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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1706
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    3

    उ꣡प꣢ च्छा꣣या꣡मि꣢व꣣ घृ꣢णे꣣र꣡ग꣢न्म꣣ श꣡र्म꣢ ते व꣣य꣢म् । अ꣢ग्ने꣣ हि꣡र꣢ण्यसन्दृशः ॥१७०६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ꣡प꣢꣯ । छा꣡या꣢म् । इ꣣व । घृ꣡णेः꣢꣯ । अ꣡ग꣢꣯न्म । श꣡र्म꣢꣯ । ते꣣ । वय꣢म् । अ꣡ग्ने꣢꣯ । हि꣡र꣢꣯ण्यसन्दृशः । हि꣡र꣢꣯ण्य । स꣣न्दृशः ॥१७०६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप च्छायामिव घृणेरगन्म शर्म ते वयम् । अग्ने हिरण्यसन्दृशः ॥१७०६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उप । छायाम् । इव । घृणेः । अगन्म । शर्म । ते । वयम् । अग्ने । हिरण्यसन्दृशः । हिरण्य । सन्दृशः ॥१७०६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1706
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा को कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्रनायक, सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर ! (वयम्) हम आपके उपासक (हिरण्यसंदृशः) सोने के समान रमणीय (ते) आपकी (शर्म) शरण में (अगन्म) पहुँच गये हैं, (घृणेः) सूर्य के ताप से हटकर (छायाम् इव) जैसे छाया में पहुँचते हैं ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२

    भावार्थ

    जैसे सूर्य की धूप से तपे हुए सिरवाला, पसीने से तर-बतर शरीरवाला, गर्मी से व्याकुल कोई मनुष्य विश्राम के लिए वृक्ष आदि की छाया का आश्रय लेता है, वैसे ही आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक विविध कष्टों से व्याकुल लोग विश्राम पाने के उद्देश्य से यदि परमात्मा की शरण में पहुँचते हैं, तो वे सब दुःखों से छूटकर अत्यन्त आनन्दवान् हो जाते हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (अग्ने) हे परमात्मन्! (ते घृणेः-हिरण्यसंदृशः) तुझ जाज्वल्यमान— दीप्त१ अमृतस्वरूप२ के (शर्म छायाम्-इव वयम्-उप-अगन्म) वृक्ष छाया समान घर३—आश्रय को हम उपाश्रित करें पास प्राप्त करें॥२॥

    विशेष

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    विषय

    ‘प्रणव वृक्ष' की छाया में

    पदार्थ

    वे प्रभु (घृणिः) = दीप्त हैं (हिरण्यसंदृक्) = ज्योतिर्मय दर्शनवाले हैं । (इव) = जिस प्रकार गर्मी से सन्तप्त मनुष्य (उपच्छायाम्) = वृक्ष की छाया में जाता है, उसी प्रकार इस संसार के सन्तापों से सन्तप्त हुएहुए (वयम्) = हम हे (अग्ने) = हमारी अग्रगति के साधक प्रभो ! (घृणे:) = दीप्ति के पुञ्ज (हिरण्यसंदृश:) = ज्योतिर्मय-स्वर्णतुल्य-दर्शनवाले ते आपके शर्म सुख व शरण को अगन्म प्राप्त हों । 

    मनुष्य संसार में नाना प्रकार के संघर्षों से व्याकुल हो जाता है । उस समय प्रभु के चरण ही उसके शरण होते हैं । सूर्य ताप से सन्तप्त व्यक्ति जैसे छाया में शरण पाता है, उसी प्रकार संसारसंघर्ष से व्याकुल हुआ पुरुष प्रभु के चरणों में शरण पाता है। संसार में कई बार हमारा जीवन अन्धकारमय हो जाता है—वे प्रभु ही दीप्त तथा ज्योतिर्मय हैं। उस प्रभु के दर्शन में मनुष्य प्रकाश का अनुभव करता है । प्रभु का दर्शन होते ही व्याकुलता समाप्त हो जाती है । यह उपासक एक शक्ति का अनुभव करता है और 'भरद्वाज' कहलाता है।

    भावार्थ

    अनन्त व्याकुलता भरे इस संसार में प्रभु चरण ही हमारे शरण हैं।

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    विषय

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    भावार्थ

    जिस प्रकार (घृणेः) देदीप्यमान सूर्य के तेज से सन्तप्त होकर लोग (छायाम् इव) छाया का आश्रय लेते हैं उसी प्रकार हे (अग्ने) ज्ञानवन् प्रभो ! (हिरण्यसन्दृशः) सूर्य समान स्वरूप वाले (ते) आपके (शर्म) शरण सुख को (वयं) हम (उप अगन्म) प्राप्त हों।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। २ श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। ३ शुनःशेप आजीगर्तः। ४ शंयुर्बार्हस्पत्यः। ५, १५ मेधातिथिः काण्वः। ६, ९ वसिष्ठः। ७ आयुः काण्वः। ८ अम्बरीष ऋजिश्वा च। १० विश्वमना वैयश्वः। ११ सोभरिः काण्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ कलिः प्रागाथः। १५, १७ विश्वामित्रः। १६ निध्रुविः काश्यपः। १८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। १९ एतत्साम॥ देवता—१, २, ४, ६, ७, ९, १०, १३, १५ इन्द्रः। ३, ११, १८ अग्निः। ५ विष्णुः ८, १२, १६ पवमानः सोमः । १४, १७ इन्द्राग्नी। १९ एतत्साम॥ छन्दः–१-५, १४, १६-१८ गायत्री। ६, ७, ९, १३ प्रागथम्। ८ अनुष्टुप्। १० उष्णिक् । ११ प्रागाथं काकुभम्। १२, १५ बृहती। १९ इति साम॥ स्वरः—१-५, १४, १६, १८ षड्जः। ६, ८, ९, ११-१३, १५ मध्यमः। ८ गान्धारः। १० ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनः परमात्मानमाह।

    पदार्थः

    हे (अग्ने) अग्रनायक जगदीश्वर ! (वयम्) तवोपासकाः (हिरण्यसन्दृशः) सुवर्णसदृशरमणीयस्य (ते) तव (शर्म) शरणम् (उप अगन्म) उपगताः स्मः, (घृणेः) सूर्यतापात् (छायामिव) यथा छायाम् उपगच्छन्ति तथा ॥२॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    यथा सूर्यातापात् तप्तशिरस्कः स्विद्यद्गात्रः धर्माकुलः कश्चिद् विश्रामाय वृक्षादिच्छायामाश्रयते तथैवाध्यात्मिकाधिदैविकाधिभौतिकै- र्विविधैः कष्टैराकुला जना विश्रान्त्यै परमात्मशरणमुपगच्छन्ति चेत्तर्हि ते सर्वदुःखेभ्यो विमुक्ताः सन्तो नितरामानन्दिनो जायन्ते ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O, God, Who glitterest like gold, to Thee for shelter may we come, as to the shade from burning heat.

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    Meaning

    Agni, lord of bliss and eternal protection, just as a person runs to the shade for relief from the blazing sun, so may we, shining as pure gold, rise and come to your presence, the blissful shade of divinity, our ultimate haven and home. (Rg. 6-16-38)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अग्ने) હે પરમાત્મન્ ! (ते घृणेः हिरण्यसंदृशः) તારું જાજલ્યમાન-પ્રકાશમાન અમૃત સ્વરૂપનું (शर्म छायाम् इव वयम् उप अगन्म) વૃક્ષની છાયા સમાન ઘર-આશ્રયને અમે ઉપાશ્રિત કરીએ-પ્રાપ્ત કરીએ. (૨)

     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे सूर्यामुळे तापलेले मस्तक, घामाने भिजलेले शरीर व गर्मीने व्याकूळ झालेला एखादा माणूस विश्रामासाठी वृक्ष इत्यादी सावलीचा आश्रय घेतो, तसेच आध्यात्मिक, आधिदैविक व आधिभौतिक विविध त्रासांनी व्याकूळ झालेले लोक विश्राम करण्यासाठी परमात्म्याला शरण जातात तेव्हा ते सर्व दु:खापासून सुटका करून घेऊन अत्यंत आनंदी होतात. ॥२॥

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