 13) Vaishya, (4) Shudra, (5) Nishada.

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    Meaning

    Agni is the light of life and fire of passion, pure and purifying energy ever radiative, universal inspirer of all people on earth and energiser of all five faculties, adorable leader of entire humanity and guiding spirit of the corporate life of all human communities together. We adore, serve and pray for the favour of such generous father of the household of humanity. (Rg. 9-66-20)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अग्निः ऋषिः) અગ્રણી પરમાત્મા સર્વ દ્રષ્ટા (पवमानः) પવિત્ર કરનાર છે. (पाञ्चजन्यः) પાંચ જનો-બ્રાહ્મણ, ક્ષત્રિય, વૈશ્ય, શૂદ્ર અને નિષાદ-વનવાસી જનોનાં ઉપાસ્ય-અને હિતકર (पुरोहितः) પુરઃહિત-પૂર્વથી વર્તમાન [અનાદિ]હિતકર છે. तं महागयम् ईमहे) તે મહાન ઘરવાળા-મોક્ષરૂપ મહાન ઘરવાળા પરમાત્માની માંગ કરીએ છીએ-ચાહીએ છીએ. (૨)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सिद्ध योग्यांजवळ योगाभ्यास करण्याने योगसाधनेत व तत्पर शिष्यांची योगसाधना सफल होते. ॥२॥

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