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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1557
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
अ꣣भि꣡ प्रया꣢꣯ꣳसि꣣ वा꣡ह꣢सा दा꣣श्वा꣡ꣳ अ꣢श्नोति꣣ म꣡र्त्यः꣢ । क्ष꣡यं꣢ पाव꣣क꣡शो꣢चिषः ॥१५५७॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣भि꣢ । प्र꣡या꣢꣯ꣳसि । वा꣡ह꣢꣯सा । दा꣣श्वा꣢न् । अ꣣श्नोति । म꣡र्त्यः꣢꣯ । क्ष꣡य꣢꣯म् । पा꣣वक꣡शो꣢चिषः । पा꣣वक꣢ । शो꣣चिषः ॥१५५७॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि प्रयाꣳसि वाहसा दाश्वाꣳ अश्नोति मर्त्यः । क्षयं पावकशोचिषः ॥१५५७॥
स्वर रहित पद पाठ
अभि । प्रयाꣳसि । वाहसा । दाश्वान् । अश्नोति । मर्त्यः । क्षयम् । पावकशोचिषः । पावक । शोचिषः ॥१५५७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1557
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि परमात्मा की स्तुति से क्या प्राप्त होता है।
पदार्थ
(दाश्वान्) आत्मसमर्पण करनेवाला (मर्त्यः) मनुष्य (वाहसा) परमेश्वर के प्रति किये गए स्तोत्र से (प्रयांसि) आनन्द-रसों को (अभि अश्नोति) पा लेता है। साथ ही (पावक-शोचिषः) पवित्रकारी ज्योतिवाले उस परमेश्वर के (क्षयम्) मोक्षधाम को भी प्राप्त कर लेता है ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य को योग्य है कि तेजस्वी जगदीश्वर की स्तुति से स्वयं भी उसके गुणों को धारण करके अभ्युदय तथा निःश्रेयस प्राप्त करे ॥२॥
पदार्थ
(दाश्वान्-मर्त्यः) आत्मदानी—आत्मसमर्पी उपासक (वाहसा) स्तुतिप्रापण—स्तुतिप्रवाह से४ (प्रयांसि) अत्यन्त प्रिय भोगों को (अभि-अश्नोति) भोगता है५ या प्राप्त करता है६ (पावक शोचिषः-क्षयम्) पवित्रकारक ज्ञानदीप्तिमान् परमात्मा अमृत निवास को—उसके अमृतभोग को भी भोगता है या प्राप्त करता है॥२॥
विशेष
<br>
विषय
पवित्रता व प्रकाश
पदार्थ
उसी विश्वामित्र का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि -
६. (दाश्वान् मर्त्यः) = देने की वृत्तिवाला मनुष्य [दाश् दाने] यह (विश्वामित्र प्रयांसि) = अन्नों कोभोजनों को [प्रयस्- food] (वाहसा) = पञ्चयज्ञों द्वारा अन्य प्राणियों को प्राप्त कराने के साथ [वह्=प्रापणे] (अभ्यश्नोति) = सब प्रकार से प्राप्त करता है । ('भूताय त्वा नारातये') किसी भी वस्तु को प्राप्त करता हुआ यह कहता है कि 'प्राणिमात्र के हित के लिए, नकि न देने के लिए मैं तुझे ग्रहण कर रहा हूँ । यह प्रभु का स्मरण करता है, परिणामतः सभी के साथ बन्धुत्व का अनुभव करता है और (‘त्यक्तेन भुञ्जीथाः') = यज्ञों द्वारा सभी को देकर बचे हुए को खाता है।
७. इस प्रकार त्यागपूर्वक उपभोग का जीवन बिताता हुआ यह (पावकशोचिष:) = पवित्र दीप्ति के (क्षयम्) = निवास-स्थान प्रभु को प्राप्त करता है, अर्थात् इसका जीवन पवित्रता व प्रकाश से परिपूर्ण हो उठता है ।
वस्तुत: प्रकाश के अभाव में मनुष्य की मनोवृत्ति प्रकृति-प्रवण होती है। प्रकृतिप्रेम के कारण वह दान नहीं दे पाता । परिग्रहशील होता चलता है । यह परिग्रहशीलता का स्वभाव पवित्र भावना का भी अन्त कर देता है और मनुष्य जैसे-तैसे धन जुटाने में जुट जाता है।
भावार्थ
हम त्यागपूर्वक उपभोग करें। हमारा जीवन पवित्रता व प्रकाश से पूर्ण हो ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मस्तुत्या किं प्राप्यत इत्याह।
पदार्थः
(दाश्वान्) आत्मसमर्पकः (मर्त्यः) मनुष्यः (वाहसा) अग्निं परमेश्वरं प्रति कृतेन स्तोत्रेण। [वाहः अभिवहनस्तुतिम्। निरु० ४।१६।] (प्रयांसि) आनन्दरसान्। [प्रयः इति उदकनाम। निघं० १।१२।] (अभि अश्नोति) प्राप्नोति। किञ्च (पावकशोचिषः) पावकदीप्तेः तस्य परमेश्वरस्य (क्षयम्) निवासं मोक्षमिति यावत् अभ्यश्नोति लभते ॥२॥२
भावार्थः
दीप्तिमतो जगदीश्वरस्य स्तुत्या स्वयमपि तद्गुणधारणेन मनुष्योऽभ्युदयं निःश्रेयसं च प्राप्तुमर्हति ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
A mortal worshipper, with the help of his soul, enjoys all eatables. He realises God, the store-house of purifying power.
Translator Comment
See Yajur 15-40.
Meaning
By virtue of the leading light of Agni, the generous man who gives in yajnic action gets his objects of desire, and from the rising flames of holy fire as by virtue of the scholars brilliance of knowledge, he gets a haven of peace. (Rg. 3-11-7)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (दाश्वान् मर्त्यः) આત્મદાની-આત્મસમર્પી ઉપાસક (वाहसा) સ્તુતિ પ્રાપણ-સ્તુતિ પ્રવાહથી (प्रयांसि) અત્યંત પ્રિય ભોગોને (अभि अश्नोति) ભોગવે છે અથવા પ્રાપ્ત કરે છે. (पावक शोचिषः क्षयम्) પવિત્રકાક જ્ઞાનપ્રકાશમાન પરમાત્મા અમૃત નિવાસને અમૃત ભોગને પણ ભોગવે છે-પ્રાપ્ત કરાવે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
माणसाने तेजस्वी जगदीश्वराच्या स्तुतीने स्वत: ही त्याच्या गुणांना धारण करून अभ्युदय व नि:श्रेयस प्राप्त करावे. ॥२॥
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