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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1747
    ऋषिः - बुधगविष्ठिरावात्रेयौ देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    3

    अ꣡बो꣢धि꣣ हो꣡ता꣢ य꣣ज꣡था꣢य दे꣣वा꣢नू꣣र्ध्वो꣢ अ꣣ग्निः꣢ सु꣣म꣡नाः꣢ प्रा꣣त꣡र꣢स्थात् । स꣡मि꣢द्धस्य꣣ रु꣡श꣢ददर्शि꣣ पा꣡जो꣢ महा꣢न्दे꣣व꣡स्तम꣢꣯सो꣣ नि꣡र꣢मोचि ॥१७४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡बो꣢꣯धि । हो꣡ता꣢꣯ । य꣣ज꣡था꣢य । दे꣣वा꣢न् । ऊ꣣र्ध्वः꣢ । अ꣣ग्निः꣢ । सु꣣म꣡नाः꣢ । सु꣣ । म꣡नाः꣢꣯ । प्रा꣣तः꣢ । अ꣣स्थात् । स꣡मि꣢꣯द्धस्य । सम् । इ꣣द्धस्य । रु꣡श꣢꣯त् । अ꣡दर्शि । पा꣡जः꣢꣯ । म꣣हा꣢न् । दे꣣वः꣢ । त꣡म꣢꣯सः । निः । अ꣣मोचि ॥१७४७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अबोधि होता यजथाय देवानूर्ध्वो अग्निः सुमनाः प्रातरस्थात् । समिद्धस्य रुशददर्शि पाजो महान्देवस्तमसो निरमोचि ॥१७४७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अबोधि । होता । यजथाय । देवान् । ऊर्ध्वः । अग्निः । सुमनाः । सु । मनाः । प्रातः । अस्थात् । समिद्धस्य । सम् । इद्धस्य । रुशत् । अदर्शि । पाजः । महान् । देवः । तमसः । निः । अमोचि ॥१७४७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1747
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर उसी विषय को कहते हैं।

    पदार्थ

    (होता) होम के साधन अग्नि ने (यजथाय) यज्ञ करने के लिए (देवान्) विद्वान् यजमानों को (अबोधि) जगा दिया है। (प्रातः) प्रभात में (सुमनाः) मनों को शुभ बनानेवाला (अग्निः) यज्ञाग्नि (ऊर्ध्वः) ऊर्ध्वोन्मुख (अस्थात्) स्थित हो गयी है। (समिद्धस्य) प्रज्वलित हुए इस यज्ञाग्नि का (रुशत्) चमकता हुआ (पाजः) रूप (अदर्शि) दिखायी दे रहा है। (महान्) महान् (देवः) प्रकाशक अग्नि ने (तमसः) अन्धकार से (निरमोचि) छुड़ा दिया है ॥२॥ इस मन्त्र में भी स्वभावोक्ति अलङ्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे प्रज्वलित, ऊँची ज्वालाओंवाली, चमकती हुई यज्ञाग्नि अँधेरे से छुड़ाती है, वैसे ही देदीप्यमान ऊर्ध्वयात्री, तेजस्वी आत्मा मन-बुद्धि आदि को तमोगुण से छुड़ाता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (होता-अग्निः) स्वीकारकर्ता ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा (यजथाय देवान्-अबोधि) अध्यात्मयज्ञ करने के लिये मुमुक्षुउपासकों को सावधान करता है (सुमनाः) शोभन मनोभाव जिससे हो ऐसा है (प्रातः-ऊर्ध्वः-अस्थात्) जीवन के मार्ग प्रकृष्ट करते हुए बढ़ते समय में उत्कृष्टरूप में१ आत्मा में साक्षात् होता है जरावस्था में नहीं (समिद्धस्य रुशत् पाजः) प्रसिद्ध हुए का प्रकाशमान बलस्वरूप२ साक्षात् होता है (महान् देवः) महान् देव परमात्मा (तमः-निरमोचि) अज्ञानान्धकार से छुड़ा देता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    प्रारम्भ से अन्त तक कैसे?

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि बुध-ज्ञानी व 'गविष्ठिर'= इन्द्रियों का अधिष्ठाता – जितेन्द्रिय है। ‘यह ऐसा कैसे बन पाया ?' इसका रहस्य निम्न चार बातों में छिपा है—

    १. सबसे प्रथम तो यह (होता) = माता-पिता, आचार्य के प्रति अपना पूर्ण समर्पण करनेवाला (देवान् यजथाय) = देवों के साथ सङ्गतीकरण के द्वारा (अबोधि) = उद्बुद्ध हुआ [यजथाय=यजथेन]। ज्ञानी बनने के लिए दो बातें आवश्यक हैं [क] माता पिता व आचार्य के प्रति समर्पण – उनके निर्देशों का पूर्णरूपेण पालन तथा [ख] उनका सङ्गतीकरण- सदा उनके सम्पर्क में रहना । ५ वर्ष तक माता के शिक्षणालय में, ८ वर्ष तक पिता के शिक्षणालय में, फिर २४ वर्ष तक आचार्यकुल में रहकर यह उनके ज्ञान को अपने में संचरित करता है, तभी यह अग्नि के रूप में उद्बुद्ध होता हैज्ञानवान् बनता है।

    २. अब जीवन के द्वितीय प्रयाण में (अग्नि:) = यह आगे और आगे बढ़नेवाला व्यक्ति (सुमनाः) = प्रशस्त मनवाला होता हुआ (प्रातः) = बहुत सवेरे (ऊर्ध्वः अस्थात्) = ऊपर उठ खड़ा होता है । गृहस्थ के लिए भी दो बातें महत्त्वपूर्ण हैं [क] सदा उत्तम मनवाला होने का प्रयत्न करे, किसी से वैर-विरोध न करे, मधुर बनने के लिए प्रयत्नशील हो । [ख] प्रातः काल उठ खड़ा हो, अर्थात् आलस्य को दूर भगाकर सदा पुरुषार्थमय जीवन बिताये ।

    ३. गृहस्थ के पश्चात् जीवन के तृतीय प्रयाण में यह वनस्थ होकर सतत स्वाध्याय में जीवन यापन करता है और (समिद्धस्य) = ज्ञान की दीप्ति से दीप्त हुए इस वनस्थ का (पाज:) = तेज रुशत्-चमकता हुआ (अदर्शि) = दिखता है । 
    वानप्रस्थ ने फिर से साधना करके [क] ज्ञान तथा [ख] तेज का सम्पादन करना है। ज्ञानी व तेजस्वी बनकर ही तो वह अब लोकहित में प्रवृत्त होगा।

    ४. ज्ञानी व तेजस्वी बनकर यह संन्यस्त होता है। प्रभु का प्रतिरूप-सा बनता है । यह (महान् देव:) = महादेव बना हुआ (तमसः) = अन्धकार से (निरमोचि) = स्वयं तो मुक्त हो ही जाता है—सम्पूर्ण जगत् को अन्धकार से मुक्त करने के लिए प्रयत्नशील होता है । यह [क] महान्=[मह पूजायाम्] पूजा की वृत्तिवाला है – सदा प्रभु का नाम-स्मरण करता है और [ख] देव:=[दीपनाद् वा द्योतनाद्वा] स्वयं ज्ञान से दीप्त होता है और संसार को ज्ञान से द्योतित करता है ।

    भावार्थ

    मेरा जीवन आचार्यों के प्रति पूर्ण समर्पण व उनके सङ्गतीकरण से प्रारम्भ हो । गृहस्थ में प्रशस्त मनवाला व आलस्य को दूर भगानेवाला बनूँ । वनस्थ होकर मैं ज्ञान व तेज का संचय करूँ और अन्तिम प्रयाण में प्रभु-पूजा व ज्ञान-प्रसार ही मेरा ध्येय हो।
     

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    विषय

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    भावार्थ

    (देवान्) विद्वानों और ३३ देवों को (यजथाय) एकत्र संगति करने के लिये, (होता) समस्त जगत् का दान अर्थात् उत्पत्ति और आदान अर्थात् प्रलय का कर्त्ता (अग्निः) सूर्य के समान स्वयं प्रकाशक परमात्मा (सुमनाः) उत्तम ज्ञान से युक्त (अबोधि) सदा उदित होता है। वही सबसे (ऊर्ध्वः) ऊपर विराजमान होकर भी (प्रातः) प्रकृष्ट रूप से व्यापक होकर प्रातः उदित सूर्य के समान सर्वत्र (अस्थात्) विद्यमान रहता है। (समिद्धस्य) देदीप्यमान उस महान् प्रभु का (रुशत्) तेजस्वी (पाजः) बल (अदर्शि) साक्षात् दीखता है। वही (महान् देवः) महान् देव, सूर्य के समान महा देव समस्त चर अचर संसार को (तमसः) मृत्युरूप तम से (निरमोचि) सर्वथा मुक्त कर निश्रेयस प्राप्त कराता है। प्रातः—प्रात्ततेररुन् (उणादि० ५। ५९) प्रकृष्टमतति गच्छति इति प्रातः (दया० उ०)

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    (होता) होमसाधनः अग्निः (यजथाय) यजनाय (देवान्) विदुषो यजमानान् (अबोधि) प्रबोधयति। (प्रातः) प्रभाते (सुमनाः) शोभनानि मनांसि यस्मात् तादृशः (अग्निः) यज्ञाग्निः (ऊर्ध्वः) ऊर्ध्वोन्मुखः (अस्थात्) तिष्ठति। (समिद्धस्य) प्रदीप्तस्य अस्य यज्ञाग्नेः (रुशत्) रोचमानम् (पाजः) रूपम् (अदर्शि) दृश्यते। (महान्) महिमोपेतः (देवः) प्रकाशकः एषोऽग्निः, (तमसः) अन्धकारात् (निरमोचि) निर्मोचितवानस्ति ॥२॥२ अत्रापि स्वभावोक्तिरलङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    यथा प्रज्वलित ऊर्ध्वज्वालो रोचमानो यज्ञाग्निस्तमसो निर्मोचयति तथैव देदीप्यमान ऊर्ध्वयात्रो रोचिष्णुरात्मा मनोबुद्ध्यादीन् तमोगुणाद् निर्मोचयति ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The Self-Refulgent God, the Creator and Dissolvent of the universe. Omniscient, appears for imparting knowledge to the learned. He, the Highest of all, pervades places like the sun rising in the morning. The radiant might of the Luminous God is made apparent. The Almighty Father releases all from the darkness of death.

    Translator Comment

    God alone grants salvation to men.

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    Meaning

    The yajaka Agni, good at heart, is seen to invoke the divinities and noble sages to the yajna and rises high while the fire keeps burning and rising. The light of the burning fire is seen as a blissful divine power and then the great refulgent sun rises from the nights darkness. (Rg. 5-1-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (होता अग्निः) સ્વીકારકર્તા જ્ઞાન પ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મા (यजथाय देवान् अबोधि) અધ્યાત્મયજ્ઞ કરવા માટે મુમુક્ષુ ઉપાસકોને સાવધાન કરે છે (सुमनाः) શોભન મનોભાવ જેનો હોય એવો છે (प्रातः ऊर्ध्वः अस्थात्) જીવનના માર્ગને પ્રકૃષ્ટ કરતાં વર્ધમાન અવસ્થામાં ઉત્કૃષ્ટ રૂપમાં આત્મામાં સાક્ષાત્ થાય છે, જરાવસ્થા-વૃદ્ધાવસ્થામાં નહીં. (समिद्धस्य रुशत् पाजः) પ્રસિદ્ધ થયેલ પ્રકાશમાન બળસ્વરૂપ સાક્ષાત્ થાય છે. (महान् देवः) મહાન દેવ પરમાત્મા (तमः निरमोचि) અજ્ઞાન અંધકાર-મૃત્યુરૂપી અંધકારથી છોડાવે છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशा प्रज्वलित वर जाणाऱ्या ज्वाला, चमकणाऱ्या यज्ञाग्नीद्वारे अंधार नष्ट करतात, तसेच देदीप्यमान ऊर्ध्वयात्री, तेजस्वी आत्मा, मन-बुद्धी इत्यादींना तमोगुणापासून दूर करतो. ॥२॥

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