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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1720
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
2
ग꣣म्भीरा꣡ꣳ उ꣢द꣣धी꣡ꣳरि꣢व꣣ क्र꣡तुं꣢ पुष्यसि꣣ गा꣡ इ꣢व । प्र꣡ सु꣢गो꣣पा꣡ यव꣢꣯सं धे꣣न꣡वो꣢ यथा ह्र꣣दं꣢ कु꣣ल्या꣡ इ꣢वाशत ॥१७२०॥
स्वर सहित पद पाठग꣣म्भीरा꣢न् । उ꣣दधी꣢न् । उ꣣द । धी꣢न् । इ꣣व । क्र꣡तु꣢꣯म् । पु꣣ष्यसि । गाः꣢ । इ꣣व । प्र꣢ । सु꣣गोपाः꣢ । सु꣣ । गोपाः꣢ । य꣡व꣢꣯सम् । धे꣣न꣡वः꣢ । य꣣था । ह्रद꣢म् । कु꣣ल्याः꣢ । इ꣣व । आशत ॥१७२०॥
स्वर रहित मन्त्र
गम्भीराꣳ उदधीꣳरिव क्रतुं पुष्यसि गा इव । प्र सुगोपा यवसं धेनवो यथा ह्रदं कुल्या इवाशत ॥१७२०॥
स्वर रहित पद पाठ
गम्भीरान् । उदधीन् । उद । धीन् । इव । क्रतुम् । पुष्यसि । गाः । इव । प्र । सुगोपाः । सु । गोपाः । यवसम् । धेनवः । यथा । ह्रदम् । कुल्याः । इव । आशत ॥१७२०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1720
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में उपमाओं द्वारा परमात्मा का कर्म और जीवात्मा की उपलब्धि वर्णित है।
पदार्थ
हे पवमान सोम ! हे पवित्रकर्ता जगदीश्वर ! (गम्भीरान्) अगाध (उदधीन् इव) समुद्रों को जैसे आप पुष्ट करते हो और (गाः इव) जैसे पृथिवी आदि लोकों को वा धेनुओं को आप पुष्ट करते हो, वैसे ही (क्रतुम्) कर्मकर्ता जीवात्मा को (पुष्यसि) पुष्ट करते हो। हे जीवात्मन् ! (यवसम्) घास-चारे को (धेनवः यथा) जैसे गायें और (हृदम्) सरोवर को (कुल्याः इव) जैसे शुद्ध जल की नालियाँ प्राप्त होती हैं, वैसे ही (सुगोपाः) सुरक्षा करनेवाले आनन्द-रस, तुझे (प्र आशत) प्रकृष्ट रूप से प्राप्त होते हैं ॥३॥ यहाँ चार उपमाएँ हैं, अतः उपमालङ्कार है ॥३॥
भावार्थ
जगदीश्वर जैसे जलों से समुद्रों को, दूध से धेनुओं को और विविध ऐश्वर्यों से पृथिवी आदि लोकों को परिपूर्ण करते हैं, वैसे ही जीवात्मा को सद्गुणों से परिपूर्ण करते हैं। गौएँ जैसे घास के पास पहुँचती हैं और छोटी-छोटी नहरें जैसी महान् जलाशय को भरने के लिए उनमें पहुँचती हैं, वैसे ही जगदीश्वर के पास से ब्रह्मानन्द-रस जीवात्मा को प्राप्त होते हैं ॥३॥
पदार्थ
(गम्भीरान्-उदधीन्-इव) हे परमात्मन्! तू गहरी जलधाराओं को जैसे, तथा (गाः-इव) गौओं को जैसे (सुगोपाः) अच्छा रक्षक राजा रक्षित करता है उनकी रक्षा करता है ऐसे तू (क्रतुं पुष्यसि) प्रज्ञावान्११ उपासक को पुष्ट करता है (धेनवः-यथा यवसम्) गौएँ जैसे घास को (कुल्याः-इव ह्रदम्-आशत) नहरें जैसे महान् जलाशय—नद को प्राप्त होती हैं ऐसे तुझे उपासक प्राप्त होते हैं१२॥३॥
विशेष
<br>
विषय
चार प्रयाण
पदार्थ
१. जीव 'क्रतु' है । ('ओ३म् क्रतो स्मर') इस मन्त्रभाग में जीव को 'क्रतु' नाम से ही स्मरण किया गया है।‘यथाक्रतुरस्मिँल्लोके पुरुषो भवति तथेत: प्रेत्य भवति', इस उपनिषद्वाक्य के अनुसार क्रतु के अनुसार ही जीवन मिलने से जीव का नाम ही 'क्रतु' हो गया । हे प्रभो ! आप (क्रतुम्) = इस कर्मशील जीव को (गम्भीरान् उदधीन् इव) = गभीर समुद्रों की भाँति ज्ञान-जल से (पुष्यसि) = पुष्ट करते हो । समुद्र की भाँति अगाध ज्ञान ही तो जीव को ब्रह्मचर्याश्रम में प्राप्त करना है। यदि जीव 'क्रतु' व पुरुषार्थी बनता है तो प्रभु ऐसी परिस्थितियाँ प्राप्त कराते हैं जो ज्ञान-प्राप्ति के अनुकूल होती हैं और जीव का ज्ञान समुद्र की भाँति गम्भीर होता चलता है । अथर्ववेद में आचार्य को 'समुद्र' नाम दिया ही है ।
२. इस ज्ञान को प्राप्त कर मनुष्य गृहस्थ बनता है और (इव) = जैसे (सुगोपाः) = उत्तम ग्वाला (गाः) = गौवों का प्र=प्रकर्षेण पोषण करता है, इसी प्रकार यह गृहस्थ अपनी सन्तानों का पोषण करता है और इस कर्त्तव्यपालन के कारण प्रभु गृहस्थ का पोषण करता है।
३. अब (धेनवः) = गौवें यथा-जैसे (यवसम्) = चरी को प्राप्त होती हैं, उसी प्रकार ये सद्गृहस्थ गृहस्थ को निभाकर, अपने सांसारिक कर्त्तव्यों का पालन करके, प्रभु को ही, जो [यु= मिश्रण व अमिश्रण] बुराई से पृथक् व भलाई से मिलानेवाले हैं, प्राप्त करता है । क्षुधित गौ को जैसे चरी ही रुचती है उसी प्रकार इस भक्त को प्रभु का नाम-स्मरण ही रुचिकर होता है । इसका परिणाम यह होता है कि यह सदा उस प्रभु का स्मरण करता हुआ - सदा तद्भाव से भावित होने के कारण अन्त समय में भी प्रभु का ही स्मरण करता है, और
४. (इव) = जैसे (कुल्याः) = नालियाँ (ह्रदम्) = एक तालाब में (आशत) = व्याप्त हो जाती हैं, उसी प्रकार यह भक्त अन्त में प्रभु से मेल करता है ।
भावार्थ
मैं अपने को ज्ञान का समुद्र बनाऊँ, अपनी सन्तानों का उत्तम पालन करूँ, प्रभु के नाम को ही अपना भोजन बनाऊँ, और अन्त में प्रभु से मेल करूँ ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथोपमामुखेन परमात्मनः कर्म जीवात्मन उपलब्धिं च वर्णयति।
पदार्थः
हे पवमान सोम ! हे पावक जगदीश्वर ! (गम्भीरान्) अगाधान् (उदधीन् इव) समुद्रान् यथा त्वं पुष्यसि, (गाः इव) पृथिव्यादिलोकान् यथा त्वं पुष्यसि, तथैव (क्रतुम्) कर्मकर्तारं जीवात्मानम् (पुष्यसि) पुष्णासि। हे जीवात्मन् ! (यवसम्) घासम् (धेनवः यथा) गावः यथा, अपि च (ह्रदम्) सरोवरम् (कुल्याः इव) शुद्धजलस्य प्रणालिकाः यथा अश्नुवते, तथैव (सुगोपाः) सुरक्षकाः आनन्दरसाः त्वाम् (प्र आशत) प्रकर्षेण अश्नुवते ॥३॥२ अत्र चतस्रः उपमाः तेनोपमालङ्कारः ॥३॥
भावार्थः
जगदीश्वरो यथा जलैरुदधीन् पयोभिधेनूर्विविधैरैश्वर्यैश्च पृथिव्यादिलोकान् परिपूरयति तथैव जीवात्मानं सद्गुणैः परिपूरयति। गावो यथा घासं लघुकुल्याश्च महाजलाशयं प्राप्नुवन्ति तथा जगदीश्वराद् ब्रह्मानन्दरसा जीवात्मानं प्राप्नुवन्ति ॥३॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, just as thousands of pools of water feed the deep oceans, so dost Thou nourish the soul with many excellences of life. Just as a good herdsman nicely feeds his cows, so dost Thou grant food to the souls. Just as the milch cows go to their fodder, so do the souls go unto Thee. Just as streams flow into the vast sea, so do the souls absorb themselves in Thee!
Meaning
Indra, lord of life, power and prosperity, you promote and overfill the yajna and bless the yajamana like the deep sea and protect the earths, cows and the grass for them. As a good cowherd protects and feeds the cows and guards the fodder for the cows, so do you, O man, protect and promote the yajna. And as the cows gain the food, and as the rivers and rivulets reach the sea for self-fulfilment, so would you enjoy the delicacies of life and reach the Lord, Indra, for self-fulfilment. (Rg. 3-45-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (गम्भीरान् उदधीन् इव) હે પરમાત્મન્ ! તું ઊંડી જલધારાઓની જેમ; તથા (गाः इव) ગાયોને જેમ ,(सुगोपाः) સારો રક્ષક રાજા-ગોવાળ રક્ષિત કરે છે-તેની રક્ષા કરે છે, તેમ તું (क्रतुं पुष्यसि) પ્રજ્ઞાવાન ઉપાસકને પુષ્ટ કરે છે. (धेनवः यथा यवसम्) ગાયો જેમ ઘાસને (कुल्याः इव हृदम् आशत) નહેરો જેમ મહાન જલાશયને-વિશાળ સરોવરને કે સમુદ્રને પ્રાપ્ત થાય છે, તેમ તું ઉપાસકને પ્રાપ્ત થાય છે. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
जगदीश्वर जसा जलाने समुद्राला, दुधाने गायींना व विविध ऐश्वर्यांनी पृथ्वी इत्यादी लोकांना परिपूर्ण करतो तसे जीवात्म्यालाही सद्गुणांनी परिपूर्ण करतो. गायी जशा गवताकडे येतात, लहान लहान कालवे महान जलाशयात पोचतात, तसेच जगदीश्वराकडून जीवात्मा ब्रह्मानंद रस प्राप्त करतो. ॥३॥
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