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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1584
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - अग्निः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
2
अ꣢श्व꣣ न꣢ गी꣣र्भी꣢ र꣣꣬थ्य꣢꣯ꣳ सु꣣दा꣡न꣢वो मर्मृ꣣ज्य꣡न्ते꣢ देव꣣य꣡वः꣢ । उ꣣भे꣢ तो꣣के꣡ तन꣢꣯ये दस्म विश्पते꣣ प꣢र्षि꣣ रा꣡धो꣢ म꣣घो꣡ना꣢म् ॥१५८४॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡श्व꣢꣯म् । न । गी꣣र्भिः꣢ । र꣣थ्यम्꣢ । सु꣣दा꣡न꣢वः । सु꣣ । दा꣡न꣢꣯वः । म꣣र्मृज्य꣡न्ते꣢ । दे꣣वय꣡वः꣢ । उ꣣भे꣡इति꣢ । तो꣣के꣡इति꣢ । त꣡न꣢꣯ये । द꣣स्म । विश्पते । प꣡र्षि꣢꣯ । रा꣡धः꣢꣯ । म꣣घो꣡ना꣢म् ॥१५८४॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्व न गीर्भी रथ्यꣳ सुदानवो मर्मृज्यन्ते देवयवः । उभे तोके तनये दस्म विश्पते पर्षि राधो मघोनाम् ॥१५८४॥
स्वर रहित पद पाठ
अश्वम् । न । गीर्भिः । रथ्यम् । सुदानवः । सु । दानवः । मर्मृज्यन्ते । देवयवः । उभेइति । तोकेइति । तनये । दस्म । विश्पते । पर्षि । राधः । मघोनाम् ॥१५८४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1584
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा और आचार्य का विषय है।
पदार्थ
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (देवयवः) दिव्य गुणों की कामनावाले (सुदानवः) भली-भाँति आत्मसमर्पण करनेवाले उपासक (रथ्यम् अश्वं न) रथ को खींचनेवाले घोड़े के समान (रथ्यम्) ब्रह्माण्ड-रथ को खींचनेवाले परमात्मा को (गीर्भिः) स्तुति-वाणियों से (मर्मृज्यन्ते) अलङ्कृत करते हैं और प्रार्थना करते हैं कि हे (दस्म) दर्शनीय (विश्पते) प्रजापति परमात्मन् ! आप हमारे (तोके तनये) पुत्र-पौत्रों (उभे) दोनों में (मघोनाम्) धनियों के (राधः) धन के समान (राधः) अध्यात्मधन को, भौतिक धन को और सफलता को (पर्षि) सींचो, बहुत रूप में प्रदान करो ॥ द्वितीय—आचार्य के पक्ष में। (देवयवः) अपने पुत्रों को विद्वान् बनाना चाहते हुए (सुदानवः) उत्तम दानी गृहस्थ लोग (रथ्यम् अश्वं न) रथ को खींचनेवाले घोड़े के समान (रथ्यम्) विद्या-रूप रथ को चलानेवाले आचार्य को (गीर्भिः) प्रशंसा-वचनों से (मर्मृज्यन्ते) अलङ्कृत करते हैं और कहते हैं कि हे (दस्म) दोषों को दूर करनेवाले, (विश्पते) शिष्य रूप प्रजाओं के पालक आचार्य ! आप हमारे (तोके तनये) पुत्र और पौत्र (उभे) दोनों में (मघोनाम्) विद्या-धन के धनी गुरुजनों के (राधः) विद्यारूप धन को (पर्षि) सींचो, बहुत रूप में प्रदान करो ॥२॥ इस मन्त्र में उपमा और श्लेष अलङ्कार हैं ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा और आचार्य की कृपा से हमारी सन्तानें परमेश्वर-पूजक, पुरुषार्थी, विद्यावान् और धार्मिक हों ॥२॥ इस खण्ड में गुरु-शिष्य, परमात्मा-जीवात्मा और मनुष्य के उद्बोधन के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ सोलहवें अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(विश्पते दस्म) हे हम उपासक प्रजाओं के पालक एवं दर्शनीय८ (रथ्यम्-अश्वं व) रथवहन योग्य समर्थ घोड़े के समान तुझ संसारवाहक को (गीर्भिः) स्तुतियों द्वारा (देवयवः सुदानवः) तुझ देव को चाहने वाले शोभनदान—आत्मदान—आत्मसमर्पण करने वाले उपासक (मर्मृज्यन्ते) भलीभाँति अलङ्कृत पूजित या प्राप्त किया करते हैं९ (उभये तोके तनये) दोनों रूप पुत्र और पौत्र—पुरातन और नवीन उपासक के अन्दर (मघोनां राधः पर्षि) ज्ञानधन वाले अध्यात्म धन वाले उपासकों का जो धन हुआ करता है उसे पूरित करता१० भरता है॥२॥
विशेष
<br>
विषय
आत्म-शोधन
पदार्थ
(सुदानवः) = उत्तम दान देनेवाले तथा (देवयव:) = दिव्य गुणों को अपने साथ जोड़ने की कामनावाले (गीर्भिः) = वेदवाणियों के द्वारा रथ्यं अश्वं न रथ को खींचने में साधु अश्व के समान अपने को (मर्मृज्यन्ते) = खूब ही शुद्ध करते हैं।
आत्म-शुद्धि के लिए 'दान' और 'दिव्य गुणों की कामना' ये दोनों ही बातें आवश्यक हैं। तीसरी बात आत्मशोधन वेदवाणियों के द्वारा होता है, अर्थात् आत्मशोधन के लिए स्वाध्याय भी
उतना ही आवश्यक है । इन तीन बातों के अतिरिक्त आत्मशुद्धि के लिए यह विचार भी सहायक होता है कि मुझे रथ में जुते हुए घोड़े के समान अपने को समझना है— अपनी इस जीवन-यात्रा को मुझे अवश्य पूरा करना है। ऐसा निश्चय होने पर मनुष्य विलासों में नहीं फँसता ।
हे (दस्म) = सब दुःखों के विनाशक व दर्शनीय प्रभो ! (विश्पते) = सब प्रजाओं के पालन करनेवाले प्रभो ! हमें (तोके तनये) = पुत्र व पौत्र (उभे) = दोनों के निमित्त (मघोनाम्) = पापशून्य ऐश्वर्यवालों का (राधः) = जीवन-यात्रा साधक धन [राध्- सिद्धि] (पर्षि) = दीजिए |
मनुष्य कई बार आर्थिक संघर्ष के कारण भी अध्यात्म मार्ग पर नहीं चल पाता। अपनी आवश्यकताएँ पूर्ण भी हो जाती हैं तो पुत्र-पौत्रों के लिए धन जुटाने की कामना होती है, अत: मन्त्र में प्रार्थना है कि निर्धनता भी हमारे आत्मशोधन के मार्ग में रुकावट न हो ! हमें परिवार-पोषण के लिए आवश्यक धन तो मिल ही जाए । इस ओर से निश्चिन्त होकर हम 'दान, दिव्य गुणों की कामना, स्वाध्याय तथा अपने को यात्री समझने की भावना के पोषण' से अपने जीवन को अधिकाधिक शुद्ध करने में लगे रहें ।
भावार्थ
आत्मशोधन करते हुए हम सचमुच 'सोभरि' = [सु+भर=One who plays his part well] बनें ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (दस्म) दर्शनीय, कमनीयरूप ! हे (विश्पत) समस्त प्रजा के पालक ! (अग्ने) ज्ञानस्वरूप परमात्मन् ! (देवयवः) देव परमात्मा की चाह करने वाले (सुदानवः) अपने को उत्तन रूप से समर्पण करने हारे, भक्त (गीर्भिः) अपनी वाणियों और आपकी स्तुतियों से भी (रथ्यं) इस देहरूप रथ के योग्य (अश्वं न) अश्व के समान भोक्ता आत्मा को ही (मर्मृज्यन्ते) शोधन किया करते हैं। उसको बराबर तपस्याओं से शुद्ध पवित्र किया करते हैं आप ही (मघोनाम्) मघ=मख=ज्ञान के धनी पुरुषों के (तोके) पुत्र और (तनये) पौत्र (उभे) दोनों में (राधः) आराधनीय विवेक का (पर्षि) दान करते हैं।
टिप्पणी
नास्य अब्रह्मवित् कुले भवति (बृहदारण्यकोपनिषद्)।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ८, १८ मेध्यातिथिः काण्वः। २ विश्वामित्रः। ३, ४ भर्गः प्रागाथः। ५ सोभरिः काण्वः। ६, १५ शुनःशेप आजीगर्तिः। ७ सुकक्षः। ८ विश्वकर्मा भौवनः। १० अनानतः। पारुच्छेपिः। ११ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः १२ गोतमो राहूगणः। १३ ऋजिश्वा। १४ वामदेवः। १६, १७ हर्यतः प्रागाथः देवातिथिः काण्वः। १९ पुष्टिगुः काण्वः। २० पर्वतनारदौ। २१ अत्रिः॥ देवता—१, ३, ४, ७, ८, १५—१९ इन्द्रः। २ इन्द्राग्नी। ५ अग्निः। ६ वरुणः। ९ विश्वकर्मा। १०, २०, २१ पवमानः सोमः। ११ पूषा। १२ मरुतः। १३ विश्वेदेवाः १४ द्यावापृथिव्यौ॥ छन्दः—१, ३, ४, ८, १७-१९ प्रागाथम्। २, ६, ७, ११-१६ गायत्री। ५ बृहती। ९ त्रिष्टुप्। १० अत्यष्टिः। २० उष्णिक्। २१ जगती॥ स्वरः—१, ३, ४, ५, ८, १७-१९ मध्यमः। २, ६, ७, ११-१६ षड्जः। ९ धैवतः १० गान्धारः। २० ऋषभः। २१ निषादः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि परमात्मानमाचार्यं चाह।
पदार्थः
प्रथमः—परमात्मपरः।। (देवयवः) दिव्यगुणान् कामयमानाः (सुदानवः) शोभनं यथा स्यात्तथा आत्मसमर्पणकारिणः उपासकाः। [ददातीति दानुः। ददातेः ‘दाभाभ्यां नुः’। उ० ३।३२ इत्यनेन नुः प्रत्ययः।] (रथ्यम् अश्वं न) रथस्य वोढारं तुरगमिव (रथ्यम्) ब्रह्माण्डरथस्य वोढारम् परमात्मानम् (गीर्भिः) स्तुतिवाग्भिः (मर्मृज्यन्ते) अलङ्कुर्वन्ति प्रार्थयन्ते च यत्—हे (दस्म) दर्शनीय (विश्पते) प्रजापते परमात्मन् ! त्वम् अस्माकम् (तोके तनये) पुत्रे पौत्रे च (उभे) उभयस्मिन् (मघोनाम्) धनिनाम् (राधः) धनमिव, इति लुप्तोपमम्, (राधः) अध्यात्मधनं भौतिकधनं साफल्यं च (पर्षि) सिञ्च ॥ द्वितीयः—आचार्यपरः। (देवयवः) स्वकीयपुत्रान् देवान् विदुषः कामयमानाः (सुदानवः) शुभदानकारिणः गृहस्थाः जनाः (रथ्यम् अश्वं न) रथस्य वोढारं तुरगमिव (रथ्यम्) विद्यारथस्य वोढारम् आचार्यम् (गीर्भिः) प्रशंसावचनैः (मर्मृज्यन्ते) अतिशयेन अलङ्कुर्वन्ति। कथयन्ति च यत्—हे (दस्म) दोषाणां विनाशक ! हे (विश्पते) विशां प्रजानां पते पालक आचार्य ! त्वम् अस्माकम् (तोके तनये) पुत्रे पौत्रे च (उभे) उभयस्मिन् (मघोनाम्) विद्याधनेन धनवतां गुरूणाम् (राधः) विद्यारूपं धनम् (पर्षि) सिञ्च, बहुलतया प्रयच्छेत्यर्थः ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः श्लेषश्च ॥२॥
भावार्थः
परमात्मन आचार्यस्य च कृपयाऽस्माकं सन्तानाः परमेश्वरपूजकाः पुरुषार्थिनो विद्यावन्तो धार्मिकाश्च स्युः ॥२॥ अस्मिन् खण्डे गुरुशिष्ययोः परमात्मजीवात्मनोर्मानवोद्बोधनस्य च विषयाणां वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेद्या ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Beautiful God, the Lord of men, Thy votaries and devotees, who dedicate themselves to Thee, with Thy eulogies, purify the soul, the carrier of the conveyance of body like a horse. Thou bestowest wisdom on the children grandchildren of learned persons !
Meaning
Agni, lord of glory, ruler and sustainer of the people, generous devotees dedicated to charity and love of divinity, with voices of adoration and prayer, exalt you like the motive power of the chariot of life, and pray: Bring us the holy power and prosperity worthy of the magnificent for our children and grand children. (Rg. 8-103-7)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (विश्पते दस्म) હે અમારા ઉપાસક પ્રજાઓના પાલક અને દર્શનીય (रथ्यम् अश्वं व) ૨થવહન યોગ્ય સમર્થ ઘોડાઓની સમાન તું સંસાર વાહકને (गीर्भिः) સ્તુતિઓ દ્વારા (देवयवः सुदानवः) તને-દેવને ચાહનારા શોભનદાન-આત્મદાન-આત્મસમર્પણ કરનારા ઉપાસકો (मर्मृज्यन्ते) સારી રીતે અલંકૃત પૂજિત અથવા પ્રાપ્ત કર્યા કરે છે. (उभये तोके तनये) બન્ને રૂપ તોકે = પુત્ર. તનય = પૌત્ર-પુરાતન અને નવીન ઉપાસકની અંદર (मघोनां राधः पर्षि) જ્ઞાનધનવાળા અધ્યાત્મ ધનવાળા ઉપાસકોનું જે ધન રહેલું છે, તેને પૂરિત કરે છે-ભરે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा व आचार्याच्या कृपेने आमची संताने परमेश्वर-पूजक, पुरुषार्थी, विद्यावान व धार्मिक व्हावीत. ॥२॥
टिप्पणी
या खंडात गुरू-शिष्य, परमात्मा-जीवात्मा व माणसाच्या विषयाचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती जाणली पाहिजे
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