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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1709
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    2

    य꣢ इ꣣दं꣡ प्र꣢तिपप्र꣣थे꣢ य꣣ज्ञ꣢स्य꣣꣬ स्व꣢꣯रुत्ति꣣र꣢न् । ऋ꣣तू꣡नुत्सृ꣢꣯जते व꣣शी꣢ ॥१७०९

    स्वर सहित पद पाठ

    यः꣢ । इ꣡द꣢म् । प्र꣣तिपप्रथे꣢ । प्र꣣ति । पप्रथे꣢ । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । स्वः꣡ । उ꣣त्तिर꣢न् । उ꣣त् । तिर꣢न् । ऋ꣣तू꣢न् । उत् । सृ꣣जते । वशी꣢ ॥१७०९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य इदं प्रतिपप्रथे यज्ञस्य स्वरुत्तिरन् । ऋतूनुत्सृजते वशी ॥१७०९


    स्वर रहित पद पाठ

    यः । इदम् । प्रतिपप्रथे । प्रति । पप्रथे । यज्ञस्य । स्वः । उत्तिरन् । उत् । तिरन् । ऋतून् । उत् । सृजते । वशी ॥१७०९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1709
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अगले मन्त्र में जगदीश्वर का कर्तृत्व वर्णित है।

    पदार्थ

    (यः) जो जगदीश्वर (इदम्) इस ब्रह्माण्ड को (प्रतिपप्रथे) फैलाता है और (यज्ञस्य) प्रकाश प्रदाता सूर्य के (स्वः) प्रकाश को (उत्तिरन्) बिखेरता हुआ, (वशी) जगत् की व्यवस्था को चाहता हुआ (ऋतून) वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा आदि ऋतुओं को (उत्सृजते) रचता है, उस जगदीश्वर से हम [‘अजस्रं घर्मम् ईमहे’] अक्षय प्रताप वा तेज माँगते हैं। [यहाँ ‘अजस्रं घर्मम् ईमहे’ यह अंश वाक्यपूर्ति के लिए पूर्व मन्त्र से लाया गया है] ॥२॥

    भावार्थ

    अहो ! जगत्पति की यह कैसी अद्भुत महिमा है कि वह सूर्य को उत्पन्न करके उसके द्वारा सारे सौरमण्डल को भली-भाँति सञ्चालित कर रहा है ॥२॥

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    पदार्थ

    (यज्ञस्य स्वः-उत्तिरन्) उपासकों के अध्यात्मयज्ञ के सुखफल को देने के हेतु (यः) जो विश्वनायक परमात्मा (इदं प्रतिपप्रथे) इस जगत् को पुनः पुनः प्रथित करता है—मनुष्यों के कर्म करणार्थ (वशी ऋतून्-उत्सृजते) वह वशकर्ता परमात्मा जगत् में ऋतुओं को उत्सर्जित करता है—उत्पन्न करता है पुनः मोक्ष की ओर भी ले जाता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    घर-घर में यज्ञ का विस्तार

    पदार्थ

    गत मन्त्र के प्रकरण के अनुसार हमें वह नेता चाहिए (यः) = जो (स्वः) = सुख को (उत्तिरन्) = बढ़ाने के हेतु से [हेतौ शतृप्रत्ययः] (यज्ञस्य इदम्) = यज्ञ की भावना को प्(रतिपप्रथे) = प्रत्येक घर में विस्तृत करता है। ‘यज्ञ के बिना कल्याण नहीं', इसमें तो शक है ही नहीं । अयज्ञ पुरुष का न यह लोक बनता है, न परलोक । यज्ञ से दोनों ही लोकों का भला होता है । यह नेता यज्ञ की भावना का घरघर में विस्तार करता हुआ प्रजा के सुखों को बढ़ाता है।

    (वशी) = अपनी इन्द्रियों व मन को वश में करनेवाला यह 'वैश्वानर अग्नि' (ऋतून्) = ऋतुओं को (उत्सृजते) = उत्कृष्ट बनाता है । वेद में भिन्न-भिन्न स्थानों में इस बात का प्रतिपादन है कि मनुष्य के आचरण-पतन का परिणाम ही ‘आधिदैविक आपत्तियाँ' हुआ करती हैं। उत्कृष्ट आचरणवाले नेता ही इन आधिदैविक आपत्तियों का निराकरण करनेवाले होते हैं । वस्तुतः ऐसे श्रेष्ठ नेताओं से ही यह जगत् धारण किया जाता है।

    संक्षेप में यह नेता दो बातें करता है – १. घर-घर में यज्ञ की भावना का प्रचार करता है, तथा २. अपना जीवन पूर्ण संयमवाला बनाता है । - इन दो बातों के दो परिणाम होते हैं – १. सुख की वृद्धि होती है तथा २. ऋतुएँ बड़ी उत्कृष्ट होती हैं, मानवजीवन के लिए अनुकूलतावाली होती हैं ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ जगदीश्वरस्य कर्तृत्वमाह।

    पदार्थः

    (यः) अग्निर्जगदीश्वरः (इदम्) एतद् ब्रह्माण्डम् (प्रतिपप्रथे) विस्तृणाति, अपि च (यज्ञस्य) प्रकाशप्रदातुः आदित्यस्य। [स यः स यज्ञोऽसौ स आदित्यः। श० १४।१।१।६।] (स्वः) प्रकाशम् (उत्तिरन्) विकिरन् (वशी) जगद्व्यवस्थां कामयमानः (ऋतून्) वसन्तग्रीष्मवर्षादीन् (उत्सृजते) निर्मिमीते, तं जगदीश्वरं वयम् ‘अजस्रं घर्मम् ईमहे’ इति पूर्वमन्त्रादाकृष्यते ॥२॥

    भावार्थः

    अहो ! कीदृशोऽयं महिमा जगत्पतेर्यदसौ सूर्यमुत्पाद्य सर्वं सौरमण्डलं तद्द्वारेण सम्यक् सञ्चालयति ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    God, Who grants salvation to the soul, and creates this universe being the Supreme Controller manifests the seasons.

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    Meaning

    Agni, is co-existent and simultaneously expansive with this cosmic yajna of creation, traversing heaven and earth in space and, controlling the world of existence, initiates and furthers the cycle of seasons.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (यज्ञस्य स्वः उत्तिरन्) ઉપાસકોનાં અધ્યાત્મયજ્ઞના સુખ ફળને પ્રદાન કરવા માટે (यः) જે વિશ્વનાયક પરમાત્મા (इदं प्रतिपप्रथे) આ જગતને ફરી ફરી વિસ્તૃત કરે છે-મનુષ્યોને કર્મ કરવા માટે (वशी ऋतून् उपसृजते) તે વશકર્તા પરમાત્મા જગતમાં ૠતુઓને ઉત્સર્જિત કરે છે-ઉત્પન્ન કરે છે અને પુનઃ મોક્ષની તરફ પણ લઈ જાય છે. (૨)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जगत् पतीची ही कशी अद्भुत महिमा आहे, की त्याने सूर्याला उत्पन्न करून त्याच्याद्वारे सौरमंडलाला उत्तम रीतीने चालवीत आहे. ॥१॥

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