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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1545
ऋषिः - भर्गः प्रागाथः
देवता - अग्निः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
2
पा꣣हि꣡ विश्व꣢꣯स्माद्र꣣क्ष꣢सो꣣ अ꣡रा꣢व्णः꣣ प्र꣢ स्म꣣ वा꣡जे꣢षु नोऽव । त्वा꣡मिद्धि नेदि꣢꣯ष्ठं दे꣣व꣡ता꣢तय आ꣣पिं꣡ नक्षा꣢꣯महे वृ꣣धे꣢ ॥१५४५॥
स्वर सहित पद पाठपा꣣हि꣢ । वि꣡श्व꣢꣯स्मात् । र꣣क्ष꣡सः꣢ । अ꣡रा꣢꣯व्णः । अ । रा꣣व्णः । प्र꣢ । स्म꣣ । वा꣡जे꣢꣯षु । नः꣣ । अव । त्वा꣢म् । इत् । हि । ने꣡दि꣢꣯ष्ठम् । दे꣣व꣡ता꣢तये । आ꣣पि꣢म् । न꣡क्षा꣢꣯महे । वृ꣡धे꣢꣯ ॥१५४५॥
स्वर रहित मन्त्र
पाहि विश्वस्माद्रक्षसो अराव्णः प्र स्म वाजेषु नोऽव । त्वामिद्धि नेदिष्ठं देवतातय आपिं नक्षामहे वृधे ॥१५४५॥
स्वर रहित पद पाठ
पाहि । विश्वस्मात् । रक्षसः । अराव्णः । अ । राव्णः । प्र । स्म । वाजेषु । नः । अव । त्वाम् । इत् । हि । नेदिष्ठम् । देवतातये । आपिम् । नक्षामहे । वृधे ॥१५४५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1545
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
आगे फिर आचार्य को कहा जा रहा है।
पदार्थ
हे अग्ने ! हे विद्वान् आचार्य ! आप (विश्वस्मात्) सब (अराव्णः) अदानशील, स्वार्थपरायण (रक्षसः) राक्षस-भाव से (पाहि) हमें बचाओ, (वाजेषु) देवासुरसङ्ग्रामों में (नः) हमारी (प्र अव स्म) रक्षा करो। (त्वाम् इत् हि) आपको ही हम (देवतातये) दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए और (वृधे) आगे बढ़ने के लिए (नेदिष्ठम्) सबसे अधिक निकट के (आपिम्) बन्धुरूप में (नक्षामहे) प्राप्त करते हैं ॥२॥
भावार्थ
आचार्य का यह कर्तव्य है कि वह शिष्यों की अन्तरात्मा में होनेवाले देवासुरसङ्ग्रामों में दिव्यभावों की विजय के लिए सहायक हो और स्वार्थ-वृत्तियों को विनष्ट करके परोपकार की वृत्तियाँ उत्पन्न करे ॥२॥ इस खण्ड में परमात्मा और आचार्य के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ पन्द्रहवें अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(विश्वस्मात्) समस्त—(रक्षसः) जिससे रक्षा की जावे उससे (अराव्णः) अनृत—असत्य के प्रशंसक असत्य मानने बोलने आचरण करनेवाले४ (नः) हमारी (वाजेषु प्र-अव स्म) कामादि के संघर्ष में हमारी रक्षा कर (देवतातये) देवों की प्राप्ति के लिए (नेदिष्ठम्) अत्यन्त निकट देव (त्वाम्-इत्-हि) तुझे ही हमें (आपिं वृधे नक्षामहे) उन्नति के लिये सम्बन्ध अपनानेवाला मानते हैं॥२॥
विशेष
<br>
विषय
जीवन की परिपक्वता
पदार्थ
हे प्रभो ! (विश्वस्मात्) = सब (रक्षसः) = अपने रमण के लिए औरों के क्षय [र+क्ष] की वृत्ति से तथा (अराव्णः) = न देने की – अदान की वृत्ति से [रा+दाने] (नः) = हमारी (पाहि) = रक्षा कीजिए । प्रभु की कृपा से हमारे अन्दर निम्न दो वृत्तियाँ कभी भी न आएँ—
१. अपने आनन्द के लिए हम औरों की हानि न करें। दूसरे को हानि पहुँचाकर अपने लाभ का विचार हममें कभी उत्पन्न न हो ।
२. हममें न देने की वृत्ति न हो। हम सदा यज्ञों को करके यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाले बनें । औरों की हानि करके अपने भोगों को बढ़ाने की तो बात ही क्या, हम अपनी आय को भी परहित में व्यय करनेवाले बनें, चाहे हमारे अपने आराम में कितनी ही कमी आ जाए।
हे प्रभो! आप (वाजेषु) = इन लोभादि शत्रुओं के साथ चल रहे संग्रामों में (नः) = हमारी (प्र अवस्म) = अवश्य रक्षा कीजिए। आपकी रक्षा में सुरक्षित होने पर ही हम इन्हें पराजित कर पाएँगे। आप ही हमारे (नेदिष्ठम्) = निकटतम (आपिम्) = बन्धु हैं | हृदय में ही निवास करने के कारण आप हमारे निकटतम बन्धु हैं । (देवतातये) = दिव्य गुणों के विस्तार के लिए (त्वाम् इत् हि) = आपको ही निश्चय से (नक्षामहे) = हम प्राप्त होते हैं, (वृधे) = जिससे दिन-प्रतिदिन हमारी वृद्धि होती चले। संक्षेप में प्रभु स्मरण से हमारा जीवन निम्न प्रकार का बनता है -
१. हमें अपने आनन्द के लिए औरों की हानि का कभी विचार भी नहीं होता ।
२. हम लोकहित के सब कार्यों के लिए दान करते हुए यज्ञशेष ही खाते हैं ।
३. लोभादि शत्रुओं से हम पराजित नहीं होते ।
४. हममें व्यसनवृक्ष के मूल लोभ के नाश से दिव्य गुणों का विस्तार होता है ।
५. सब दृष्टिकोणों से हमारी वृद्धि-ही-वृद्धि होती है।
इस प्रकार अपने जीवन में हम परिपक्व बनते हैं – हमारे जीवन का ठीक विकास होता हैऔर हम मन्त्र के ऋषि ‘भर्गः' कहलाने के योग्य होते हैं [भ्रस्ज पाके] ।
भावार्थ
प्रभु-स्मरण से हमारे जीवन का ठीक परिपाक हो।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरप्याचार्य उच्यते।
पदार्थः
हे अग्ने ! हे विद्वन् आचार्य ! त्वम् (विश्वस्मात्) सर्वस्मात् (अराव्णः) अदानशीलात् स्वार्थपरायणात् (रक्षसः) राक्षसात्, अस्मान् (पाहि) रक्ष, (वाजेषु) देवासुरसङ्ग्रामेषु (नः) अस्मान् (प्र अव स्म) प्ररक्ष। (त्वाम् इत् हि) त्वामेव खलु वयम् (देवतातये) दिव्यगुणप्राप्तये (वृधे) उन्नत्यै च (नेदिष्ठम) निकटतमम् (आपिम्) बन्धुम् (नक्षामहे) प्राप्नुमः [नक्षतिर्व्याप्तिकर्मा। निघं० २।१८] ॥२॥
भावार्थः
आचार्यस्येदं कर्तव्यं यत् स शिष्याणामन्तरात्मं जायमानेषु देवासुरसंग्रामेषु दिव्यभावानां विजयाय सहायको भवेत्, स्वार्थवृत्तीश्च विनाश्य परोपकारवृत्तीर्जनयेत् ॥२॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मन आचार्यस्य च विषयाणां वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन सङ्गतिरस्ति ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, protect us from all feelings of violence and miserliness. Succour and save us in life’s struggles. We seek the shelter of Thee, the nearest Friend of all, for our weal and that of the learned!
Meaning
Save us from all evils of the world, from all selfish grabbers. Protect us in our struggles and lead us to victory. We approach you and pray to you, closest to us, our own, for the success of our divine yajna and rising advancement in life. (Rg. 8-60-10)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (विश्वस्मात्) સમસ્ત, (रक्षसः) જેનાથી રક્ષા કરવામાં આવે તેનાથી (अराव्णः) અનૃત-અસત્યના પ્રશંસક, અસત્ય માનનાર, બોલનાર અને આચરણ કરનાર (नः) અમારી (वाजेषु प्र अव स्म) કામાદિના સંઘર્ષમાં અમારી રક્ષા કર. (देवातातये) દેવોની પ્રાપ્તિને માટે (नेदिष्ठम्) અત્યંત નજીક દેવ (त्वाम् इत् हि) તને જ અમે (आपिं वृधे नक्षामहे) ઉન્નતિ ને માટે સંબંધ રાખનાર માનીએ છીએ. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
आचार्याने हे कर्तव्य आहे, की त्याने शिष्यांच्या अंतरात्म्यामध्ये होणाऱ्या देवासुरसंग्रामात दिव्य भावांचा विजय व्हावा यासाठी सहायक व्हावे व स्वार्थ-वृत्ती नष्ट करून परोपकाराच्या वृत्ती उत्पन्न कराव्यात. ॥२॥ या खंडात परमात्मा व आचार्य यांच्या विषयांचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे
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