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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1569
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्य आङ्गिरसो वा
देवता - अग्निः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
2
वि꣣भू꣡ष꣢न्नग्न उ꣣भ꣢या꣣ꣳ अ꣡नु꣢ व्र꣣ता꣢ दू꣣तो꣢ दे꣣वा꣢ना꣣ꣳ र꣡ज꣢सी꣣ स꣡मी꣢यसे । य꣡त्ते꣢ धी꣣ति꣡ꣳ सु꣢म꣣ति꣡मा꣢वृणी꣣म꣡हेऽध꣢꣯ स्म नस्त्रि꣣व꣡रू꣢थः शि꣣वो꣡ भ꣢व ॥१५६९॥
स्वर सहित पद पाठविभू꣡ष꣢न् । वि꣣ । भू꣡ष꣢꣯न् । अ꣣ग्ने । उभ꣡या꣢न् । अ꣡नु꣢꣯ । व्र꣣ता꣢ । दू꣣तः꣢ । दे꣣वा꣡ना꣢म् । र꣡ज꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ । सम् । ई꣣यसे । य꣢त् । ते꣣ । धीति꣢म् । सु꣡मति꣢म् । सु꣣ । मति꣢म् । आ꣣वृणीम꣡हे꣢ । आ꣣ । वृणीम꣡हे꣢ । अ꣡ध꣢꣯ । स्म꣣ । नः । त्रिव꣡रू꣢थः । त्रि꣣ । व꣡रु꣢꣯थः । शि꣣वः꣢ । भ꣣व ॥१५६९॥
स्वर रहित मन्त्र
विभूषन्नग्न उभयाꣳ अनु व्रता दूतो देवानाꣳ रजसी समीयसे । यत्ते धीतिꣳ सुमतिमावृणीमहेऽध स्म नस्त्रिवरूथः शिवो भव ॥१५६९॥
स्वर रहित पद पाठ
विभूषन् । वि । भूषन् । अग्ने । उभयान् । अनु । व्रता । दूतः । देवानाम् । रजसीइति । सम् । ईयसे । यत् । ते । धीतिम् । सुमतिम् । सु । मतिम् । आवृणीमहे । आ । वृणीमहे । अध । स्म । नः । त्रिवरूथः । त्रि । वरुथः । शिवः । भव ॥१५६९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1569
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में गुण-कर्म-वर्णनपूर्वक परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।
पदार्थ
हे (अग्ने) जगत् के नायक, सर्वप्रकाशक परमात्मन् ! (उभयान्) पूर्वमन्त्रोक्त विद्वान् योगियों तथा सामान्य मनुष्यों दोनों को (विभूषन्) सद्गुण आदियों से अलङ्कृत करते हुए, (देवानाम्) विद्वानों को (दूतः) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्राप्त करानेवाले आप (व्रता अनु) अपने नियमों का अनुसरण करते हुए (रजसी) द्यावापृथिवी को (समीयसे) व्याप्त करते हो। (यत्) क्योंकि (ते) आपकी (धीतिम्) धारणा वा ध्यान को और (सुमतिम्) सुमति को (आ वृणीमहे) हम प्राप्त करते हैं, (अध) इसलिए (त्रिवरुथः) पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौ, तीनों में घर के समान निवास करनेवाले अथवा आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों दुःखो को दूर करनेवाले आप (नः) हमारे लिए (शिवः) मङ्गलकारी (भव स्म) होओ ॥३॥
भावार्थ
ध्यान किया गया परमेश्वर उपासकों को सुख-शान्ति देता है ॥३॥
पदार्थ
(अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! (उभयान्) दोनों जीवन्मुक्तों तथा साधारण उपासकजनों को (व्रता-‘व्रतानि’ अनु) कर्मों के१ अनुरूप (विभूषन् ‘विभूषयन्’) विविधरूप से पुरस्कृत करता है। परन्तु (देवानां दूतः) मुमुक्षुओं जीवन्मुक्तों का प्रेरक—मोक्ष में प्रेरित करने वाला है (रजसी समीयसे) उन्हें तू दोनों दिनों२ में या दोनों लोकों में३ प्राप्त रहता है (यत् ते) तेरी (धीतिं सुमतिम्-आवृणीमहे) धारणा ध्यान क्रिया को कल्याणकारी मति—अर्चना को हम अपनाते हैं (अध) अनन्तर—तव (नः) हमारे लिये तू (त्रिवरूथः शिवः-भव स्म) तृतीय४ घर५ मोक्षधाम वाला कल्याणस्वरूप हो—होता है॥३॥
विशेष
<br>
विषय
[त्रि- वरूथ = कवचत्रयी ]
पदार्थ
हे (अग्ने) = सारे ब्रह्माण्ड को गति देनेवाले प्रभो ! (उभयान्) = दोनों (अनुव्रता) = अनुकूल व्रतोंवाले– वेदोपदिष्ट कर्मों को करनेवाले देवों व मनुष्यों को (विभूषन्) = विभूतियुक्त करते हुए तथा (देवानां दूतः) = देवताओं को कष्टाग्नि में सन्तप्त करके चमकानेवाले आप (रजसी) = द्युलोक व पृथिवीलोक में (समीयसे) = सम्यक् गति करते हैं।
सन्मार्ग में चलनेवाले सभी को प्रभु विभूति व ऐश्वर्य प्राप्त कराते हैं। विशेषकर दिव्य वृत्तिवालों को कष्टाग्नि में सन्तप्त कर खूब ही उज्ज्वल बना देते हैं । इस सारे द्युलोक व पृथिवीलोक में उस प्रभु की ही सारी क्रीड़ा हो रही है । वे प्रभु ही सबको दे रहे हैं ।
हे प्रभो ! (यत्) = जब (ते) = आपके (धीतिम्) = ध्यान को तथा (सुमतिम्) = कल्याणी मति को आवृणीमहे हम वरते हैं तो (अध) = अब आप (नः) = हमारे लिए (त्रिवरूथः) = तीन कवचोंवाले (शिवः) = कल्याणकारी (भव स्म) = अवश्य होओ । प्रभु के त्रिवरूथ से – तीन कवचों से - सुरक्षित होनेपर हमारे शरीर रोगों से, हमारे मन अशुभ वृत्तियों से तथा हमारी बुद्धियाँ कुण्ठता व कुविचार से आक्रान्त नहीं होते। नीरोग शरीर, शिव सङ्कल्प मन व तीव्र बुद्धिवाले होकर हम अपने सच्चे कल्याण का सम्पादन करते हैं। शरीर में हम भरद्वाज-शक्ति-सम्पन्न बनते हैं, मनों में हम वीतहव्य= पवित्र पदार्थों का ही प्रयोग करने की प्रवृत्तिवाले और मस्तिष्क में बार्हस्पत्य-ऊँचे-से-ऊँचा ज्ञानी होते हैं।
भावार्थ
हम प्रभु के ध्यान व शुभ मति का वहन करें ।
टिप्पणी
नोट – यहाँ ‘उभयान्' शब्द सकाम व निष्काम कर्म करनेवाले मनुष्यों व देवों का वाचक है । सकाम कर्म करनेवाले स्वर्गादि के ऐश्वर्य का उपभोग करते हैं, निष्काम कर्मवाले सांसारिक भोगों से विरत होने से ब्रह्मानन्द का उपभोग करते हैं। इन्हें तीव्र कष्टों की परीक्षाओं से गुज़रना पड़ता है।
विषय
missing
भावार्थ
हे (अग्ने) प्रभो ! (उभयान्) बद्ध और मुक्त दोनों प्रकार के जीवों को (विभूषन्) अपनी विभूतियों से सुशोभित करता हुआ तू (अनु व्रता) समस्त यज्ञों में (देवानां) देवगण, दिव्य पदार्थों, एवं मुक्त जीवों को (दूतः) साक्षात् प्राप्त और उन के प्रति नाना ज्ञानप्रकाशक होकर (रजसी) समस्त द्यौ और पृथिवी लोकों में (समीयसे) व्यापक रहता है। (यत्) क्योंकि हम (ते) तेरी ही (सुमतिं) उत्तम स्तुति और (धीतिं) ध्यान (आवृणीमहे) करते हैं (अध) (अध) और तू (त्रिवरूथः) उत्पादक, पालक और संहारक तीन रूप का हो कर (शिवः) हमारा कल्याणकारी (भव स्म) हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ११ गोतमो राहूगणः। २, ९ विश्वामित्रः। ३ विरूप आंगिरसः। ५, ६ भर्गः प्रागाथः। ५ त्रितः। ३ उशनाः काव्यः। ८ सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतरः । १० सोभरिः काण्वः। १२ गोपवन आत्रेयः १३ भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा। १४ प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपति यविष्ठौ ससुत्तौ तयोर्वान्यतरः॥ अग्निर्देवता। छन्दः-१-काकुभम्। ११ उष्णिक्। १२ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री चरमयोः। १३ जगती॥ स्वरः—१-३, ६, ९, १५ षड्जः। ४, ७, ८, १० मध्यमः। ५ धैवतः ११ ऋषभः। १२ गान्धरः प्रथमस्य, षडजश्चरमयोः। १३ निषादः श्च॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ गुणकर्मवर्णनपूर्वकं परमात्मानं प्रार्थयते।
पदार्थः
हे (अग्ने) जगन्नेतः सर्वप्रकाशक परमात्मन् ! (उभयान्) द्रव्यान् पूर्वमन्त्रोक्तान्, देवान् मनुष्यान् योगिजनान् सामान्यजनांश्चेत्यर्थः (विभूषन्) सद्गुणादिभिरलङ्कुर्वन्, (देवानाम्) विदुषाम् दूतः धर्मार्थकाममोक्षान् दावयति प्रापयति यः सः त्वम्। [दु गतौ भ्वादिरत्र णिजन्तः।] (व्रता अनु) स्वकीयान् नियमान् अनुसरन् त्वं द्यावापृथिव्यौ (समीयसे) व्याप्नोषि। (यत्) यस्मात् (ते) तव (धीतिम्) धारणां ध्यानं वा, (सुमतिम्) शोभनां मतिम् (आवृणीमहे) वयं संभजामहे, (अध) तस्मात् (त्रिवरूथः) त्रयः पृथिव्यन्तरिक्षद्युलोकाः वरूथानि गृहाणि निवासस्थानानि यस्य सः सर्वव्यापकः इत्यर्थः। [वरूथमिति गृहनाम। निघं० ३।४।] यद्वा त्रयाणाम् आध्यात्मिकाधिदैविकाधिभौतिकदुःखानां वरूथः निवारकः त्वम्। [वृञ् वरणे स्वादिः, वृण् आवरणे चुरादिः ‘जॄवृञ्भ्यामूथन्’ उ० २।६ इति ऊथन् प्रत्ययः।] (नः) अस्मभ्यम् (शिवः) मङ्गलकरः (भव स्म) जायस्व ॥३॥२
भावार्थः
ध्यातः परमेश्वर उपासकानां सुखशान्तिप्रदो जायते ॥३॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, adorning both the emancipated and confined souls with Thy superhuman power, in all acts of benevolence, manifesting Thyself to seekers after salvation, Thou pervadest the Earth and Heaven. We lay claim to Thy regard and gracious care. May Thou as the Creator, Sustainer, and Dissolver of the universe be kind unto us !
Meaning
Agni, lord beatific, purifying fire, gracious to both wise and innocent according to your eternal law, self-refulgent light giver for the brilliant and generous, you pervade heaven and earth with your saving presence. As we meditate on your holy light and vision of knowledge, in consequence by your grace be kind and good to us, O lord of three worlds, omnipresent, omniscient and omnificent. (Rg. 6-15-9)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अग्ने) હે જ્ઞાન પ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (उभयान्) બન્ને જીવન મુક્તો તથા સાધારણ ઉપાસકજનોને (व्रता "व्रतानि" अनु) કર્મને અનુસાર (विभूषन् "विभूषयन्") વિવિધ રૂપથી પુરસ્કૃત કરે છે, પરંતુ (देवानां दूतः) મુમુક્ષુઓ જીવન મુક્તોનો પ્રેરક-મોક્ષમાં પ્રેરિત કરનાર છે. (रजसी समीयसे) તેઓને તું પ્રતિદિનમાં અથવા બન્ને લોકોમાં પ્રાપ્ત રહે છે. (यत् ते) તારી (धीतिं सुमतिम् आवृणीमहे) ધારણા ધ્યાન ક્રિયાને કલ્યાણકારી મતિ-અર્ચનાને અમે અપનાવીએ છીએ, (अध) અનન્તર-ત્યારે (नः) અમારે માટે તું (त्रिवरूथः शिवः भव स्म) ત્રીજું ઘર મોક્ષધામવાળું કલ્યાણ સ્વરૂપ બને-બને છે. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
ध्यान केलेला परमेश्वर उपासकांना सुखशांती देतो. ॥३॥
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