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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1574
    ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    2

    अ꣣स्ये꣡दिन्द्रो꣢꣯ वावृधे꣣ वृ꣢ष्ण्य꣣ꣳश꣢वो꣣ म꣡दे꣢ सु꣣त꣢स्य꣣ वि꣡ष्ण꣢वि । अ꣣द्या꣡ तम꣢꣯स्य महि꣣मा꣡न꣢मा꣣य꣡वोऽनु꣢꣯ ष्टुवन्ति पू꣣र्व꣡था꣢ ॥१५७४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣स्य꣡ । इत् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । वा꣣वृधे । वृ꣡ष्ण्य꣢꣯म् । श꣡वः꣢꣯ । म꣡दे꣢꣯ । सु꣣त꣡स्य꣢ । वि꣡ष्ण꣢꣯वि । अ꣡द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । तम् । अ꣣स्य । महिमा꣡न꣢म् । आ꣣य꣡वः꣢ । अ꣡नु꣢꣯ । स्तु꣣वन्ति । पूर्व꣡था꣢ ॥१५७४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्येदिन्द्रो वावृधे वृष्ण्यꣳशवो मदे सुतस्य विष्णवि । अद्या तमस्य महिमानमायवोऽनु ष्टुवन्ति पूर्वथा ॥१५७४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अस्य । इत् । इन्द्रः । वावृधे । वृष्ण्यम् । शवः । मदे । सुतस्य । विष्णवि । अद्य । अ । द्य । तम् । अस्य । महिमानम् । आयवः । अनु । स्तुवन्ति । पूर्वथा ॥१५७४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1574
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर गुरु-शिष्य का ही विषय कहते हैं।

    पदार्थ

    (इन्द्रः) विद्या के ऐश्वर्य से युक्त आचार्य (अस्य) इस शिष्य के (वृष्ण्यम्) आत्मिक (शवः) बल को (इत्) निश्चय ही (वावृधे) बढ़ाता है। वह शिष्य (सुतस्य) प्राप्त ज्ञान के (विष्णवि) व्यापक (मदे) आनन्द में वृद्धि को प्राप्त करता है। (अस्य) इस आचार्य की (तम् महिमानम्) उस महिमा की (आयवः) मनुष्य (पूर्वथा) पूर्व की तरह (अद्य) आज भी (अनुष्टुवन्ति) प्रशंसा करते हैं ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    आचार्य शिष्य का जो आत्मबल बढ़ाता है वह उस शिष्य की अपूर्व निधि होती है ॥२॥

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    पदार्थ

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (अस्य सुतस्य विष्णवि मदे इत्) उपासक द्वारा प्रस्तुत किए इस पूर्वपान निष्पन्न भारी उपासनारस के व्यापने वाले हर्ष में—हर्ष के निमित्त कृपालु हो जाने पर ही (वृषणं शवः-वावृधे) उपासक के सुखवर्षण योग्यबल को४ बढ़ाता है, अतः (अद्य-आयवः) आज—अब उपासकजन५ (पूर्वथा) पूर्व—पहिले उपासकों के समान उनकी परम्परा में (अस्य) इस इन्द्र—परमात्मा की (महिमानम्) महिमा की (अनुष्टुवन्ति) परम्परागत वैसी ही स्तुति करते हैं॥२॥

    विशेष

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    विषय

    सर्वोत्तम स्तुति

    पदार्थ

    (इन्द्रः) = सोमपान करनेवाला जीव (वृष्ण्यं शव:) = सब सुखों के वर्षक बल को - अङ्ग-प्रत्यङ्ग को, शक्तिशाली बनानेवाले बल को, (अस्य सुतस्य) = इस शरीर में उत्पन्न सोम को, (विष्णवि) = सारे शरीर में या सारे जीवन में व्याप्त होनेवाले (मदे) = उल्लास के निमित्त (इत्) = ही (वावृधे) = खूब बढ़ाता है ।

    जब इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनकर एक व्यक्ति अपने इन्द्र नाम को चरितार्थ करता है और जीवन के तीनों सवनों में, अर्थात् बाल्य, यौवन व वार्धक्य में सोम का पान करता है, अपनी वीर्यशक्ति की रक्षा करता है तब इसका अङ्ग-प्रत्यङ्ग बड़ा दृढ़ बना रहता है और वह सुखी जीवनवाला होता है। अद्य-आज, अर्थात् सोमपान करनेवाले दिन ही (अस्य) = इस प्रभु की (तं महिमानम्) = उस प्रसिद्ध महिमा को, वीर्यादि अद्भुत वस्तुओं के निर्माण के माहात्म्य को, (आयवः) = क्रियाशील मनुष्य (पूर्वथा अनु स्तुवन्ति) = सर्वोत्तम प्रकार से [ In a first class manner] स्तुति करते हैं । प्रभु की महिमा के गायन का इससे उत्तम और क्या प्रकार हो सकता है कि हम उस प्रभु से दी गई सर्वोत्तम वस्तु को शरीर में सुरक्षित करके जीवन के अन्त तक सुदृढ़ शरीरवाले बने रहें । यही (पूर्वथा) = सर्वोत्तम प्रकार की स्तुति है ।

    भावार्थ

    हम उस प्रभु के सर्वोत्तम स्तोता बनें ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (इन्द्रः) इन्द्र (अस्य इत्) इस ही (सुतस्य) उत्पादित सोमरूप आत्मानन्द के (विष्णवि) व्यापक (मदे) आनन्द, हर्ष में (वृष्ण्यं) सुखों के वर्षक (शवः) बल को (वावृधे) बढ़ा लेता है। (आयवः) मनुष्य आयु में बद्ध जीवगण और ज्ञानवान् पुरुष (पूर्वथा) पूर्व के समान (अद्य) आज भी (अस्य) इस आत्मा के (तं) उस (महिमानं) महान् सामर्थ्य को (अनुष्टुबन्ति) वर्णन करते हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ८, १८ मेध्यातिथिः काण्वः। २ विश्वामित्रः। ३, ४ भर्गः प्रागाथः। ५ सोभरिः काण्वः। ६, १५ शुनःशेप आजीगर्तिः। ७ सुकक्षः। ८ विश्वकर्मा भौवनः। १० अनानतः। पारुच्छेपिः। ११ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः १२ गोतमो राहूगणः। १३ ऋजिश्वा। १४ वामदेवः। १६, १७ हर्यतः प्रागाथः देवातिथिः काण्वः। १९ पुष्टिगुः काण्वः। २० पर्वतनारदौ। २१ अत्रिः॥ देवता—१, ३, ४, ७, ८, १५—१९ इन्द्रः। २ इन्द्राग्नी। ५ अग्निः। ६ वरुणः। ९ विश्वकर्मा। १०, २०, २१ पवमानः सोमः। ११ पूषा। १२ मरुतः। १३ विश्वेदेवाः १४ द्यावापृथिव्यौ॥ छन्दः—१, ३, ४, ८, १७-१९ प्रागाथम्। २, ६, ७, ११-१६ गायत्री। ५ बृहती। ९ त्रिष्टुप्। १० अत्यष्टिः। २० उष्णिक्। २१ जगती॥ स्वरः—१, ३, ४, ५, ८, १७-१९ मध्यमः। २, ६, ७, ११-१६ षड्जः। ९ धैवतः १० गान्धारः। २० ऋषभः। २१ निषादः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि गुरुशिष्यविषयो वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (इन्द्रः) विद्यैश्वर्यवान् आचार्यः (अस्य) शिष्यस्य (वृष्ण्यम्) वृषा आत्मा तत्र भवम् (शवः) बलम् (इत्) निश्चयेन (वावृधे) वर्द्धयति। स शिष्यः (सुतस्य) प्राप्तस्य ज्ञानस्य (विष्णवि२) व्यापके (मदे) आनन्दे वर्धते (अस्य) इन्द्रस्य आचार्यस्य (तम् महिमानम्) तत् महत्त्वम् (आयवः) मनुष्याः (पूर्वथा) पूर्वस्मिन् काल इव। [अत्र ‘प्रत्नपूर्व- विश्वेमात्थाल् छन्दसि’ अ० ५।३।१११ इति इवार्थे थाल् प्रत्ययः।] (अद्य) अद्यापि। [संहितायां निपातत्वाद् दीर्घः] (अनुष्टुवन्ति) प्रशंसन्ति ॥२॥३ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    आचार्यः शिष्यस्य यदात्मबलं वर्द्धयति तत् तस्यापूर्वो निधिः ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    God develops the happiness -bestowing strength, for the full bodily enjoyment of the soul. Living men today, even as of old, sing forth their praise to His Majesty.

    Translator Comment

    $ One mighty deed means Yoga Samadhi. Ninety means the innumerable previous births the soul had before attaining to salvation through Yoga. Ninety can also be thus explained. There are six seasons, ten Pranas, ten Organs, Manas, Buddhi, Chitta, Ahankar (constituting the Anta-Karan) (अन्तःकरण). These thirty with reference to three gunas (सत्य, रजस्, तपस्,) become ninety. Pt. Jaidev Vidyalankar explains these ninety forts like this: There are ten organs. Taking into consideration their differences with respect to Satva, Rajas and Tamas make them thirty, which become ninety with reference to three Koshas (sheaths) अन्नमय, प्राणमय, मनोमय. Griffith explains ninety forts as the countless strongholds of the barbarians or non-Aryan inhabitants of the country. This explanation is untenable as it smacks of history in the Vedas which are free from it.

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    Meaning

    In the ecstasy of this soma success of achievement through the yajnic programme, Indra augments the strength and enthusiasm of this host and master of the programme, while now as ever before, the people appropriately adore and exalt the greatness of this lord. (Rg. 8-3-8)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्रः) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા (अस्य सुतस्य विष्णवि मदे इत्) ઉપાસક દ્વારા પ્રસ્તુત કરેલ એ પૂર્વપાન નિષ્પન્ન મહાન ઉપાસનારસને વ્યાપનાર હર્ષમાં-હર્ષને માટે કૃપાળુ બની જતાં (वृषणं शवः वावृधे) ઉપાસકનાં સુખવર્ષણ યોગ્ય બળની વૃદ્ધિ કરે છે, તેથી (अद्य आयवः) આજ-અત્યારે ઉપાસકજન (पूर्वथा) પૂર્વ-પૂર્વના ઉપાસકોની સમાન તેની પરંપરાથી (अस्य) એ ઇન્દ્રની પરમાત્માની (महिमानम्) મહિમાને (अनुष्टुवन्ति) પરંપરાગત-પરાપૂર્વથી તેવીજ સ્તુતિ ગાન કરે છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आचार्य शिष्याचे आत्मबल वाढवितो ती त्या शिष्याची अपूर्व निधी असते. ॥२॥

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