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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1704
ऋषिः - विश्वामित्रः प्रागाथः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
इ꣡न्द्रा꣢ग्नी नव꣣तिं꣡ पुरो꣢꣯ दासपत्नीरधूनुतम् । साकमेकेन कर्मणा ॥१७०४॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नी꣡इति꣢ । न꣣वति꣢म् । पु꣡रः꣢꣯ । दा꣣स꣡प꣢त्नीः । दा꣣स꣢ । प꣣त्नीः । अ꣣धूनुतम् । सा꣣क꣢म् । ए꣡के꣢꣯न । क꣡र्म꣢꣯णा ॥१७०४॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राग्नी नवतिं पुरो दासपत्नीरधूनुतम् । साकमेकेन कर्मणा ॥१७०४॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । नवतिम् । पुरः । दासपत्नीः । दास । पत्नीः । अधूनुतम् । साकम् । एकेन । कर्मणा ॥१७०४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1704
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
तृतीय ऋचा की व्याख्या उत्तरार्चिक में १५७६ क्रमाङ्क पर परमात्मा और जीवात्मा के विषय में की गयी थी। यहाँ ब्रह्म-क्षत्र का विषय वर्णित है।
पदार्थ
हे (इन्द्राग्नी) ब्राह्मणो और क्षत्रियो ! (एकेन) अद्वितीय (कर्मणा) पुरुषार्थ से (साकम्) एक साथ तुम दोनों (दासपत्नीः) विनाशक काम-क्रोध आदि वा अधार्मिक दुष्ट जन जिनके स्वामी हैं, ऐसी (नवतिं पुरः) नव्वे शत्रु-नगरियों को (अधूनुतम्) कम्पायमान कर दो ॥३॥
भावार्थ
ब्राह्मणों को विद्या तथा ब्रह्मवर्चस का प्रसार करके और क्षत्रियों को शत्रुओं से रक्षा करके राष्ट्र की उन्नति करनी चाहिए ॥३॥
विषय
दासपत्नी- विधूनन
पदार्थ
मानव शरीर में काम-क्रोध आदि वासनाएँ न चाहते हुए भी प्रवेश कर जाती हैं। प्रविष्ट होकर ये उसका संहार करती हैं । संहार करने से इनका नाम 'दास' है [दस उपक्षये] । वैदिक साहित्य में शक्ति ‘पत्नी’ के रूप में चित्रित होती है, अतः इन कामादि दासों [दस्युओं] की शक्तियाँ ही दास पत्नियाँ हैं। अत्यन्त क्रियाशील [active] होने से ये नवति [नवन्ते गच्छन्ति] हैं। प्राणापान की साधना होने पर ही इन्हें कम्पित करके दूर करना सम्भव होता है, अतः मन्त्र में कहते हैं कि
हे (इन्द्राग्नी) = प्राणापानो! आप (पुरः) = सर्वप्रथम (नवतिम्) = इस बड़ी चुस्त (दासपत्नी:) = कामादि दासों की शक्तियों को (अधूनुतम्) = कम्पित कर देते हो । प्राणापान की साधना से वासना-वृत्तियाँ शिथिल पड़ जाती हैं, परन्तु 'इन्द्राग्नी' = प्राणापान इस कार्य को तभी कर पाते हैं जब (साकम्) = ये प्रभु के साथ होते हैं – जब श्वासोच्छ्वास के साथ ‘ओ३म्' का जप चलता है। (‘त्वया ह स्विद् युजा वयम्'), प्रभु के साथ मिलकर ही तो इन वासनाओं को जीतना सम्भव है, (एकेन कर्मणा)-प्रभु के साथ समान कर्मों के द्वारा [एक=समान] । यह वासना- विनाश कार्य तभी होता है जब हम प्रभु के समान निमार्णात्मक कार्यों में लगते हैं— प्रभु के समान पक्षपातादि की भावनाओं से ऊपर उठते हैं। (एकेन कर्मणा) = शब्दों का अर्थ [एक=मुख्य] 'मुख्य प्रयत्न के द्वारा ' भी है । ढिलमिल निश्चय से ये वासनाएँ दूर नहीं हुआ करतीं - ये तो प्रबल निश्चय होने पर ही दूर होंगी।
भावार्थ
हम प्रभु के साथ मिलकर दास-पत्नियों को कम्पित कर डालें ।
विषय
missing
भावार्थ
“प्रवामर्चन्त्युक्थिनः०” और “इन्द्राग्नी नवतिंपुरः” यह दोनों प्रतीकमात्र हैं। व्याख्या देखो अवि० सं० [१५७५, १५७६] पृ० ६७१।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। २ श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। ३ शुनःशेप आजीगर्तः। ४ शंयुर्बार्हस्पत्यः। ५, १५ मेधातिथिः काण्वः। ६, ९ वसिष्ठः। ७ आयुः काण्वः। ८ अम्बरीष ऋजिश्वा च। १० विश्वमना वैयश्वः। ११ सोभरिः काण्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ कलिः प्रागाथः। १५, १७ विश्वामित्रः। १६ निध्रुविः काश्यपः। १८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। १९ एतत्साम॥ देवता—१, २, ४, ६, ७, ९, १०, १३, १५ इन्द्रः। ३, ११, १८ अग्निः। ५ विष्णुः ८, १२, १६ पवमानः सोमः । १४, १७ इन्द्राग्नी। १९ एतत्साम॥ छन्दः–१-५, १४, १६-१८ गायत्री। ६, ७, ९, १३ प्रागथम्। ८ अनुष्टुप्। १० उष्णिक् । ११ प्रागाथं काकुभम्। १२, १५ बृहती। १९ इति साम॥ स्वरः—१-५, १४, १६, १८ षड्जः। ६, ८, ९, ११-१३, १५ मध्यमः। ८ गान्धारः। १० ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
तृतीया ऋग् उत्तरार्चिके १५७६ क्रमाङ्के परमात्मजीवात्मविषये व्याख्यातपूर्वा। अत्र ब्रह्मक्षत्रविषय उच्यते।
पदार्थः
हे (इन्द्राग्नी) ब्राह्मणक्षत्रियौ ! (एकेन) अद्वितीयेन (कर्मणा) पुरुषार्थेन (साकम्) युगपत्, युवाम् (दासपत्नीः) दासाः उपक्षयितारः कामक्रोधादयोऽधार्मिका दुष्टजना वा पतयः स्वामिनो यासां ताः (नवतिं पुरः) नवतिसंख्यका अपि शत्रुनगरीः (अधूनुतम्) कम्पयतम्। [धूञ् कम्पने विध्यर्थे लङ्]॥३॥२
भावार्थः
ब्राह्मणैर्विद्याया ब्रह्मवर्चसस्य च प्रसारं कृत्वा क्षत्रियैश्च शत्रुभ्यो राष्ट्ररक्षां विधाय राष्ट्रमुन्नेतव्यम् ॥३॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O God and soul, Ye cast aside together, with one mighty deed of Yogic deep meditation, the ninety forts held by turbulent passions!
Translator Comment
See verse 1576. Ninety may refer to innumerable bodies the tool occupied in previous births. For a detailed explanation of the word ninety, see the foot-note to verse 1576.
Meaning
Indra and Agni, shake up, inspire and arouse with a single clarion call the ninety fortresses yonder of the allied and supporting forces of the benevolent ruler of the republics. (Rg. 3-12-6)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्राग्नी) હે ઐશ્વર્યવાન તથા જ્ઞાન પ્રકાશસ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (दासपत्नीः नवतिं "नवतीः" पुरः) દાસ = શત્રુ પત્ની = પાલક અર્થાત્ જે કામ આદિ શત્રુઓ-ક્ષય કરનારા છે, તે શત્રુઓનું પાલન રક્ષણ આપીને વધારનારી ગતિશીલ દૂષિત મનોવૃત્તિઓને (एकेन कर्मणा साकं अधूनुतम्) એક કર્મસાક્ષાત્ દર્શનની સાથે જ કંપાયમાન કરીને-નષ્ટ કરી નાખે છે. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
ब्राह्मणांनी विद्या व ब्रह्मवर्चसचा प्रसार करून व क्षत्रियांनी शत्रूंपासून रक्षण करून राष्ट्राची उन्नती केली पाहिजे. ॥३॥
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