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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1734
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
2
अ꣡श्वि꣢ना व꣣र्ति꣢र꣣स्म꣡दा गोम꣢꣯द्दस्रा꣣ हि꣡र꣢ण्यवत् । अ꣣र्वा꣢꣫ग्रथ꣣ꣳ स꣡म꣢नसा꣣ नि꣡ य꣢च्छतम् ॥१७३४॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡श्वि꣢꣯ना । व꣣र्तिः꣢ । अ꣣स्म꣢त् । आ । गो꣡म꣢꣯त् । द꣣स्रा । हि꣡र꣢꣯ण्यवत् । अ꣣र्वा꣢क् । र꣡थ꣢꣯म् । स꣡म꣢꣯नसा । स । म꣣नसा । नि꣢ । य꣣च्छतम् ॥१७३४॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्विना वर्तिरस्मदा गोमद्दस्रा हिरण्यवत् । अर्वाग्रथꣳ समनसा नि यच्छतम् ॥१७३४॥
स्वर रहित पद पाठ
अश्विना । वर्तिः । अस्मत् । आ । गोमत् । दस्रा । हिरण्यवत् । अर्वाक् । रथम् । समनसा । स । मनसा । नि । यच्छतम् ॥१७३४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1734
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में प्राण-अपान का विषय कहते हैं।
पदार्थ
हे (दस्रा) दोषों का क्षय करनेवाले (अश्विना) शरीर में व्याप्त प्राणापानो ! (अस्मत्) हमारा (वर्तिः) घर (आ) चारों ओर से (गोमत्) धेनुओं से युक्त और (हिरण्यवत्) सुवर्ण आदि धनों से युक्त होवे, इस हेतु से तुम (समनसा) मन से संयुक्त होकर (रथम्) हमारे शरीर-रूप रथ को (अर्वाक्) अनुकूल रूप में (नियच्छतम्) नियन्त्रित करो ॥१॥
भावार्थ
देह के स्वस्थ होने पर ही पुरुषार्थ करके गाय, सुवर्ण आदि धन प्राप्त किये जा सकते हैं और स्वास्थ्य प्राप्त करने का प्राणायाम मुख्य साधन है ॥१॥
पदार्थ
(दस्रा-अश्विना) हे दर्शनीय ज्योतिस्वरूप एवं आनन्दस्वरूप परमात्मन्! (अस्मत्-वर्त्तिः) हमारा५ अध्यात्ममार्ग६ (गोमत्) स्तुतिवाला७ (हिरण्यवत्) अमृतवाला८—अमृतानन्द वाला हो (रथम्) इस अध्यात्ममार्ग में रथरूप अपने रमणीय स्वरूप को (अर्वाक्) इधर—हमारी ओर (समनसा) समान मन हुआ (नियच्छतम्) नियतकर स्थिर कर॥१॥
विशेष
ऋषिः—गोमतः (परमात्मा में अत्यन्त गति करने वाला उपासक)॥ देवता—अश्विनौ (ज्ञानज्योतिस्वरूप और आनन्दरसपूर्ण परमात्मा)॥ छन्दः—उष्णिक्॥<br>
विषय
गृह की उत्तमता
पदार्थ
प्राणापान=‘अश्विना' कहलाते हैं, क्योंकि १. [न श्व:] ये आज हैं और कल नहीं । तथा २. ये कार्यों में व्याप्त होते हैं— अश् व्याप्तौ । इन प्राणापानों की साधना पर ही इस शरीर की सारी उत्तमता निर्भर है । मन्त्र का ऋषि ‘गोतम' इनसे कहता है— हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (अस्मत्) = हमारा (वर्तिः) = यह घर—यह शरीररूप रथ – (आगोमत्) = सब प्रकार से उत्तम इन्द्रियरूप घोड़ोंवाला हो । इन प्राणापानों की साधना से ही इन्द्रियों के दोष दूर होते हैं । (हि) = निश्चय से ये प्राणापान (दस्त्रा) = [दसु उपक्षये] सब मलों का नाश करनेवाले हैं और इसी से वह रथ ('हिरण्यवत्') = [हिरण्यं वै ज्योतिः] ज्योतिर्मय है। प्राणापान की साधना से ही बुद्धि तीव्र होती है ।
हे प्राणापानो ! (समनसा) = उत्तम मनवाले होते हुए आप (रथम्) = इस शरीररूप रथ का (अर्वाक्) = अन्दर की ओर ही (नियच्छतम्) = नियमन करो । प्राणापान की साधना चित्तवृत्तिनिरोध में भी सहायक होती है— इससे मन निर्मल होता है । इस निर्मल मन के साथ होते हुए ये प्राणापान इन्द्रियों को बाहर विषयों में जाने से रोकते हैं। सामान्यतः इन्द्रियों का स्वभाव बाहर जाने का है [पराङ् पश्यति], परन्तु प्राणापान के बल से इन्हें अन्दर ही नियमित करके मनुष्य उस आत्मतत्त्व का दर्शन करता है । एवं, प्राणसाधना के हमारे जीवन पर निम्न परिणाम हैं- १. इन्द्रियों का उत्तम होना, २. ज्योति का जगना, ३. मन का उत्तम होना, ४. वृत्ति का अन्तर्मुखी होना ।
भावार्थ
हम प्राणों की साधना से प्रभु से दिये गये मृण्मय शरीर को हिरण्मय [ज्योतिर्मय] बनाएँ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (अश्विनौ) देह में व्यापनशील ! प्राण और अपान ! आप दोनों (दस्रौ) रोगों के विनाशक हो। अतः आप दोनों (स-मनसा) हमारे मन के मानस बल के साथ होकर (हिरण्यवत्) आत्मा से युक्त और (गोमत्) इन्द्रियों से युक्त (स्थम्) इस रमण योग्य उत्तम स्थ रूप देह को (अर्वाग्) अपने अधीन करके साक्षात् रूप से (नियच्छतम्) नियम में रक्खो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादौ प्राणापानविषयमाह।
पदार्थः
हे (दस्रा) दस्रौ दोषाणामुपक्षेतारौ (अश्विना) शरीरव्याप्तौ प्राणापानौ ! (अस्मत्) अस्माकम्। [अत्र ‘सुपां सुलुक्’ अ० ७।१।३९ इति षष्ठ्या लुक्।] (वर्तिः१) गृहम् (आ) समन्तात् (गोमत्) गोभिर्युक्तम्, (हिरण्यवत्) सुवर्णादिभिर्धनैश्च युक्तं भवेदिति हेतोः, युवाम् (समनसा) समनसौ मनसा संयुक्तौ भूत्वा (रथम्) अस्माकं देहरूपं शकटम् (अर्वाग्) अनुकूलं यथा स्यात्तथा (नि यच्छतम्) नियन्त्रितं कुरुतम् ॥१॥
भावार्थः
देहे स्वस्थे सत्येव पुरुषार्थं कृत्वा गोहिरण्यादीनि धनानि प्राप्तुं शक्यन्ते, स्वास्थ्यप्राप्तेश्च प्राणायामो मुख्यं साधनम् ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Prana and Apana, Ye both are the killers of diseases. Aided by the force of our mind, with full sway, control this nice changing chariot of the body, equipped with soul and organs!
Translator Comment
See verse 425. 'I' means a learned man.
Meaning
Generous scientists of fire and waters, Ashvins, expert technologists working together with equal cooperative mind, bring hither before us a chariot sensitive in reception and communication of signals, golden in quality and extremely fast in motion anywhere on earth, over water and in the sky. (Rg. 1-92-16)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (दस्रा अश्विना) હે દર્શનીય જ્યોતિસ્વરૂપ અને આનંદસ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (अस्मत् वर्त्तिः) અમારો અધ્યાત્મ માર્ગ (गोमत्) સ્તુતિવાળો (हिरण्यवत्) અમૃતવાળો-અમૃતાનંદવાળો બને. (रथम्) એ અધ્યાત્મ માર્ગમાં તારા રમણીય સ્વરૂપને (अर्वाक्) આ તરફ-અમારી તરફ (समनसा) સમાન મન કરીને (नियच्छतम्) નિયત કર-સ્થિર કર. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
देह स्वस्थ झाल्यावरच पुरुषार्थ करून गाय, सुवर्ण इत्यादी धन प्राप्त केले जाऊ शकते व स्वास्थ्य प्राप्त करण्याचे प्राणायाम हे मुख्य साधन आहे. ॥१॥
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