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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1624
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
3
प꣡र्षि꣢ तो꣣कं꣡ तन꣢꣯यं प꣣र्तृ꣢भि꣢ष्ट्व꣡मद꣢꣯ब्धै꣣र꣡प्र꣢युत्वभिः । अ꣢ग्ने꣣ हे꣡डा꣢ꣳसि꣣ दै꣡व्या꣢ युयोधि꣣ नो꣡ऽदे꣢वानि꣣ ह्व꣡रा꣢ꣳसि च ॥१६२४॥
स्वर सहित पद पाठप꣡र्षि꣢꣯ । तो꣣क꣢म् । त꣡न꣢꣯यम् । प꣣र्तृ꣡भिः꣢ । त्वम् । अ꣡द꣢꣯ब्धैः । अ । द꣣ब्धैः । अ꣡प्र꣢꣯युत्वभिः । अ । प्र꣣युत्वभिः । अ꣡ग्ने꣢꣯ । हे꣡डा꣢꣯ꣳसि । दै꣢व्या꣢꣯ । यु꣣योधि । नः । अ꣡दे꣢꣯वानि । अ । दे꣣वानि । ह्व꣡रा꣢꣯ꣳसि । च꣣ ॥१६२४॥
स्वर रहित मन्त्र
पर्षि तोकं तनयं पर्तृभिष्ट्वमदब्धैरप्रयुत्वभिः । अग्ने हेडाꣳसि दैव्या युयोधि नोऽदेवानि ह्वराꣳसि च ॥१६२४॥
स्वर रहित पद पाठ
पर्षि । तोकम् । तनयम् । पर्तृभिः । त्वम् । अदब्धैः । अ । दब्धैः । अप्रयुत्वभिः । अ । प्रयुत्वभिः । अग्ने । हेडाꣳसि । दैव्या । युयोधि । नः । अदेवानि । अ । देवानि । ह्वराꣳसि । च ॥१६२४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1624
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में पुनः परमेश्वर और आचार्य को कहते हैं।
पदार्थ
हे (अग्ने) परमात्मन् वा आचार्य ! (त्वम्) आप (अदब्धैः) अबाध, (अप्रयुत्वभिः) अलग न होनेवाले (पर्तृभिः) पालन-पूरण के प्रकारों से (तोकं तनयम्) पुत्र-पौत्र की (पर्षि) पालना करो और उन्हें विद्या आदि से भरपूर करो। (नः) हमारे (दैव्या) धार्मिक विद्वानों के प्रति किये जानेवाले(हेडांसि) अनादररूप अपराधों को, (अदेवानि च) और अवाञ्छनीय (ह्वरांसि) कुटिल कर्मों को (युयोधि) हमसे अलग करो ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा की प्रेरणा से और गुरुओं की शिक्षा से सब मनुष्यों को दुर्गुण, दुर्व्यसन आदि छोड़ने चाहिएँ और सद्गुणों तथा सत्कर्मों को प्राप्त करना चाहिए ॥२॥
पदार्थ
(अग्ने) हे ज्ञानप्रकाश स्वरूप परमात्मन्! तू (अदब्धैः-अप्रयुत्वभिः) दबाए न जानेवाले—अबाधित—पृथक् न होनेवाले—सदा साथ रहनेवाले—(पर्तृभिः) पालन करनेवाले गुणों से (तोकं तनयं पर्षि) पुत्र पौत्ररूप उपासकों का तू पालन रक्षण करता है, तथा (दैव्या हेडांसि) देवों—वायुसूर्य आदि से हुए आधिदैविक कोपों४ दुःखों को (च) और (अदेवानि ह्वरांसि) आधिभौतिक और आध्यात्मिक कोपों५ दुःखों को भी (नः-युयोधि) हमारे—हमारे से या हमारे पास से अलग कर दे॥२॥
विशेष
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विषय
ज्ञान की तीन बात
पदार्थ
गत मन्त्र में प्रभु से ज्ञान की याचना की गयी थी, अतः प्रस्तुत मन्त्र में प्रभु तीन बातें कहते हैं और संकेत करते हैं कि जानने योग्य तो ये ही तीन बातें हैं— १. (त्वम्) = तू (अदब्धैः) = ठीक, पवित्र व सत्य [unimpaired, pure, true] तथा (अप्रयुत्वभिः) = [अपृथग्भूत] निरन्तर (पर्तृभिः) = पालन-साधनों से (तोकं तनयम्) = पुत्र व पौत्र को (पर्षि) = पाल। एक सद्गृहस्थ का कर्त्तव्य है कि वह सन्तानों को प्रभु की धरोहर समझता हुआ सत्य तथा अविच्छिन्न पालन-साधनों से उत्तम बनाने का प्रयत्न करे ।
२. दूसरे स्थान पर प्रभु कहते हैं कि (अग्ने) = हे उन्नति के साधक जीव ! (नः) = हमारे (दैव्या) = वृष्टि, विद्युत् आदि देवों से होनेवाले (हेडांसि) = प्रकोपों को (युयोधि) = अपने से पृथक् कर, अर्थात् तू आधिदैविक कष्टों से भी बचने का प्रयत्न कर । दूसरे शब्दों में ये भूकम्प या अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि दैविक आपत्तियाँ भी तेरे कर्मों का ही परिणाम हैं, अतः तू इसके लिए -
३. (अदेवानि) = अदिव्य (ह्वरांसि) = कुटिल भावनाओं को (च) = भी (युयोधि) = पृथक् कर । तुझमें कुटिल भावनाएँ न पनपें । तेरा जीवन सरल हो– छलछिद्र से ऊपर । ये छलछिद्र ही सब आधिदैविक कष्टों के कारण हुआ करते । कुटिलता मृत्यु का मार्ग है और सरलता ही तुझे वह ज्ञान प्राप्त कराएगी जिसे तूने चाहा था।
वास्तव में तो ज्ञान यही है—१. सन्तान को प्रभु की सम्पत्ति समझते हुए निर्ममता तथा निरहन्ता से उनका पालन २. आधिदैविक आपत्तियों को दूर करना और ३. इसके लिए अदिव्य कुटिलता से दूर रहकर सरल बनना ।
भावार्थ
जो भी व्यक्ति इस ज्ञान को प्राप्त नहीं करता, वह 'तृण-पाणि' ही रह जाता है।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि परमेश्वरमाचार्यं चाह।
पदार्थः
हे (अग्ने) अग्रनेतः परमात्मन् आचार्य वा ! (त्वम् अदब्धैः) अबाधैः (अप्रयुत्वभिः) अस्मत्तोऽपृथग्भूतैः, (सदा) संनिहितैरित्यर्थः। [प्र यु मिश्रणामिश्रणयोः, क्वनिप् प्रयुत्वा। ततो नञ्समासः।] (पर्तृभिः) पालनपूरणप्रकारैः। [पॄ पालनपूरणयोः, ‘बहुलमन्यत्रापि’ उ० २।९६ इति तृच्।] (तोकं तनयम्) पुत्रं पौत्रं च (पर्षि) पालय, विद्यादिभिः पूरय (च)। (नः) अस्माकम्(दैव्या) दैव्यानि, देवेषु धार्मिकेषु विद्वत्सु प्रयुक्तानि (हेडांसि) अनादररूपान् अपराधान्। [हेडृ अनादरे, भ्वादिः, ‘सर्वधातुभ्योऽसुन्’ उ० ४।१९०। इत्यसुन्।] (अदेवानि च) अवाञ्छनीयानि च (ह्वरांसि) कुटिलानि कर्माणि (युयोधि) पृथक् कुरु ॥२॥२
भावार्थः
परमात्मनः प्रेरणया गुरूणां च शिक्षया सर्वैर्जनैर्दुर्गुणदुर्व्यसनादीनि परिहर्तव्यानि सद्गुणाः सत्कर्माणि च प्राप्तव्यानि ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Prosper our son and grandson with Thy protecting, inviolate, never negligent powers. Keep far from us. O God, all celestial wrath, and wickedness of godless men !
Meaning
Agni, lord of light and culture, you cleanse, refine and enrich our children and teenagers with all nourishments and safeguards for body, mind and soul with unfailing and unchallengeable modes and methods of education and refinement. Resist and overcome the passions and negativities which attract natural wrath and fight out impious temptations from us. (Rg. 6-48-10)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अग्ने) હે જ્ઞાનપ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (अदब्धैः अप्रत्युत्वभिः) ન દબાનાર-અબાધિત પૃથક્ ન થનાર-સદા સાથે રહેનાર, (पर्तृभिः) પાલન કરવાવાળા ગુણોથી (तोकं तनयं पर्षि) તોકં =પુત્ર, તનય = પૌત્ર રૂપ ઉપાસકોનું તું પાલન, રક્ષણ કરે છે; તથા (दैव्या हेडांसि) દેવો-વાયુ, સૂર્ય આદિથી થયેલ આધિદૈવિક કોપો-દુઃખોને (च) અને (अदेवानि ह्वरांसि) આધિભૌતિક અને આધ્યાત્મિક કોપો-દુઃખોને પણ (नः युयोधि) અમારાં-અમારાથી અથવા અમારી પાસેથી અલગ કરી દે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याच्या प्रेरणेने व गुरूंच्या शिकविण्याने सर्व माणसांनी दुर्गुण, दुर्व्यसन इत्यादी सोडून दिले पाहिजेत व सद्गुण व सत्कर्मांना प्राप्त केले पाहिजे ॥२॥
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