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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1744
    ऋषिः - अवस्युरात्रेयः देवता - अश्विनौ छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    3

    अ꣣त्या꣡या꣢तमश्विना ति꣣रो꣡ विश्वा꣢꣯ अ꣣ह꣡ꣳ सना꣢꣯ । द꣢स्रा꣣ हि꣡र꣢ण्यवर्तनी꣣ सु꣡षु꣢म्णा꣣ सि꣡न्धु꣢वाहसा꣣ मा꣢ध्वी꣣ म꣡म꣢ श्रुत꣣ꣳ ह꣡व꣢म् ॥१७४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣त्या꣡या꣢तम् । अ꣣ति । आ꣡या꣢꣯तम् । अ꣣श्विना । तिरः꣢ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । अ꣣ह꣢म् । स꣡ना꣢꣯ । द꣡स्रा꣢꣯ । हि꣡र꣢꣯ण्यवर्तनी । हि꣡र꣢꣯ण्य । व꣣र्तनीइ꣡ति꣢ । सु꣡षु꣢꣯म्णा । सु । सु꣣म्ना । सि꣡न्धु꣢꣯वाहसा । सि꣡न्धु꣢꣯ । वा꣣हसा । मा꣢ध्वी꣢꣯इ꣡ति꣢ । म꣡म꣢꣯ । श्रु꣣तम् । ह꣡व꣢꣯म् ॥१७४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अत्यायातमश्विना तिरो विश्वा अहꣳ सना । दस्रा हिरण्यवर्तनी सुषुम्णा सिन्धुवाहसा माध्वी मम श्रुतꣳ हवम् ॥१७४४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अत्यायातम् । अति । आयातम् । अश्विना । तिरः । विश्वाः । अहम् । सना । दस्रा । हिरण्यवर्तनी । हिरण्य । वर्तनीइति । सुषुम्णा । सु । सुम्ना । सिन्धुवाहसा । सिन्धु । वाहसा । माध्वीइति । मम । श्रुतम् । हवम् ॥१७४४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1744
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में फिर योगाभ्यास का विषय है।

    पदार्थ

    हे (अश्विना) योग के अध्यापक और योग-क्रिया के प्रशिक्षक ! तुम दोनों (अत्यायातम्) विघ्नों को दूर करके हमें योग सिखाने के लिए आओ ! मैं भी योग सीखने के लिए (सना) सदा (विश्वाः) सब बाधाओं को (तिरः) तिरस्कृत कर देता हूँ। हे (दस्रा) योग-विघ्नों को नष्ट करनेवाले, (हिरण्यवर्तनी) प्रशस्त मार्ग का अवलम्बन करनेवाले, (सुषुम्णा) उत्कृष्ट सुख देनेवाले, (सिन्धुवाहसा) ज्ञान की नदियों को बहानेवाले, (माध्वी) प्राणों की मधुविद्या जाननेवाले योग के अध्यापक और योग-प्रशिक्षको ! तुम दोनों (मम) मुझ योग-जिज्ञासु की (हवम्) पुकार को (श्रुतम्) सुनो ॥२॥

    भावार्थ

    वे ही योग के अध्यापक और योग-प्रशिक्षक प्रशस्त माने जाते हैं, जो योगमार्ग में आये हुए व्याधि, स्त्यान, संशय, आलस्य आदि विघ्नों को सरल विधि से दूर करना सिखाते हैं और मधुविद्या नामक प्राणविद्या को देने में तथा अष्टाङ्ग योग के प्रशिक्षण में चतुर होते हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (अश्विना) हे ज्योतिस्वरूप एवं आनन्दरसरूप परमात्मन्! (अहं सना विश्वाः-तिरः) मैं उपासक सदा सारी कामनाओं को—वासनाओं चित्तवृत्तियों को तिरष्कृत करता हूँ, अतः तू (आयातम्) समन्तरूप से प्राप्त हो (दस्रा) हे दर्शनीय (हिरण्यवर्तनी) हृदयरमण मार्ग वाले (सुषुम्णा) शोभन सुख वाले—शोभन सुखप्रद (सिन्धुवाहसा) स्यन्दशील—बहते हुए उपासनारसों को प्राप्त करने वाला (माध्वी) जीवन में अध्यात्म मधु लाने वाले परमात्मन्! (मम हवं श्रुतम्) मेरे प्रार्थनावचन सुन॥२॥

    विशेष

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    विषय

    प्रभु की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (तिरः) = तिरोहित होकर - छिपकर रह रही (विश्वा) = सब कामादि वासनाओं को, हमारे न चाहते हुए भी हमारे अन्दर घुस आनेवाली आसुर वृत्तियों को आप (अति आयातम्) = लाँघ कर हमें प्राप्त होते हो । प्राणों की साधना से आसुर वृत्तियाँ पत्थर पर मिट्टी के ढेले के समान टकराकर नष्ट हो जाती हैं । २. इन वासनाओं के नाश के द्वारा ये प्राणापान (अहं सना) = उस अविनाशी प्रभु को प्राप्त करानेवाले हैं [अहम्-अहन्= अविनाशी, सन्=to acquire]। प्रभु-प्राप्ति का साधन वासना-विनाश ही तो है । ३. (दस्त्रा) =[दस् उपक्षये] ये प्राणापान शरीर के सब रोगों का और मन के सब मलों का नाश करनेवाले हैं । ४. (हिरण्यवर्तनी) = ये ज्योतिर्मय मार्गवाले हैं । वस्तुतः वीर्यरक्षा के द्वारा ज्ञानाग्नि को दीप्त करके ये प्राणापान हमारे जीवन को ज्योतिर्मय बनाते हैं ५. (सुषुम्णा) = ये उत्तम सुख देनेवाले हैं । शरीर को नीरोग, मन को निर्मल तथा बुद्धि को प्रकाशमय बनाकर ये मानव-जीवन को सुखी करते हैं । ६. (सिन्धुवाहसा) = ये प्राणापान शरीर में रुधिर का अभिसरण [सिन्धु] करनेवाले हैं। रुधिर के ठीक अभिसरण से शरीर का स्वास्थ्य ठीक बना रहता है ।७. . (माध्वी) = ये प्राणापान अत्यन्त मधुर हैं— जीवन को मधुर बनानेवाले हैं। ये (मम हवम् श्रुतम्) = मेरी पुकार को सुनें । मैं इनकी आराधना करूँ और ये मेरे जीवन को मधुर व सुन्दर बना दें।

    भावार्थ

    ये प्राणापान वासनाओं को परे भगाकर हमें प्रभु के समीप पहुँचाते हैं।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (अश्विना) पूर्वोक्त प्राण अपानरूप अश्विदेवो ! आप (दस्रा) दोषों के परिशोधक, (हिरण्यवर्त्तनी) आत्मा के आश्रय पर विराजमान, (सुषुम्णा) उत्तम सुख के देने हारे, अथवा ‘सुषुम्ना’ उत्तम रूपसे शरीर में व्यापक, सुषुम्ना रूप से विद्यमान, (सिन्धुवाहसा) गतिशील नाड़ियों में रुधिर को प्रेरित करने हारे, (माध्वी) मधुर, अमृतमय मधुविद्या से युक्त (सना) सनातन से वर्त्तमान, आप दोनों (अतिआयातम्) सब बाधाओं को पार करके प्राप्त होवो (अहं) और में आत्मा (विश्वाः) सब को (तिरः) पार करूं। अतः आप (मम) मेरी (हवम्) उपासना या आज्ञा या वचन को (श्रुतं) श्रवण करो।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि योगाभ्यासविषयमाह।

    पदार्थः

    हे (अश्विना) योगाध्यापकयोगक्रियाप्रशिक्षकौ ! (अत्यायातम्) इतराणि कार्याण्यतिक्रम्य अस्मान् योगं शिक्षयितुम् आगच्छतम्। अहमपि योगं शिक्षितुम् (सना) सदा (विश्वाः) सर्वाः बाधाः (तिरः) तिरस्करोमि। हे (दस्रा) योगविघ्नानाम् उपक्षेतारौ, (हिरण्यवर्तनी) योगविद्याप्रशिक्षणे प्रशस्तमार्गावलम्बिनौ, (सुषुम्णा) सुसुम्नौ, शोभनं सुम्नं सुखं याभ्यां तौ सुप्रशस्तानन्ददातारौ, (सिन्धुवाहसा) ज्ञाननदीनां वाहकौ, (माध्वी) प्राणानां मधुविद्याविदौ योगाध्यापकयोगप्रशिक्षकौ ! युवाम् (मम) योगजिज्ञासोः (हवम्) आह्वानम् (श्रुतम्) शृणुतम्। [अत्र ‘दस्रा’, ‘सुषुम्णा’, ‘माध्वी’ इति सम्बोधनान्तेषु पदेषु पादादित्वात् षाष्ठेनाद्युदात्तत्वम्। ततः परं ‘हिरण्यवर्तनी’, ‘सिन्धुवाहसा’ इत्यत्रापि ‘आमन्त्रितं पूर्वमविद्यमानवत्’ अ० ८।१।७२ इति पूर्वामन्त्रितस्याविद्यमानत्वात् पादादित्वे सति षाष्ठेनाद्युदात्तत्वममेव, न त्वाष्टमिकेन निघात इति ज्ञेयम्] ॥२॥२

    भावार्थः

    तावेव योगाध्यापकयोगप्रशिक्षकौ प्रशस्तौ मन्येते यौ योगमार्गे समागतान् व्याधिस्त्यानसंशयालस्यादीन् विघ्नान् सरलेन विधिना दूरीकर्तुं शिक्षयतोऽपि च मधुविद्याख्यायाः प्राणविद्यायाः प्रदानेऽष्टाङ्गयोगप्रशिक्षणे च निपुणौ भवतः ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Prana and Apana, the removers of disorder of the humours of the body, subservient to soul, the bringers of nice happiness, the urgers of blood in the active veins, swept and charming, immemorial, come overcoming all impediments. May I subdue all inimical passions. Listen to my behest!

    Translator Comment

    I and my refer to the soul.

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    Meaning

    Ashvins, leading lights of life in existence, destroyers of suffering, harbingers of peace and prosperity, creators of honey sweets, listen to my prayer: Come over regions of earth across the spaces, travelling by golden chariots over golden highways, navigating by rivers and oceans, so that I may cross all hurdles of existence and live as the immortal that I am. (Rg. 5-75-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अश्विना) હે જ્યોતિસ્વરૂપ અને આનંદરસરૂપ પરમાત્મન્ ! (अहं सना विश्वाः तिरः) હું ઉપાસક સદા સમસ્ત કામનાઓનો-વાસનાઓ ચિત્તવૃત્તિઓનો તિરસ્કાર કરું છું, તેથી તું (आयातम्) સમગ્રરૂપથી પ્રાપ્ત થા. (दस्रा) હે દર્શનીય (हिरण्यवर्तनी) હૃદય ૨મણ માર્ગવાળા (सुषुम्णा) સુંદર સુખવાળા સુંદર સુખપ્રદ (सिन्धुवाहसा) સ્પંદનશીલ-વહેતાં ઉપાસનારસોને પ્રાપ્ત કરનાર (माध्वी) જીવનમાં અધ્યાત્મ મધ લાવનાર પરમાત્મન્ ! (मम हवं श्रुतम्) મારા પ્રાર્થના વચનને સાંભળ. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे योगमार्गात येणाऱ्या व्याधी, स्त्यान, संशय, आळस इत्यादी विघ्नांना सहजपणे दूर हटविता येते, हे शिकवितात, तेच योगाचे अध्यापक व योगप्रशिक्षक प्रशंसनीय मानले जातात व मधु विद्या नावाची प्राणविद्या देण्यात व अष्टांग योगाच्या प्रशिक्षणात चतुर असतात. ॥२॥

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