Loading...

सामवेद के मन्त्र

  • सामवेद का मुख्य पृष्ठ
  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1745
    ऋषिः - अवस्युरात्रेयः देवता - अश्विनौ छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    3

    आ꣢ नो꣣ र꣡त्ना꣢नि꣣ बि꣡भ्र꣢ता꣣व꣡श्वि꣢ना꣣ ग꣡च्छ꣢तं यु꣣व꣢म् । रु꣢द्रा꣣ हि꣡र꣢ण्यवर्तनी जुषा꣣णा꣡ वा꣢जिनीवसू꣣ मा꣢ध्वी꣣ म꣡म꣢ श्रुत꣣ꣳ ह꣡व꣢म् ॥१७४५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ꣢ । नः꣣ । र꣡त्ना꣢꣯नि । बि꣡भ्र꣢꣯तौ । अ꣡श्वि꣢꣯ना । ग꣡च्छ꣢꣯तम् । यु꣣व꣢म् । रु꣡द्रा꣢꣯ । हि꣡र꣢꣯ण्यवर्तनी । हि꣡र꣢꣯ण्य । व꣣र्तनीइ꣡ति꣢ । जु꣣षाणा꣢ । वा꣣जिनीवसू । वाजिनी । वसूइ꣡ति꣢ । माध्वी꣢꣯इ꣡ति꣢ । म꣡म꣢꣯ । श्रु꣣तम् । ह꣡व꣢꣯म् ॥१७४५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो रत्नानि बिभ्रतावश्विना गच्छतं युवम् । रुद्रा हिरण्यवर्तनी जुषाणा वाजिनीवसू माध्वी मम श्रुतꣳ हवम् ॥१७४५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ । नः । रत्नानि । बिभ्रतौ । अश्विना । गच्छतम् । युवम् । रुद्रा । हिरण्यवर्तनी । हिरण्य । वर्तनीइति । जुषाणा । वाजिनीवसू । वाजिनी । वसूइति । माध्वीइति । मम । श्रुतम् । हवम् ॥१७४५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1745
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर वही विषय है।

    पदार्थ

    हे (अश्विना) योगशास्त्र के अध्यापक और योग-विधियों के प्रशिक्षक ! (रत्नानि) योगसिद्धि के रमणीय ऐश्वर्यों को (बिभ्रतौ) धारण करनेवाले (युवम्) तुम दोनों (नः) हम योग-जिज्ञासुओं के पास (आगच्छतम्) आओ। हे (रुद्रा) रोदक योग-विघ्न आदि को दूर करनेवाले, (हिरण्य-वर्तनी) तेजस्वी मार्ग का अवलम्बन करनेवाले (जुषाणा) प्रीति करनेवाले (वाजिनीवसू) योगाभ्यास-क्रिया ही जिनका धन है ऐसे, (माध्वी) मधुर प्राणविद्या को जाननेवाले योगाध्यापक और योगप्रशिक्षको ! तुम दोनों (मम) मुझ योग-जिज्ञासु की (हवम्) पुकार को (श्रुतम्) सुनो ॥३॥

    भावार्थ

    वे ही योगाध्यापक और योग-प्रशिक्षक योगविद्या देने में सफल होते हैं, जो स्वयं योग-सिद्धियों से युक्त और योगविद्या के धुरंधर होते हैं ॥३॥ इस खण्ड में जगदीश्वर, जगन्माता और योगाभ्यास के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ उन्नीसवें अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    पदार्थ

    (अश्विना) हे ज्योतिस्वरूप एवं आनन्दरसरूप परमात्मन्! (युवम्-‘युवाम्’) तू (नः) हम उपासकों के लिये (रत्नानि बिभ्रतौ) रमणीय सुख साधनों को धारण करता हुआ (आगच्छतम्) आ—प्राप्त हो (रुद्रा) हमें बुलाता हुआ२ (हिरण्यवर्तनी) हितरमण मार्ग वाला (जुषाणा) हम उपासकों को प्रेम करता हुआ (वाजिनीवसु) अमृत अन्न वाला३ मुक्ति में वसाने वाला (माध्वी मम हवं श्रुतम्) जीवन अध्यात्म मधु लाने वाले परमात्मन्! मेरे प्रार्थना वचन को सुन॥३॥

    विशेष

    <br>

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    रत्नों का लाभ

    पदार्थ

    १. हे (अश्विाना) = प्राणापानो ! (रत्नानि बिभ्रतौ) = रमणीय स्वास्थ्य, नैर्मल्य व ज्ञान आदि — धनों को प्राप्त कराते हुए (नः) = हमारे प्रति (युवम्) = आप दोनों (आगच्छतम्) = आओ । (‘प्राणापाना इह मे रमन्ताम्') = प्राण और अपान जब शरीर में रमण करते हैं तब शरीर रमणीय रत्नों की खान बनता है। रत्नों के द्वारा ये प्राणापान इस शरीर-रथ को अलंकृत कर डालते हैं। २. (रुद्रा) = ये प्राणापान रुद्र हैं— रोग व द्वेषादिरूप शत्रुओं के लिए भयंकर हैं । स्वास्थ्य व नैर्मल्य के साधक हैं।

    ३. (हिरण्यवर्तनी) = जीवन के मार्ग को ज्योतिर्मय बनानेवाले हैं।

    ४. (जुषाणा) = प्रीतिपूर्वक प्रभु का सेवन करनेवाले हैं। [जुष्=प्रीतिसेवनयोः] । प्राण-साधना से चित्तवृत्ति एकाग्र होती है और मन प्रभु में केन्द्रित होकर अवर्णनीय आनन्द का अनुभव करता है| 

    ५. (वाजिनीवसू) = शक्तिरूप धन को प्राप्त करानेवाले ये प्राणापान (माध्वी) = अत्यन्त मधुर हैं । प्राणसाधना से शक्ति की अत्यधिक वृद्धि होती हैं । हे प्राणापानो ! (मम हवं श्रुतम्) = मेरी पुकार सुनो।

    भावार्थ

    प्राणसाधना के द्वारा हम रमणीय धनों का लाभ करें।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे (अश्विनौ) अश्विदेवो ! (युवं) आप दोनों (रत्नानि) रमण साधन इन्द्रियों को धारण करते हुए (नः) हमारे पास (आगच्छतं) आओ। आप दोनों (रुद्राः) देह को छोड़ते समय कष्ट देने हारे, रुलाने हारे, (हिरण्यवर्त्तनी) आत्मरूप रथ पर गति करने वाले (वाजिनीवसू) ज्ञानमयी और बलमयी चित्ति शक्ति में बसने हारे (माध्वी) मधुविद्या, आत्मविद्या जानने हारे, (जुषाणा) नित्य इस जीवन यज्ञ को सेवन करने वाले (मम हवं श्रुतं) मेरे वचन को श्रवण करो मेरे वशवर्ती रहो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अत पुनस्तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    हे (अश्विना) अश्विनौ योगाध्यापकयोगप्रशिक्षकौ ! (रत्नानि) रमणीयानि योगसिद्ध्यैश्वर्याणि (बिभ्रतौ) धारयन्तौ (युवम्) युवाम् (नः) योगजिज्ञासूनस्मान् (आगच्छतम्) आयातम्। हे (रुद्रा), रुद्रौ, रुदं रोदकं योगविघ्नादिकं द्रावयतो यौ तौ, (हिरण्यवर्तनी) तेजस्विमार्गावलम्बिनौ, (जुषाणा) जुषाणौ प्रीतिं कुर्वन्तौ, (वाजिनीवसू) वाजिनी बलवती योगाभ्यासक्रिया एव वसु धनं ययोस्तौ, (माध्वी) मधुमयप्राणविद्याविदौ योगाध्यापकप्रशिक्षकौ ! युवाम् (मम) योगजिज्ञासोः (हवम्) आह्वानम् (श्रुतम्) शृणुतम् ॥३॥२

    भावार्थः

    तावेव योगाध्यापकयोगप्रशिक्षकौ योगविद्याप्रदाने सफलौ जायेते यौ स्वयं योगसिद्धिसम्पन्नौ योगविद्याधुरंधरौ भवतः ॥३॥ अस्मिन् खण्डे जगदीश्वरस्य जगन्मातुर्योगाभ्यासस्य च विषयाणां वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Ashwins, possessing the organs, come unto us. Ye both, which make us weep at the tune of leaving the body, ride on the chariot of the soul, dwell in mental faculty full of knowledge and strength, are charming, and constant companions of this sacrifice (Yajna) of life, remain under my control!

    Translator Comment

    Ashwins: Prana and Apana. Us means worshippers. My refers to soul

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    Ashvins, come you both to us, bearing jewel wealths of life; come, O Rudras, dispensers of justice and punishment, travelling by golden chariot over golden highways, loving and listening partners, givers of food, energy and speedy progress, creators of the sweets of life, come in response to our invocation and listen to our prayer. (Rg. 5-75-3)

    इस भाष्य को एडिट करें

    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अश्विना) હે જ્યોતિસ્વરૂપ અને આનંદરસરૂપ પરમાત્મન્ ! (युवम् "युवाम्") તું (नः) અમારા ઉપાસકોને માટે (रत्नानि बिभ्रतौ) રમણીય સુખ સાધનોને ધારણ કરતાં (आगच्छतम्) આવ-પ્રાપ્ત થા. (रुद्रा) અમને બોલાવતાં (हिरण्यवर्तनी) હિત રમણ માર્ગવાળા (जुषाणा) અમને-ઉપાસકોને પ્રેમ કરતાં (वाजिनीवसु) અમૃત અન્નવાળા મુક્તિમાં વસવનારા (माध्वी मम हवं श्रुतम्) જીવન અધ્યાત્મ મધ લાવનારા પરમાત્મન્ ! મારા પ્રાર્થના વચનને સાંભળ. (૩)
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे स्वत: योगसिद्धीने युक्त व योग विद्येचे धुरंधर असतात, तेच योगाध्यापक व योगप्रशिक्षक योगविद्या देण्यात सफल होतात. ॥३॥ या खंडात जगदीश्वर, जगन्माता व योगाभ्यासाच्या विषयाचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top