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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1636
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    3

    स꣡ नो꣢ दू꣣रा꣢च्चा꣣सा꣢च्च꣣ नि꣡ मर्त्या꣢दघा꣣योः꣢ । पा꣣हि꣢꣫ सद꣣मि꣢द्वि꣣श्वा꣡युः꣢ ॥१६३६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः꣢ । नः꣣ । दूरा꣢त् । दुः꣣ । आ꣢त् । च꣣ । आसा꣢त् । च꣣ । नि꣢ । म꣡र्त्या꣢꣯त् । अ꣣घायोः꣢ । पा꣣हि꣢ । स꣡द꣢꣯म् । इत् । वि꣣श्वा꣡युः꣢ । वि꣣श्व꣢ । आयुः꣢ ॥१६३६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स नो दूराच्चासाच्च नि मर्त्यादघायोः । पाहि सदमिद्विश्वायुः ॥१६३६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सः । नः । दूरात् । दुः । आत् । च । आसात् । च । नि । मर्त्यात् । अघायोः । पाहि । सदम् । इत् । विश्वायुः । विश्व । आयुः ॥१६३६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1636
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर वही विषय है।

    पदार्थ

    हे परमात्मन् वा आचार्य ! (विश्वायुः) सौ वर्ष की पूर्ण आयु की प्राप्ति का उपदेश देनेवाले (सः) वह आप (दूरात् च) दूर से (आसात् च) और समीप से (अघायोः) दूसरों को पापी बनाना चाहनेवाले (मर्त्यात्) मनुष्य से (सदम् इत्) सदा ही (अस्मान्) हमें (नि पाहि) निरन्तर बचाते रहो ॥३॥

    भावार्थ

    परमेश्वर की प्रेरणा से और सद्गुरुओं के उपदेश से सब लोग पापात्माओं की कुसङ्गति छोड़कर, सत्सङ्ग करके नैतिक नियमों और स्वास्थ्य के नियमों का पालन करते हुए सदाचारी और दीर्घायु होवें ॥३॥

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    पदार्थ

    (सः) वह तू अग्रणायक परमात्मन्! (अघायोः) पाप चाहने वाले—अनिष्ट चाहने वाले—(मर्त्यात्) मनुष्य से (दूरात्-च-आरात्-च) दूरवर्ती से और निकटवर्ती से भी४ (सदम्-इत्-नः-निपाहि) सदा ही हमारी पूर्ण रक्षा कर (विश्वायुः) तू पूर्ण आयु का निमित्त बन॥३॥

    विशेष

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    विषय

    वे प्रभु कैसे रक्षा करते हैं ?

    पदार्थ

    गत मन्त्र में कहा था कि वे प्रभु हमारे जीवनों को 'सुन्दर, सुखी व सबल' बनाते हैं। वह किस प्रकार ?’ इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत मन्त्र में दिया है कि 'पापियों के सङ्ग से बचाकर' । सङ्ग का प्रभाव जीवन पर अत्यधिक है। सुसङ्ग जीवन को बनाता है तो कुसङ्ग नष्ट कर डालता है। ‘सुमतिकुमती सम्पदापत्तिहेतू'=सत्सङ्ग-जनित सुमति जीवन सम्पदा का कारण बनती है और कुसङ्ग जनित कुमति जीवन-विपदा का। साधुसङ्गम मोक्ष का हेतु है, दुर्जनसङ्ग व्यसनों में जकड़े जाने का, अतः मन्त्र में कहते हैं कि-

    हे प्रभो! (सः) = वे आप (न:) = हमें (दूरात् च आसात् च) = दूर से और समीप से (अघायो:) = पाप को चाहनेवाले (मर्त्यात्) = मनुष्य से (सदमित्) = सदा ही (विश्वायु:) = जीवनभर [अत्यन्त संयोग में यहाँ द्वितीया है] बिना किसी विच्छेद के निरन्तर (नि-पाहि) = निश्चयसे बचाइए। आपकी कृपा से हम सदा कुसङ्ग से बचे रहें । आप-जैसे जीवनवाले, अर्थात् आपकी दिव्यता को धारण करनेवाले साधु- पुरुषों से ही हमारा सङ्ग हो । उत्तम माता, पिता, आचार्य व विद्वान् अतिथियों को प्राप्त करके हम सदा उत्तम वृत्तिवाले बने रहें और इस प्रकार अपने जीवनों को सुखी बनानेवाले 'शुन:शेप' हों ।

    भावार्थ

    सत्सङ्ग हमारे जीवन को 'सत्' बनाए ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (सः) वह आप जगदीश्वर (विश्वायुः) समस्त प्राणियों को पूर्ण आयु देने हारा (दूरात्) दूर, वर्तमान और (आसात् च) समीप में वर्त्तमान (अघायोः) पापी (मयात्) मनुष्य से (नः) हमारे (सदम्) देह और गृह को और प्रतिष्ठा को (इत्) भी (नि पाहि) नित्य रक्षा करे।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ७ शुनःशेप आजीगतिः। २ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। ३ शंयुर्वार्हस्पत्यः। ४ वसिष्ठः। ५ वामदेवः। ६ रेभसूनु काश्यपौ। ८ नृमेधः। ९, ११ गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १० श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। १२ विरूपः। १३ वत्सः काण्वः। १४ एतत्साम॥ देवता—१, ३, ७, १२ अग्निः। २, ८-११, १३ इन्द्रः। ४ विष्णुः। ५ इन्द्रवायुः। ६ पवमानः सोमः। १४ एतत्साम॥ छन्दः—१, २, ७, ९, १०, ११, १३, गायत्री। ३ बृहती। ४ त्रिष्टुप्। ५, ६ अनुष्टुप्। ८ प्रागाथम्। ११ उष्णिक्। १४ एतत्साम॥ स्वरः—१, २, ७, ९, १०, १२, १३, षड्जः। ३, ९, मध्यमः, ४ धैवतः। ५, ६ गान्धारः। ११ ऋषभः १४ एतत्साम॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    हे परमात्मन् आचार्य वा ! (विश्वायुः) विश्वं सम्पूर्णं शतवार्षिकं आयुर्यस्मात् तथाविधः (सः) असौ त्वम् (दूरात् च) विप्रकृष्टदेशाच्च, (आसात् च) समीपाच्च (अघायोः) अघं पापं परेषामिच्छतीति अघायुः तस्मात्। [अघशब्दात् ‘छन्दसि परेच्छायां क्यच उपसंख्यानम्’। वा० ३।१।८ इति परेच्छायां क्यच्। ‘अश्वाघस्यात्’ अ० ७।४।३७ इत्यघस्याकारान्तादेशः।] (मर्त्यात्) मनुष्यात् (सदम् इत्) सदैव (नः) अस्मान् (निपाहि) निरन्तरं रक्ष ॥३॥२

    भावार्थः

    परमेशप्रेरणया सद्गुरूणामुपदेशेन च सर्वे जनाः पापात्मनां कुसंगतिं विहाय सत्सङ्गं कृत्वा नैतिकनियमान् स्वास्थ्यनियमांश्च पालयन्तः सदाचारिणो दीर्घायुषश्च भवेयुः ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, the Bestower of full age to all men, protect our body, house and honour from a sinful man, be he far or near!

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    Meaning

    May he, lord of light and knowledge, giver of all joys of life, protect our life, home and industry from far and near against any and every sinful person. (Rg. 1-27-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सः) તે તું અગ્રણી પરમાત્મન્ ! (अघायोः) પાપ ચાહનારા-અનિષ્ટ ઇચ્છનારા, (मर्त्यात्) મનુષ્યથી (दूरात् च आरात् च) દૂરવર્તીથી અને નિકટવર્તીથી પણ (सदम् इत् नः निपाहि) સદા જ અમારી - પૂર્ણ રક્ષા કર (विश्वायुः) તું પૂર્ણ આયુનો નિમિત્ત બન. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या प्रेरणेने व सद्गुरूच्या उपदेशाने सर्व लोकांनी पापात्म्यांची कुसंगती सोडून सत्संग करून नैतिक नियम व स्वास्थ्याचे नियम पाळून सदाचारी व दीर्घायू व्हावे. ॥३॥

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