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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1770
    ऋषिः - नृमेधो वामदेवो वा देवता - इन्द्रः छन्दः - द्विपदा गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    1

    वि꣢ स्रु꣣त꣢यो꣣ य꣡था꣢ प꣣थ꣢꣫ इन्द्र त्वद्यन्तु रातयः ॥१७७०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । स्रु꣣त꣡यः꣢ । य꣡था꣢꣯ । प꣣थः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯ । त्वत् । य꣣न्तु । रात꣡यः꣢ ॥१७७०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि स्रुतयो यथा पथ इन्द्र त्वद्यन्तु रातयः ॥१७७०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वि । स्रुतयः । यथा । पथः । इन्द्र । त्वत् । यन्तु । रातयः ॥१७७०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1770
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    तृतीय ऋचा पूर्वार्चिक में ४५३ क्रमाङ्क पर परमात्मा, जीवात्मा और राजा को सम्बोधन की गयी थी। यहाँ परमेश्वर और आचार्य को कहते हैं।

    पदार्थ

    (यथा) जिस प्रकार (पथः) राजमार्ग से (सुतयः) छोटे-छोटे मार्ग विविध दिशाओं में जाते हैं, उसी प्रकार हे (इन्द्र) जगदीश्वर वा आचार्य ! (त्वत्) आपके पास से (रातयः) ऐश्वर्यों के दान वा विद्या-दान (वियन्तु) विविध लोगों के पास जाएँ ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे राजमार्ग से विविध छोटे-छोटे मार्ग निकल कर पथिकों का उपकार करते हैं, वैसे ही परमेश्वर और आचार्य से दिव्य गुण-कर्म और विविध विद्याएँ निकल कर उपासकों वा शिष्यों को उपकृत करें ॥३॥

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    टिप्पणी

    (देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या ४५३)

    विशेष

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    विषय

    बन्धनों का खण्डन

    पदार्थ

    गत मन्त्र में विषयों से बद्ध एक पुरुष अन्ततोगत्वा अपनी दुर्गति को अनुभव करता हुआ प्रभु से कहता है कि हे प्रभो! सब बलों के पति ‘शवसस्पति' तो आप ही हैं । आपसे दूर होकर मैं तो सब शक्ति खो बैठा हूँ — मेरे आनन्द की ज्योति भी बुझ । मुझे अब क्या करना चाहिए? मेरे उद्धार का मार्ग क्या है ? प्रभु उत्तर देते हैं कि -

    (इन्द्र) = हे इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव ! तू यह मत भूल कि तू ‘इन्द्र' है—‘इन्द्रियों का अधिष्ठाता है, न कि दास'। अब तू ऐसा प्रयत्न कर कि (रातयः) = दान (त्वत्) = तुझसे यन्तु इस प्रकार चलें— प्रवाहित हों (यथा) = जैसे (पथ:) = मार्ग से (विस्स्रुतयः) = विविध पर्वतीय जल प्रवाह बहते हैं । ये जलप्रवाह किस प्रकार चट्टानों को भी कुरेद कर अपना रास्ता बनाते हुए आगे बढ़ते जाते हैं, उसी प्रकार तेरे ये दान-प्रवाह भी तेरे जीवन मार्ग में आई हुई इन विषय चट्टानों को कुरेद कर तुझे आगे बढ़ा ले-चलेंगे। दान का अर्थ देना ही तो नहीं है; देने के साथ 'दो अवखण्डने' से बनकर 'दान' शब्द खण्डन की भावना को भी व्यक्त करता है। ये दान तेरे बन्धनों का सचमुच खण्डन करेंगे । विषयवृक्ष के मूलभूत लोभ पर ही यह दान कुठाराघात करता है और 'दैप् शोधने' शुद्ध बना देता है। एवं, बन्धनों से बचने का या उत्पन्न बन्धनों के खण्डन का उपाय एक ही है – “दान'', अतः प्रस्तुत मन्त्र में प्रभु की ओर से जीव को दान की प्रेरणा की गयी है । जितना - जितना हम इस प्रेरणा को सुनेंगे व अनुष्ठान में लाएँगे उतना-उतना ही बद्ध न रहकर ब्रह्मा बनने के लिए अग्रसर होंगे। 

    भावार्थ

    मैं‘दान' का अविकल पाठ पढ़नेवाला बनूँ, जिससे बद्ध स्थिति से ब्रह्मा की स्थिति में पहुँच सकूँ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तृतीया ऋक् पूर्वार्चिके ४५३ क्रमाङ्के परमात्मानं जीवात्मानं राजानं च सम्बोधिता। अत्र परमेश्वर आचार्यश्चोच्यते।

    पदार्थः

    (यथा) येन प्रकारेण (पथः२) राजमार्गात् (स्रुतयः) लघुमार्गाः वियन्ति विभिन्नासु दिक्षु गच्छन्ति तद्वत्, हे (इन्द्र) जगदीश्वर आचार्य वा ! (त्वत्) त्वत्सकाशात्, (रातयः) ऐश्वर्यदानानि विद्यादानानि (च वियन्तु) विविधं गच्छन्तु ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥

    भावार्थः

    यथा राजमार्गादन्ये विविधा लघुमार्गा निःसृत्य पथिकानुपकुर्वन्ति तथैव परमेश्वरादाचार्याच्च दिव्यगुणकर्माणि विविधा विद्याश्च निःसृत्योपासकान् शिष्यांश्चोपकुर्वन्तु ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O King, just as from the main channel, streamlets flow in different direction, so do multifarious bounties flow from thee to thy devotees!

    Translator Comment

    See verse 453.

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    Meaning

    Like streams of water flowing by their natural course, O lord munificent, Indra, let your gifts of wealth, honour and excellence flow free for humanity.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्र) હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (यथा) જેમ (विस्रुतयः) વિવિધ સ્રવણ કરનારી પોત-પોતાના માર્ગોથી પૃથિવીનું સિંચન કરે છે, તેમજ (त्वत्) તારા દ્વારા (रातयः) તારી દાન ધારાઓ અમને (यन्तु) પ્રાપ્ત થાય. (૭)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્મન્ ! એમાં સંદેહ નથી કે, જ્યારે અમે તારા ઉપાસક બની જઈએ છીએ, ત્યારે જેમ માર્ગમાં વહેતી વિવિધ જલધારાઓ-નદીઓ પૃથિવી પર પ્રાપ્ત થાય છે, તેમ અમારા ઉપાસકોની તરફ તારી દાનધારાઓ પણ પ્રાપ્ત થાય છે. (૭)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे मुख्य मार्गातूनच लहान लहान मार्ग निघून पांथस्थावर उपकार करतात, तसेच परमेश्वर व आचार्याकडून दिव्य गुण-कर्म व विविध विद्या प्राप्त करून उपासकांना व शिष्यांना उपकृत करावे. ॥३॥

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