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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1542
ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
उ꣡प꣢ त्वा जु꣣ह्वो꣢३꣱म꣡म꣢ घृ꣣ता꣡ची꣢र्यन्तु हर्यत । अ꣡ग्ने꣢ ह꣣व्या꣡ जु꣢षस्व नः ॥१५४२॥
स्वर सहित पद पाठउ꣡प꣢꣯ । त्वा꣢ । जु꣢ह्वः । म꣡म꣢꣯ । घृ꣣ता꣡चीः꣢ । य꣣न्तु । हर्यत । अ꣡ग्ने꣢꣯ । ह꣣व्या꣢ । जु꣣षस्व । नः ॥१५४२॥
स्वर रहित मन्त्र
उप त्वा जुह्वो३मम घृताचीर्यन्तु हर्यत । अग्ने हव्या जुषस्व नः ॥१५४२॥
स्वर रहित पद पाठ
उप । त्वा । जुह्वः । मम । घृताचीः । यन्तु । हर्यत । अग्ने । हव्या । जुषस्व । नः ॥१५४२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1542
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा को हवि अर्पित करते हैं।
पदार्थ
हे (अग्ने) ज्योतिर्मय परमेश ! हे (हर्यत) कमनीय ! (मम) मुझ स्तोता की (घृताचीः) स्नेह से आर्द्र वा तेज से युक्त (जुह्वः) वाणियाँ (त्वा) आपको (उप यन्तु) प्राप्त हों। आप (नः) हमारी (हव्या) आत्मसमर्पणरूप हवियों को (जुषस्व) प्रेम से स्वीकार करो ॥२॥
भावार्थ
श्रद्धा और प्रेम से की गयी परमात्मा की स्तुति अवश्य फलदायक होती है ॥२॥
पदार्थ
(हर्यत-अग्ने) हे कमनीय१ परमात्मन्! (मम) मेरी (घृताचीः) स्निग्ध स्तुतिवाणियाँ२ तथा (जुह्वः) आत्मभावनायें३ (त्वा) तुझे (उपयन्तु) प्राप्त हों—और (नः) हमारे (हव्या जुषस्व) हव्यों—दातव्य उपहार रूप श्रवण, मनन, निदिध्यासनों शम, दम, सदाचरण दोनों को सेवन कर—स्वीकार कर॥२॥
विशेष
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विषय
मैं प्रभु को पुकारूँ, प्रभु मेरी पुकार सुनें
पदार्थ
हे (हर्यत) = सम्पूर्ण संसार को गति देनेवाले तथा सबका हित चाहनेवाले प्रभो ! (मम) = मेरी (घृताचीः) = [घृत+अञ्च] दीप्ति से युक्त (जुह्वः) = चित्तवृत्तियाँ अथवा वाणियाँ (त्वा उपयन्तु) = तुझे समीपता से प्राप्त हों, जिस प्रकार घृत भरे चम्मच अग्नि को प्राप्त होते हैं ।
हे (अग्ने) = मेरे जीवन को प्रकाशमय बनानेवाले प्रभो ! आप हमारी (हव्या) = पुकारों का (जुषस्व) = प्रेमपूर्वक सेवन करें, अर्थात् हमारी प्रार्थनाओं को सुनें ।
जो भी व्यक्ति अपनी चित्तवृत्ति को प्रभु-प्रवण करेगा वह अवश्य ही प्रभु का प्रिय बनेगा और प्रभु उसकी पुकार को सुनेंगे।
भावार्थ
मैं प्रभु को चाहूँ, प्रभु को पुकारूँ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (हर्यत) सब को अपने में ही आहरण कर लेने हारे सबके प्रलयकारक परमेश्वर ! (मम) मेरी (घृताची) घृत, अर्थात् कान्ति या तेज को धारण करने हारी (जुह्वः) दान प्रतिदान करने वाली चमसरूप इन्द्रियां (त्वा) तेरे प्रति ही (उप यन्तु) गति करें। हे (अग्ने) प्रकाशक (नः) हमारे (हव्या) स्तुतियों और प्रदान करने योग्य समस्त स्वरूप पदार्थों को आप ही (जुषस्व) स्वीकार करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ११ गोतमो राहूगणः। २, ९ विश्वामित्रः। ३ विरूप आंगिरसः। ५, ६ भर्गः प्रागाथः। ५ त्रितः। ३ उशनाः काव्यः। ८ सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतरः । १० सोभरिः काण्वः। १२ गोपवन आत्रेयः १३ भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा। १४ प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपति यविष्ठौ ससुत्तौ तयोर्वान्यतरः॥ अग्निर्देवता। छन्दः-१-काकुभम्। ११ उष्णिक्। १२ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री चरमयोः। १३ जगती॥ स्वरः—१-३, ६, ९, १५ षड्जः। ४, ७, ८, १० मध्यमः। ५ धैवतः ११ ऋषभः। १२ गान्धरः प्रथमस्य, षडजश्चरमयोः। १३ निषादः श्च॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मने हविरर्पयति।
पदार्थः
हे (अग्ने) ज्योतिर्मय परमेश ! हे (हर्यत) कमनीय ! (मम) स्तोतुर्मदीयाः (घृताचीः) स्नेहार्द्राः तेजसा युक्ताः वा (जुह्वः) वाचः। [वाग् जुहूः। तै० आ० २।१७।२।] (त्वा) त्वाम् (उप यन्तु) प्राप्नुवन्तु। त्वम् (नः) अस्माकम् (हव्या) आत्मसमर्पणरूपाणि हव्यानि (जुषस्व) प्रेम्णा स्वीकुरु ॥२॥
भावार्थः
श्रद्धया प्रेम्णा च कृता परमात्मस्तुतिरवश्यं फलदायिनी जायते ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Beloved God, may the feelings of my heart, full of love and devotion go nigh unto Thee. May Thou accept our offerings!
Meaning
Agni, lord of beauty and bliss, let my ladles overflowing with ghrta rise and move close to you. Pray accept and enjoy our oblations and our songs. (Rg. 8-44-5)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (हर्यत अग्ने) હે ઇચ્છનીય પરમાત્મન્ ! (मम) મારી (घृताचीः) સ્નિગ્ધ સ્તુતિ વાણીઓ તથા (जुह्वः) આત્મભાવનાઓ (त्वा) તને (उपयन्तु) પ્રાપ્ત થાય; અને (नः) અમારા (हव्या जुषस्व) હવ્યો-આપવા યોગ્ય ઉપહારરૂપ શ્રવણ, મનન, નિદિધ્યાસનો શમ, દમ, સદાચરણ બન્નેનું સેવન કર-સ્વીકાર કર. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
श्रद्धा व प्रेमाने केलेली परमात्म्याची स्तुती अवश्य फलदायक होते. ॥२॥
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