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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1710
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    1

    अ꣣ग्निः꣢ प्रि꣣ये꣢षु꣣ धा꣡म꣢सु꣣ का꣡मो꣢ भू꣣त꣢स्य꣣ भ꣡व्य꣢स्य । स꣣म्रा꣢꣫डेको꣣ वि꣡रा꣢जति ॥१७१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣ग्निः꣢ । प्रि꣣ये꣡षु꣢ । धा꣡म꣢सु । का꣡मः꣢꣯ । भू꣣त꣡स्य꣢ । भ꣡व्य꣢꣯स्य । स꣣म्रा꣢ट् । स꣣म् । रा꣢ट् । ए꣡कः꣢꣯ । वि । रा꣣जति ॥१७१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निः प्रियेषु धामसु कामो भूतस्य भव्यस्य । सम्राडेको विराजति ॥१७१०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः । प्रियेषु । धामसु । कामः । भूतस्य । भव्यस्य । सम्राट् । सम् । राट् । एकः । वि । राजति ॥१७१०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1710
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अब परमात्मा के सम्राट् रूप का वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    (भूतस्य) जो उत्पन्न हो चुका है, उसे और (भवस्य) जो भविष्य में उत्पन्न होता है, उसे (कामः) इच्छाशक्ति द्वारा पञ्चभूतों से रचनेवाला (अग्निः) अग्रनायक जगदीश्वर (प्रियेषु) प्रिय (धामसु) लोकों में (एकः) एक अद्वितीय (सम्राट्) चक्रवर्ती राजा होता हुआ (वि राजति) विशेष रूप से शोभा पा रहा है ॥३॥

    भावार्थ

    एक परमेश्वर ही सब भूत, वर्तमान और भावी पदार्थों का शिल्पी तथा सब लोकों का चक्रवर्ती सम्राट् होता हुआ ब्रह्माण्ड की सब व्यवस्था का सञ्चालन करता है ॥३॥ इस खण्ड में भक्त्तिकाव्य, सूर्य-किरण, ब्रह्म-क्षत्र तथा जगदीश्वर के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ अठारहवें अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥ अठारहवाँ अध्याय समाप्त ॥ अष्टम प्रपाठक में द्वितीय अर्ध समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (प्रियेषु धामसु) प्रिय मन नेत्र आदि अङ्गों में९ (भूतस्य भव्यस्य कामः ‘कामस्य’) हुए और आगे होने वाले काम—इच्छाभाव१० का (एकः सम्राट्-अग्निः-विराजति) अकेला सम्राट् परमात्मा विराजमान है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    प्रिय धाम, 'विट्-क्षत्र- ब्रह्म'

    पदार्थ

    'धाम' शब्द के वेद में तीन अर्थ हैं १. धन Wealth, २. शक्ति Power, ३. प्रकाश की किरण Ray of light । यहाँ तीनों ही अर्थ विवक्षित हैं। ‘धामसु' यह बहुवचन इस बात का संकेत कर रहा है । 'वैश्वानर अग्नि' में ये तीनों ही धाम होते हंृ । यह उचित मात्रा में धन का स्वामी होता है— शक्तिमान् होते हुए ज्ञान के प्रकाश का पोषण करता है। उसके ये धन, तेज व ज्ञान ‘प्रिय' होते हैं— लोगों के तर्पण के लिए होते हुए कान्त होते हैं। [प्रीञ् तर्पणे कान्तौ च] । (अग्नि:) = यह वैश्वानर अग्नि (प्रियेषु धामसु) = प्रिय धामों में स्थित हुआ-हुआ (भूतस्य भव्यस्य) = राष्ट्र व समाज की पिछली अगली सब स्थितियों को (कामः) = उत्तम बनाने की कामनावाला होता है अथवा (भूतस्य) = प्राणिमात्र के (भव्यस्य) =[भावुकं भविकं भव्यम् कुशलम्] कल्याण की (कामः) = कामनावाला होता है। ‘भूतस्य भव्यस्य' इन दोनों शब्दों के इकट्ठा आने से [Past or future] 'पिछला-अगला' यह अर्थ करने का सुझाव होता ही है । इस अर्थ में 'पिछले को कैसे अच्छा बनाना ! यह शंका रह जाती है, परन्तु इसे तो मुहावरा ही समझना चाहिए जैसे कि 'जिये-मरे का शोक नहीं करते' यह मुहाविरा हैजिये का कौन शोक किया करता है ? पिछले अर्थ में तो इस शंका का अवसर ही नहीं रहता। [भूत=प्राणी, भव्य= कल्याण] । नेता वही ठीक है जो सभी का कल्याण चाहता है, सभी के कल्याण की भावना से प्रवृत्त होता है ।

    ऐसा नेता (सम्राट्) = प्रजाओं के हृदय का सम्राट् बनता है । यह [Uncrowned king]= बिना मुकुट के भी राजा ही होता है । (एकः) = यह राष्ट्र का मुख्य पुरुष होता है [एक=मुख्य] तथा (विराजति) = विशेषरूप से शोभावाला होता है । वस्तुतः ऐसा ही नेता प्रजा का कल्याण कर पाता है । यह अपने धन, बल व ज्ञान का लोकहित में ही विनियोग करता है । 'धन' नेता के वैश्यांश का प्रतीक है, 'बल' क्षत्रियांश का तथा ज्ञान 'ब्राह्मणांश' का । एवं, यह नेता अधिक-से-अधिक पूर्णता को लिये हुए होता है ।

    भावार्थ

    राष्ट्र में उत्तम नेताओं का आविर्भाव सदा राष्ट्र को उत्तम बनाये रक्खे ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मनः सम्राट्त्वं वर्णयति।

    पदार्थः

    (भूतस्य) उत्पन्नस्य (भव्यस्य) भाविनि काले उत्पत्स्यमानस्य च (कामः) कामयिता, इच्छाशक्त्या पञ्चभूतैः रचयिता (अग्निः) अग्रणीर्जगदीश्वरः (प्रियेषु) प्रीतिपात्रेषु (धामसु) लोकेषु (एकः) अद्वितीयः (सम्राट्) चक्रवर्ती राजा सन् (वि राजति) विशेषेण शोभते ॥३॥२

    भावार्थः

    एकः परमेश्वर एव सर्वेषां भूतवर्तमानभव्यपदार्थानां शिल्पी सर्वेषां लोकानां चक्रवर्ती सम्राट् च सन् ब्रह्माण्डस्य सर्वां व्यवस्थां सञ्चालयति ॥३॥ अस्मिन् खण्डे भक्तिकाव्यस्य सूर्यकिरणानां ब्रह्मक्षत्रयोर्जगदीश्वरस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    God is the primeval cause of what has been created in the past, and what shall be created in the future. He shines forth as a unique, Sovereign Lord in the most beloved worlds.

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    Meaning

    Agni, favourite love adored of all that was and is and shall be, rules and shines self-refulgent in all the lovely worlds of earth, heaven and the firmament.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (प्रियेषु धामसु) પ્રિય મન, નેત્ર આદિ અંગોમાં (भूतस्य भव्यस्य कामः "कामस्य") ઉત્પન્ન થયેલાં તથા ઉત્પન્ન થનારાં કામ-ઇચ્છાભાવનો (एकः सम्राट् अग्निः विराजति) એકલો સમ્રાટ્ પરમાત્મા વિરાજમાન છે. (૩)

     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    एक परमेश्वरच सर्व भूत, वर्तमान, भावी पदार्थांचा शिल्पकार आहे व सर्व लोकांचा (गोलाचा) चक्रवर्ती सम्राट असून ब्रह्मांडाची सर्व व्यवस्था संचालित करतो. ॥३॥

    टिप्पणी

    या खंडात भक्तिकाव्य, सूर्यकिरण, ब्रह्म-क्षत्र व जगदीश्वर या विषयांचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती जाणावी.

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