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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1705
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    2

    उ꣡प꣢ त्वा र꣣ण्व꣡सं꣢दृशं꣣ प्र꣡य꣢स्वन्तः सहस्कृत । अ꣡ग्ने꣢ ससृ꣣ज्म꣢हे꣣ गि꣡रः꣢ ॥१७०५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ꣡प꣢꣯ । त्वा꣣ । रण्व꣡स꣢न्दृशम् । र꣣ण्व꣢ । स꣣न्दृशम् । प्र꣡य꣢꣯स्वन्तः । स꣣हस्कृत । सहः । कृत । अ꣡ग्ने꣢꣯ । स꣣सृज्म꣡हे꣢ । गि꣡रः꣢꣯ ॥१७०५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप त्वा रण्वसंदृशं प्रयस्वन्तः सहस्कृत । अग्ने ससृज्महे गिरः ॥१७०५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उप । त्वा । रण्वसन्दृशम् । रण्व । सन्दृशम् । प्रयस्वन्तः । सहस्कृत । सहः । कृत । अग्ने । ससृज्महे । गिरः ॥१७०५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1705
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में अग्नि नाम से परमात्मा को सम्बोधन करते हैं।

    पदार्थ

    हे (सहस्कृत) आत्मबल से हृदय में प्रकट किये गये (अग्ने) अग्रनायक जगदीश्वर ! (प्रयस्वन्तः) प्रयत्नवान् हम (रण्वसन्दृशम्) रमणीय दर्शनवाले (त्वा) आपके प्रति (गिरः) स्तुति-वाणियों को (उप ससृज्महे) उच्चारण करते हैं ॥१॥

    भावार्थ

    परमात्मा की स्तुति के साथ मनुष्यों को प्रयत्न भी करना चाहिए, तभी अभीष्ट कामनाएँ पूर्ण होती हैं ॥१॥

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    पदार्थ

    (सहस्कृत-अग्ने) हे अध्यात्मबल से साक्षात् करने योग्य ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! (प्रयस्वन्तः) योगाभ्यासरूप प्रयत्नवान् हम उपासक९ (त्वा रण्वसन्दृशम्) तुझ रमणीय स्वरूप को१० (गिरः-उपससृज्महे) स्तुतियों११ को उपसृष्टि करते हैं—उपहार देते हैं—समर्पित करते हैं॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—भारद्वाजः (परमात्मा के अर्चनबल को धारण करने वाला उपासक)॥ देवता—अग्निः (ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    प्रयत्न के साथ स्तुति

    पदार्थ

    प्रभु को प्रस्तुत मन्त्र में दो नामों से स्मरण किया है – १. (सहस्कृत) ='सहस्' नामक बल को उत्पन्न करनेवाले । प्रभु हमारे अन्नमयकोश में तेज, प्राणमयकोश में वीर्य, मनोमयकोश में ओज और बल, विज्ञानमयकोश में मन्यु, तथा आनन्दमयकोश में 'सहस्' को स्थापित करते हैं । यहाँ ‘सहस्कृत' सम्बोधन से सर्वोत्कृष्ट बल का उल्लेख करके अन्य बलों का भी आक्षेप हो ही गया है। प्रभु हमारे अङ्ग-प्रत्यङ्ग को शक्ति से भरके हमें प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘भरद्वाज' बनाते हैं । २. (अग्ने) = शक्ति सम्पन्न करके प्रभु हमें अग्रगति - उन्नति के योग्य बनाते हैं ।

    इस प्रभु का दर्शन रमणीय है, अत: मन्त्र में कहते हैं कि हे बलों के उत्पन्न करनेवाले [सहस्कृत] हमारी उन्नति के साधक [अग्ने] प्रभो ! (रण्वसंदृशम्) = रमणीय दर्शनवाले (त्वा) = आपके (उप) = समीप अर्थात् आपकी उपासना करते हुए हम (प्रयस्वन्तः) = [पूर्णप्रयत्नशीला:- दयानन्द] पूर्ण प्रयत्नवाले होते हुए (गिरः ससृज्महे) = स्तुति -वाणियों का उच्चारण करते हैं। इस वाक्य से यह स्पष्ट है कि हमें पूर्ण पुरुषार्थ के उपरान्त ही प्रार्थना करनी चाहिए । बिना प्रयत्न के प्रार्थना व्यर्थ है। यदि हम प्रयत्नपूर्वक प्रार्थना करेंगे तो उन्नत होते-होते उस रमणीय दर्शन प्रभु का दर्शन कर पाएँगे । प्रयत्नशून्य स्तुति स्वामी दयानन्द के शब्दों में भाटों का गानमात्र है। उसकी कोई उपयोगिता नहीं ।

    भावार्थ

    हम उन्नति के लिए प्रयत्नशील हों, अपने में शक्ति भरके आगे बढ़ें ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (सहस्कृत) बल और साधना से साक्षात् करने योग्य अग्ने ! (प्रयस्वन्तः) ज्ञानी मुमुक्षु हम लोग (रण्वसन्दृशं) रमण करने हारे या रमणीय और दर्शन करने योग्य या सबके द्रष्टा (त्वा) आप परमेश्वर के (उप) समीप प्राप्त होने के लिये (गिरः) स्तुतियों या वेदवाणियों का (ससृज्महे) उच्चारण करें।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। २ श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। ३ शुनःशेप आजीगर्तः। ४ शंयुर्बार्हस्पत्यः। ५, १५ मेधातिथिः काण्वः। ६, ९ वसिष्ठः। ७ आयुः काण्वः। ८ अम्बरीष ऋजिश्वा च। १० विश्वमना वैयश्वः। ११ सोभरिः काण्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ कलिः प्रागाथः। १५, १७ विश्वामित्रः। १६ निध्रुविः काश्यपः। १८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। १९ एतत्साम॥ देवता—१, २, ४, ६, ७, ९, १०, १३, १५ इन्द्रः। ३, ११, १८ अग्निः। ५ विष्णुः ८, १२, १६ पवमानः सोमः । १४, १७ इन्द्राग्नी। १९ एतत्साम॥ छन्दः–१-५, १४, १६-१८ गायत्री। ६, ७, ९, १३ प्रागथम्। ८ अनुष्टुप्। १० उष्णिक् । ११ प्रागाथं काकुभम्। १२, १५ बृहती। १९ इति साम॥ स्वरः—१-५, १४, १६, १८ षड्जः। ६, ८, ९, ११-१३, १५ मध्यमः। ८ गान्धारः। १० ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादावग्निनाम्ना परमात्मानं सम्बोधयति।

    पदार्थः

    हे (सहस्कृत) सहसा आत्मबलेन हृदये प्रकटीकृत (अग्ने) अग्रनायक जगदीश्वर ! (प्रयस्वन्तः) प्रयत्नवन्तः वयम् (रण्वसन्दृशम्) रमणीयदर्शनम् (त्वा) त्वां प्रति (गिरः) स्तुतिवाचः (उपसृज्महे) उपसृजामः ॥१॥२

    भावार्थः

    परमात्मस्तुत्या सार्धं मनुष्यैः प्रयत्नोऽप्यनुष्ठेयस्तदैवाभीष्टकामनाः पूर्यन्ते ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    0 God, attainable through exertion and meditation, may we, the seekers after knowledge and salvation, recite Vedic verses to approach Thee, Charming and Handsome!

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    Meaning

    Agni, blazing light of life, lord of bliss and beatific vision, source giver of the power of action and forbearance, blest with the food of life and light of the spirit, we sing songs of adoration and send up our words of gratitude to you. (Rg. 6-16-37)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सहस्कृत अग्ने) હે અધ્યાત્મબળથી સાક્ષાત્ કરવા યોગ્ય જ્ઞાન પ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (प्रयस्वन्तः) યોગાભ્યાસરૂપ પ્રયત્નવાન અમે ઉપાસકો (त्वा रण्वसन्दृशम्) તારા રમણીય સ્વરૂપને गिरः उपससृज्महे) સ્તુતિઓને ઉપસૃષ્ટિ કરીએ છીએ-ઉપહાર આપીએ છીએ-સમર્પિત કરીએ છીએ. (૧)

     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या स्तुतीबरोबर माणसांनी प्रयत्नही केले पाहिजेत, तेव्हा अभीष्ट कामना पूर्ण होतात. ॥१॥

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