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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1702
ऋषिः - विश्वामित्रः प्रागाथः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
तो꣣शा꣡ वृ꣢त्र꣣ह꣡णा꣢ हुवे स꣣जि꣢त्वा꣣ना꣡प꣢राजिता । इ꣣न्द्राग्नी꣡ वा꣢ज꣣सा꣡त꣢मा ॥१७०२॥
स्वर सहित पद पाठतो꣣शा꣢ । वृ꣣त्रह꣡णा꣢ । वृ꣣त्र । ह꣡ना꣢꣯ । हु꣣वे । सजि꣡त्वा꣢ना । स꣣ । जि꣡त्वा꣢꣯ना । अ꣡प꣢꣯राजिता । अ । प꣢राजिता । इन्द्राग्नी꣢ । इ꣣न्द्र । अग्नी꣡इति꣢ । वा꣣जसा꣡त꣢मा ॥१७०२॥
स्वर रहित मन्त्र
तोशा वृत्रहणा हुवे सजित्वानापराजिता । इन्द्राग्नी वाजसातमा ॥१७०२॥
स्वर रहित पद पाठ
तोशा । वृत्रहणा । वृत्र । हना । हुवे । सजित्वाना । स । जित्वाना । अपराजिता । अ । पराजिता । इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । वाजसातमा ॥१७०२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1702
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
प्रथम मन्त्र में इन्द्र-अग्नि नाम से ब्रह्म-क्षत्र की प्रशंसा करते हैं।
पदार्थ
(तोशा) तेजस्वी वा बढ़ानेवाले, (वृत्रहणा) पाप को नष्ट करनेवाले, (सजित्वाना) साथ मिलकर विजय लाभ करनेवाले, (अपराजिता) पराजित न होनेवाले, (वाजसातमा) बल के अतिशय दाता (इन्द्राग्नी) ब्रह्म और क्षत्र को, मैं (हुवे) बुलाता हूँ ॥१॥
भावार्थ
समष्टि रूप से राष्ट्र में और व्यष्टि रूप से व्यक्ति में विद्यमान, प्रवृद्ध, ब्रह्मबल और क्षात्रबल से राष्ट्र तथा मनुष्य बाह्य और आन्तरिक शत्रुओं को पराजित करके सदा विजयी होता है ॥१॥
पदार्थ
(तोशा ‘तोशौ’) दोषनाशक६ (वृत्रहणा) पापहन्ता७ (सजित्वाना) समान प्रभावक (अपराजिता) पराजित न होनेवाला—सदा विजयी (वाजसातमा) अमृत अन्नभोग देनेवाला८ (इन्द्राग्नी) ऐश्वर्यवान् एवं ज्ञानप्रकाश्वरूप परमात्मा को (हुवे) प्रार्थित करता हूँ—प्रार्थना में लाता हूँ॥१॥
विशेष
ऋषिः—विश्वामित्र (सब का मित्र या सब जिसके मित्र हैं)॥ देवता—इन्द्राग्नी (ऐश्वर्यवान् और ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>
विषय
प्राण व अपान
पदार्थ
‘इन्द्राग्नी' का एक अर्थ प्राणापान भी है। इस शरीर में जब इन्द्र के सहायक अन्य सब देव सो जाते हैं अथवा कार्य करना बन्द कर देते हैं, ये प्राणापान तब भी अपना कार्य करते रहते हैं। ये जागते रहते हैं—सोते नहीं । मैं इन (इन्द्राग्नी) = प्राणापानों को (हुवे) = पुकारता हूँ – इनकी आराधना करता हूँ, जो
१. (तोशा) = [तुश् to destroy ] शरीर में सब रोग-कृमियों को नष्ट करके मुझे आरोग्य देते हैं । प्राणापान की क्रिया ठीक होने पर शरीर में किसी भी प्रकार का रोग सम्भव ही नहीं और यदि रोगकीटाणु शरीर में प्रविष्ट हो भी जाएँ तो ये उनका संहार कर देते हैं ।
२. (वृत्र-हणा) = ज्ञान की आवरणभूत कामादि वासनाओं को, जो वृत्र कहलाती हैं, ये नष्ट कर देते हैं। प्राणापान की साधना शरीर को नीरोग बनाती है तो मन को वासनारहित ।
३. (सजित्वाना) = एवं, ये प्राणापान शरीर व मन के क्षेत्र में [स] समानरूप से [जित्वाना] विजयशील होते हैं । शरीर के रोगों पर विजय पाते हैं और मन की वासनाओं पर ।
४. (अपराजिता) = ये कभी पराजित नहीं होते। असुर प्राणापान पर आक्रमण करके ऐसे चकनाचूर हो जाते हैं जैसे पत्थर पर टकरा कर मिट्टी का ढेला ।
५. (वाजसातमा) = ये प्राणापान हमें अतिशयित बल देनेवाले हैं। वस्तुत: प्राणापान ही शक्ति हैं। इस प्रकार इन प्राणापान से शक्ति सम्पन्न होकर प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘विश्वामित्र' सभी के साथ स्नेह करता है। घृणा का सिद्धान्त [cult] तो निर्बल का ही होता है ।
भावार्थ
हम प्राणापान की साधना करें और अपने शरीर व मन दोनों को नीरोग करें ।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादौ इन्द्राग्निनाम्ना ब्रह्मक्षत्रे प्रशंसति।
पदार्थः
(तोशा२) तोशौ तेजस्विनौ वर्द्धकौ वा, (वृत्रहणा) पापहन्तारौ, (सजित्वाना) सह विजेतारौ, (अपराजिता) अपराजितौ, (वाजसातमा) बलस्य अतिशयेन दातारौ (इन्द्राग्नी) ब्रह्मक्षत्रे। [ब्रह्मक्षत्रे वा इन्द्राग्नी। कौ० ब्रा० १२।८।] अहम् (हुवे) आह्वयामि। [तोशा, वृत्रहणा, सजित्वाना, अपराजिता, वाजसातमा सर्वत्र ‘सुपां सुलुक्०।’ अ० ७।१।३९ इति द्वितीयाद्विवचनस्य आकारादेशः] ॥१॥३
भावार्थः
समष्टिरूपेण राष्ट्रे व्यष्टिरूपेण च व्यक्तौ विद्यमानेन प्रवृद्धनेन ब्रह्मबलेन क्षात्रबलेन च राष्ट्रं मानवश्च बाह्यानान्तरांश्च शत्रून् पराजित्य सदा विजयं लभते ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
God and soul I invoke, slayers of mental foes, extinguishers of ignorance, joint victors, unsubdued, and bestowers of strength.
Meaning
I invoke and invite Indra, commander of the forces, and Agni, leader of the enlightened, both promoters of knowledge, destroyers of evil, victorious, unconquered, winners of the highest order of prizes. (Rg. 3-12-4)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (तोशा "तोशौ") દોષનાશક, (वृत्रहणा) પાપનાશક, (सजित्वाना) સમાન પ્રભાવક, (अपराजिता) પરાજિત ન થનાર-સદા વિજયી, (वाजसातमा) અમૃત અન્નભોગ પ્રદાન કરનાર, (इन्द्राग्नी) ઐશ્વર્યવાન તથા જ્ઞાન પ્રકાશ-સ્વરૂપ પરમાત્માને (हुवे) પ્રાર્થિત કરું છું-પ્રાર્થનામાં લાવું છું. (૧)
मराठी (1)
भावार्थ
समष्टीरूपाने राष्ट्रात व व्यष्टीरूपाने व्यक्तीमध्ये विद्यमान प्रवृद्ध ब्रह्मबल व क्षात्रबल याद्वारे राष्ट्र व मनुष्य बाह्य व आंतरिक शत्रूंना पराजित करून सदैव विजयश्री होतो. ॥१॥
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