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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1580
ऋषिः - भर्गः प्रागाथः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
2
पौ꣣रो꣡ अश्व꣢꣯स्य पुरु꣣कृ꣡द्गवा꣢꣯मस्यु꣡त्सो꣢ देव हि꣣रण्य꣡यः꣢ । न꣢ कि꣣र्हि꣡ दानं꣢꣯ परि꣣म꣡र्धि꣢ष꣣त् त्वे꣢꣫ यद्य꣣द्या꣢मि꣣ त꣡दा भ꣢꣯र ॥१५८०॥
स्वर सहित पद पाठपौ꣣रः꣢ । अ꣡श्व꣢꣯स्य । पु꣣रुकृ꣢त् । पु꣣रु । कृ꣢त् । ग꣡वा꣢꣯म् । अ꣣सि । उ꣡त्सः꣢꣯ । उत् । सः꣣ । देव । हिरण्य꣡यः꣢ । न । किः꣣ । हि꣢ । दा꣡न꣢꣯म् । प꣣रिम꣡र्धि꣢षत् । प꣣रि । म꣡र्धि꣢꣯षत् । त्वे꣡इति꣢ । य꣡द्य꣢꣯त् । यत् । य꣣त् । या꣡मि꣢꣯ । तत् । आ । भर꣣ ॥१५८०॥
स्वर रहित मन्त्र
पौरो अश्वस्य पुरुकृद्गवामस्युत्सो देव हिरण्ययः । न किर्हि दानं परिमर्धिषत् त्वे यद्यद्यामि तदा भर ॥१५८०॥
स्वर रहित पद पाठ
पौरः । अश्वस्य । पुरुकृत् । पुरु । कृत् । गवाम् । असि । उत्सः । उत् । सः । देव । हिरण्ययः । न । किः । हि । दानम् । परिमर्धिषत् । परि । मर्धिषत् । त्वेइति । यद्यत् । यत् । यत् । यामि । तत् । आ । भर ॥१५८०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1580
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा की स्तुति और उससे प्रार्थना है।
पदार्थ
हे इन्द्र ! हे परमैश्वर्यशाली जगदीश्वर ! आप (अश्वस्य) सूर्य वा प्राण को (पौरः) पूर्ण करनेवाले (गवाम्) सूर्यकिरणों, पृथिवियों, इन्द्रियों वा धेनुओं की (बहुकृत्) बहुतायत करनेवाले (असि) हो। हे (देव) दान आदि गुणों से युक्त ! आप सम्पदाओं के (हिरण्ययः) ज्योतिर्मय (उत्सः) स्रोत हो। (त्वे) आपमें विद्यमान (दानम्) दान के गुण को (न किः हि) कोई भी नहीं (परि मर्धिषत्) नष्ट कर सकता है। इसलिए मैं (यत् यत्) जो-जो (यामि) आपसे माँगता हूँ (तत्) वह (आभर) मुझे प्रदान कर दो ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा की कृपा से और अपने पुरुषार्थ से मनुष्य सारी दिव्य और लौकिक सम्पदा प्राप्त कर सकता है ॥२॥
पदार्थ
(देव) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मदेव! तू उपासकों के (अश्वस्य पौरः) व्यापनशील मनोरूप पुर्—पुरी१२ का वासी—स्वामी है (गवां पुरस्कृत-असि) इन्द्रियों का पुरस्कर्ता—सदुपयोगदाता है (हिरण्ययः-उत्सः) अमृत१३ भरा कूँवा है१४ (दानं न किः-हि परि मर्धिषत्) तेरे दान को कोई नहीं नष्ट कर सकता या परिहृत नहीं कर सकता१ (त्वे यत्-यत्-यामि) तेरे में तेरे पास जो जो दान देने योग्य हैं उन्हें मैं उपासक माँगता हूँ२ (तत्-आभर) उसे आभरित कर—समन्तरूप से प्रदान कर॥२॥
विशेष
<br>
विषय
हिरण्यय उत्स
पदार्थ
प्रभु का अनुयायी बनकर मनुष्य तेजस्वी बनता है – तेजस्वी क्या वह 'भर्ग: '= तेज ही बन जाता है। यह प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे प्रभो! आप मेरी (अश्वस्य) = कर्मेन्द्रियों का (पौर:) = पूरण करनेवाले हो तथा (गवाम् पुरुकृत् असि) = ज्ञानेन्द्रियों की भी पूर्णता करनेवाले हो । ‘घोड़ों और गौवों को देनेवाले हो' यह अर्थ भी सङ्गत ही है। घोड़े शक्ति के प्रतीक हैं और गौवें ज्ञान की । प्रभु मेरी कर्मेन्द्रियों को सशक्त बनाते हैं और ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञान से भरपूर । हे (देव) = ज्ञान से दीप्त प्रभो ! आप तो (हिरण्ययः उत्सः) = ज्ञानमय स्रोत हो । ज्ञान के उस स्रोतरूप प्रभु से निरन्तर ज्योति का प्रवाह चलता है और मेरे जीवन को द्योतित करता है ।
हे प्रभो ! (त्वे दानम्) = आपके इस ज्योतिर्दान को (हि) = निश्चय से (न किः परिमर्धिषत्) = कोई भी नष्ट नहीं कर सकता । प्रभु से दी गयी ज्योति को मुझसे कौन छीन सकता है ? हे प्रभो ! (यत् यत् यामि) = मैं, आपका सच्चा भक्त बनकर, जो कुछ माँगता हूँ (तत् आभार) = उसे आप मुझे प्राप्त कराइए ।
भावार्थ
प्रभु ज्योति के स्रोत हैं, उस स्रोत में स्नान कर मैं अधिक से अधिक निर्मल व तेजस्वी बनूँ।
विषय
missing
भावार्थ
हे देव ! परमात्मन् ! आप (अश्वस्य पारः) भोक्ता जीव के पूर्ण एवं पालन करने हारे और (गवां) इन्द्रियों के भी (पुरुकृत्) पूर्ण करने हारे हैं। अर्थात् आपने भोक्ता जीव को भोग साधन देकर पूर्ण किया है और इन्द्रियों को रूप आदि भोग्य विषय देकर पूर्ण किया है और (हिरण्ययः) मन हरण करने हारे सुवर्ण के समान तेजों से बने हितकारी और रमणीक (उत्सः) कूप के समान सब आनन्दरसों के आश्रय अथवा तेजोमय पदार्थों का उत्पादन करने हारे उनके कारणरूप हैं। आपके लिये आत्मा और इन्द्रियों के भोग्य सुखजनक पदार्थ उत्पन्न करना क्या बड़ी बात है। हे परमात्मन् ! (ते) आपके दिये (दानं) दान को (नकिः परिमर्धिषत्) कोई भी नाश नहीं कर सकता। आपसे मैं (यद् यद्) जो जो (यामि) याचना करता हूं वह वह (आभर) प्राप्त कराइये।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ८, १८ मेध्यातिथिः काण्वः। २ विश्वामित्रः। ३, ४ भर्गः प्रागाथः। ५ सोभरिः काण्वः। ६, १५ शुनःशेप आजीगर्तिः। ७ सुकक्षः। ८ विश्वकर्मा भौवनः। १० अनानतः। पारुच्छेपिः। ११ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः १२ गोतमो राहूगणः। १३ ऋजिश्वा। १४ वामदेवः। १६, १७ हर्यतः प्रागाथः देवातिथिः काण्वः। १९ पुष्टिगुः काण्वः। २० पर्वतनारदौ। २१ अत्रिः॥ देवता—१, ३, ४, ७, ८, १५—१९ इन्द्रः। २ इन्द्राग्नी। ५ अग्निः। ६ वरुणः। ९ विश्वकर्मा। १०, २०, २१ पवमानः सोमः। ११ पूषा। १२ मरुतः। १३ विश्वेदेवाः १४ द्यावापृथिव्यौ॥ छन्दः—१, ३, ४, ८, १७-१९ प्रागाथम्। २, ६, ७, ११-१६ गायत्री। ५ बृहती। ९ त्रिष्टुप्। १० अत्यष्टिः। २० उष्णिक्। २१ जगती॥ स्वरः—१, ३, ४, ५, ८, १७-१९ मध्यमः। २, ६, ७, ११-१६ षड्जः। ९ धैवतः १० गान्धारः। २० ऋषभः। २१ निषादः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मानं स्तौति प्रार्थयते च।
पदार्थः
हे इन्द्र ! हे परमैश्वर्यशालिन् जगदीश्वर ! त्वम् (अश्वस्य) आदित्यस्य प्राणस्य वा (पौरः) पूरयिता, (गवाम्) सूर्यकिरणानां पृथिवीनाम् इन्द्रियाणां धेनूनां वा (पुरुकृत्) बहुकृत् (असि) विद्यसे। हे (देव) दानादिगुणयुक्त ! त्वं सम्पदाम् (हिरण्ययः) ज्योतिर्मयः (उत्सः) स्रोतः असि। (त्वे) त्वयि विद्यमानम् (दानम्) दानगुणम् (न किः हि) न कश्चिदपि (परि मर्धिषत्) हिंसितुं शक्नोति। अतः, अहम् (यत् यत्) यत् किञ्चिदपि (यामि) याचामि। [यामि इति याच्ञाकर्मसु पठितम्। निघं० ३।१९।] (तत्) तत् सर्वम् (आ भर) मह्यम् आहर ॥२॥
भावार्थः
परमात्मनः कृपया स्वपुरुषार्थेन च मनुष्यः सर्वामपि दिव्यां लौकिकीं च सम्पदं प्राप्तुं शक्नोति ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, Thou art the Increaser of our horse-like power of action, and the Multiplier of our kine-like power of organs of knowledge. Thou art full of refulgence, and deep like the well. None can impair Thy gift. Bring me whatever thing I ask for!
Meaning
You are the sole One omnipresent citizen of the universe, creator of all lands, cows, lights and knowledges of the world, maker of the motions, ambitions, advancements and achievements of nature and humanity, fountain head of universal joy, and golden refulgent generous lord supreme. No one can ever impair or obstruct your gifts to humanity. O lord, I pray, bring us whatever we ask for. (Rg. 8-61-6)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાથ : (देव) હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મદેવ ! તું ઉપાસકોના (अश्वस्य पौरः) વ્યાપનશીલ મનોરૂપ પુર પુરીનો વાસી-સ્વામી છે. (गवां पुरस्कृत असि) ઇન્દ્રિયોનો પુરસ્કર્તા-સદુપયોગદાતા છે. (हिरण्ययः उत्सः) અમૃત ભરેલ કૂવો છે. (दानं न किः हि परि मर्धिषत्) તારા દાનનો કોઈ નાશ કરી શકતું નથી અથવા પરિહત કરી શકતું નથી. (त्वे यत् यत् यामि) તારામાં તારી પાસે જે જે દાન આપવા યોગ્ય છે તેને હું ઉપાસક માગું છું. (तत् आभर) તેને આભરિત કર-સમગ્રરૂપથી પ્રદાન કર. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या कृपेने व आपल्या पुरुषार्थाने माणूस संपूर्ण दिव्य व लौकिक संपदा प्राप्त करू शकतो. ॥२॥
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