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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1721
ऋषिः - देवातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
8
य꣡था꣢ गौ꣣रो꣢ अ꣢पा꣣ कृ꣣तं꣢꣫ तृष्य꣣न्ने꣡त्यवेरि꣢꣯णम् । आ꣣पित्वे꣡ नः꣢ प्रपि꣣त्वे꣢꣫ तूय꣣मा꣡ ग꣢हि꣣ क꣡ण्वे꣢षु꣣ सु꣢꣫ सचा꣣ पि꣡ब꣢ ॥१७२१॥
स्वर सहित पद पाठय꣡था꣢꣯ । गौ꣣रः꣢ । अ꣣पा꣢ । कृ꣣त꣢म् । तृ꣡ष्य꣢꣯न् । ए꣡ति꣢꣯ । अ꣡व꣢꣯ । इ꣡रि꣢꣯णम् । आ꣣पित्वे꣢ । नः꣣ । प्रपित्वे꣢ । तू꣡य꣢꣯म् । आ । ग꣣हि । क꣡ष्वे꣢꣯षु । सु । स꣡चा꣢꣯ । पि꣡ब꣢꣯ ॥१७२१॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा गौरो अपा कृतं तृष्यन्नेत्यवेरिणम् । आपित्वे नः प्रपित्वे तूयमा गहि कण्वेषु सु सचा पिब ॥१७२१॥
स्वर रहित पद पाठ
यथा । गौरः । अपा । कृतम् । तृष्यन् । एति । अव । इरिणम् । आपित्वे । नः । प्रपित्वे । तूयम् । आ । गहि । कष्वेषु । सु । सचा । पिब ॥१७२१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1721
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में २५२ क्रमाङ्क पर परमात्मा के आह्वान के विषय में की गयी थी। यहाँ विद्वान् गुरुजन शिष्यजनों को कह रहे हैं।
पदार्थ
(यथा) जैसे (तृष्यन्) प्यासा (गौरः) गौर मृग (इरिणम्) मरूस्थल को (अव) छोड़कर (अपा कृतम्) जल से पूर्ण सरोवर को (एति) प्राप्त करता है, वैसे ही हे विद्यार्थी ! तू (नः) हम गुरुओं से (आपित्वे) सम्बन्ध (प्रपित्वे) प्राप्त होने पर, हमारे पास (तूयम्) शीघ्र (आ गहि) आ जा और (कण्वेषु) हम मेधावियों के सान्निध्य में (सचा) दूसरे सहाध्यायियों के साथ मिलकर (सु पिब) भली-भाँति लौकिक विद्याओं के रस का तथा अध्यात्म-विद्याओं के रस का पान कर ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ
जैसे प्यासा मृग जलरहित प्रदेश को छोड़कर जलप्रचुर प्रदेश को चला जाता है, वैसे ही विद्या के प्यासे लोग मूर्खों का सङ्ग छोड़ कर विद्वानों का सङ्ग करें ॥१॥
टिप्पणी
(देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या २५२)
विशेष
ऋषिः—देवातिथिः (इष्टदेव परमात्मा में अतनगमन-प्रवेश करने वाला उपासक)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—विषमा बृहती॥<br>
विषय
प्रभु का [ मेहमान ] अतिथि
पदार्थ
प्रस्तुत मन्त्र २५२ संख्या पर द्रष्टव्य है । सरलार्थ इस प्रकार है- (तृष्यन्) = प्यास का अनुभव करता हुआ (यथा) = जैसे (गौरः) = प्रयत्नशील गौरमृग (अपाकृतम्) = समीप पहुँचने पर दूर और दूर हट जाते हुए (ईरिणम्) = ऊसर – मरुभूमि की ओर (अवएति) = दूर और दूर चलता जाता है, उसी प्रकार हे जीव ! तू भी आनन्द की प्यास में प्रकृति की मरुभूमि में भटक रहा है। इस रास्ते को छोड़कर (तूयम्) = शीघ्र ही (न:) = हमारी (आपित्वे) = मित्रता में, मित्रता ही क्या (प्रपित्वे) = शरण में (आगहि) = आजा। वस्तुतः प्रभु को प्राप्त करने पर ही आनन्द मिलेगा । (कण्वेषु) = बुद्धिमानों में (सचा) = मिलकर रहता हुआ तू (सु - पिब) = उत्तम प्रकार से ज्ञान-जल का पान कर ।
यह ज्ञान ही तो जीव को उस महान् देव- प्रभु को अतिथि प्राप्त करनेवाला बनाएगा और जीव देवातिथि होगा ।
भावार्थ
प्रकृति की मरु-मरीचिका में मरनेवाला मृग मैं न बनूँ। मैं प्रभु की मित्रता व शरण में आनन्द का अनुभव करूँ ।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २५२ क्रमाङ्के परमात्माह्वानविषये व्याख्याता। अत्र विद्वांसो गुरुजनाः शिष्यजनमाहुः।
पदार्थः
(यथा) येन प्रकारेण (तृष्यन्) पिपासितः सन् (गौरः) गौरमृगः (इरिणम्) मरुस्थलम् (अव) अवहाय (अपा कृतम्) जलेन पूर्णं सरोवरम् (एति) गच्छति, तथैव हे विद्यार्थिन् ! (नः) गुरूणाम् अस्माकम् (आपित्वे) सम्बन्धे (प्रपित्वे) प्राप्ते सति त्वम् अस्मत्सन्निधौ (तूयम्) शीघ्रम् (आ गहि) आगच्छ, किञ्च (कण्वेषु) मेधाविनाम् अस्माकं सान्निध्ये (सचा) अन्यैः सहाध्यायिभिः सह मिलित्वा (सु पिब) सम्यग् लौकिकविद्यारसम् अध्यात्मविद्यारसं च आस्वादय ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥
भावार्थः
यथा पिपासार्तो मृगो जलविहीनं प्रदेशमपहाय जलप्रचुरं प्रदेशं गच्छति तथैव विद्यापिपासवो जना मूर्खसङ्गं विहाय विद्वत्सङ्गतिं कुर्युः ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as a licentious person, afflicted with the thirst for lust goes to lovely sensual objects, so should eat thou, O soul, acquiring the friendship of us, the devotees of God, awake quickly, and enjoy with us divine felicity!
Translator Comment
See verse 252.
Meaning
Just as a thirsty stag in the desert rushes to a pool full of water so, O friend in family of the wise, come morning, come evening, come fast and drink the soma of love and reverence in joy. (Rg. 8-4-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (यथा) જેમ (गौरः) મૃગ-હરણ (तृष्यन्) તરસથી પીડિત થઈને (इरिणम्) ઘાસ આદિ ઔષધિઓથી ન ઢંકાયેલ નિર્મળ દેખાતા (अपाकृतम्) જલાશયમાં (अव एति) અવતરિત થતાં દોડીને પ્રાપ્ત થાય છે, તેમ (आपित्वे प्रपित्वे) બંધુત્વ પ્રાપ્ત થતાં (नः) અમને (तूयम् आगहि) હે પરમાત્મન્ ! તું શીઘ્ર પ્રાપ્ત થા. (कण्वेषु सचा सुपिब) અમારી-મેધાવી ઉપાસકોની અંદર સાક્ષાત્ થઈને અમારી સાથે સંબંધ બાંધીને, સુંદર ઉપાસનારસનું પાન કર-સ્વીકાર કર. (૧૦)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે પરમાત્મન્ ! જેમ તૃષાતુર હરણ ઘાસ વગેરેથી ન ઢંકાયેલ જલાશયને શીઘ્ર પ્રાપ્ત થાય છે, તેમ જ તું અમારા બંધુત્વને પ્રાપ્ત કરીને, અમે મેધાવી ઉપાસકોમાં પ્રાપ્ત—સાક્ષાત થઈને, અમારી સાથે બંધુત્વનો સંબંધ કર, અમારા સુંદર ઉપાસનારસનું પાન કર્યા કર-સ્વીકાર કર્યા કર. (૧૦)
मराठी (1)
भावार्थ
जसा तृषार्त मृग जलरहित प्रदेश सोडून जल प्रचुर प्रदेशाकडे जातो, तसेच विद्येच्या इच्छुक लोकांनी किंवा विद्येसाठी तहानलेल्या लोकांनी मूर्खांची संगती सोडून विद्वानांची संगत धरावी. ॥१॥
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