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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1771
ऋषिः - प्रियमेध आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
2
आ꣢ त्वा꣣ र꣢थं꣣ य꣢थो꣣त꣡ये꣢ सु꣣म्ना꣡य꣢ वर्तयामसि । तु꣣विकूर्मि꣡मृ꣢ती꣣ष꣢हमि꣡न्द्रं꣢ शविष्ठ꣣ स꣡त्प꣢तिम् ॥१७७१॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । त्वा꣣ । र꣡थ꣢꣯म् । य꣡था꣢꣯ । ऊ꣣त꣡ये꣢ । सु꣣म्ना꣡य꣢ । व꣣र्तयामसि । तुविकूर्मि꣢म् । तु꣣वि । कूर्मि꣢म् । ऋ꣣तीष꣡ह꣢म् । ऋति । स꣣हम् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । श꣣विष्ठ । स꣡त्प꣢꣯तिम् । सत् । प꣣तिम् ॥१७७१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा रथं यथोतये सुम्नाय वर्तयामसि । तुविकूर्मिमृतीषहमिन्द्रं शविष्ठ सत्पतिम् ॥१७७१॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । त्वा । रथम् । यथा । ऊतये । सुम्नाय । वर्तयामसि । तुविकूर्मिम् । तुवि । कूर्मिम् । ऋतीषहम् । ऋति । सहम् । इन्द्रम् । शविष्ठ । सत्पतिम् । सत् । पतिम् ॥१७७१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1771
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
प्रथम ऋचा पूर्वाचिक में ३५४ क्रमाङ्क पर परमात्मा और राजा को सम्बोधित की गयी थी। यहाँ परमात्मा और जीवात्मा को सम्बोधन करते हैं।
पदार्थ
हे (शविष्ठ) बलिष्ठ परमेश्वर वा जीवात्मन् ! (तुविकूर्मिम्) बहुत-से कर्मों के कर्ता, (ऋतीषहम्) आक्रामक शत्रु-सेनाओं को पराजित करनेवाले, (सत्पतिम्) सज्जनों के पालनकर्ता (इन्द्रं त्वा) सत्य, अहिंसा आदि ऐश्वर्यों से युक्त, विघ्नों को दूर करने में समर्थ आप परमेश्वर वा जीवात्मा को, हम (ऊतये) रक्षा के लिए और (सुम्नाय) सुख के लिए (आवर्तयामसि) अपनी ओर प्रवृत्त करते हैं, (यथा) जिस प्रकार (रथम्) रथ को प्रवृत्त किया जाता है ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य यदि परमेश्वर की उपासना करे और उसका आत्मा यदि जागरूक तथा सक्रिय हो जाए, तो वह महान् उत्कर्ष और मोक्ष को भी प्राप्त कर सकता है ॥१॥
टिप्पणी
(देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या ३५४)
विशेष
ऋषिः—प्रियमेधः (प्रिय है मेधा जिसको ऐसा उपासक)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥<br>
विषय
विश्वेश, न कि विषय
पदार्थ
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘प्रियमेध’=‘जिसको बुद्धि प्रिय है', वह प्रभु से कहता है कि हे (शविष्ठ) = सर्वाधिकशक्तिमन् प्रभो ! हम (त्वा) = आपको ही अपनी इस जीवन-यात्रा के (रथं आवर्तयामसि) = रथ के रूप में वर्त्तते हैं, जिससे (यथोतये) = यथायोग्य रक्षण होता रहे और हम (सुम्नाय) - सुखमय स्थिति को प्राप्त कर सकें । प्रभु 'शविष्ठ' है, उन्हें अपने रथ का सारथि बनाकर मैं अपनी शक्ति को कितना ही अधिक बढ़ा लेता हूँ। उस समय वासनाओं के आक्रमणों की आशंका नहीं रह जाती । मेरा यह रथ ठीक सुरक्षित बना रहता है और परिणामतः मेरा जीवन सुखी होता है ।
मैं उस प्रभु को अपने जीवन-रथ का सारथि बनाता हूँ जो -
१. (तुविकूर्मिम्) = महान् कर्म करनेवाले हैं। अब मैं भी तो अपने जीवन में कोई-न-कोई महान् कर्म ही कर पाऊँगा ।
२. (ऋतीषहम्) = जो दुर्गति का पराभव करनेवाला है। प्रभु की शरण में आ जाने पर किसी प्रकार की दुर्गति तो अब सम्भव ही नहीं है ।
३. (इन्द्रम्) = वे प्रभु परमैश्वर्यशाली हैं— उन्हीं को अपना रथ बना लेने से मैं भी तो उस परमैश्वर्य का पानेवाला बनता हूँ ।
४. (सत्पतिम्) = वे प्रभु सज्जनों के रक्षक हैं। प्रभु को जीवन रथ बनाने पर सत्य की अभिवृद्धि तो मुझमें होगी ही और परिणामतः मैं प्रभु की रक्षा का पात्र अवश्य बनूँगा । विश्वेश को अपना लेने पर किसी आवश्यक विषय की कमी का तो प्रश्न ही नहीं रह जाता । व्यर्थ की चिन्ताओं से ऊपर उठा हुआ जीवन आनन्दमय बनता चलता है।
भावार्थ
मेरी जीवन-यात्रा प्रभु-निर्भर होकर चले ।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३५४ क्रमाङ्के परमात्मानं राजानं च सम्बोधिता। अत्र परमात्मा जीवात्मा च सम्बोध्यते।
पदार्थः
हे (शविष्ठ) बलवत्तम परमेश जीवात्मन् वा ! (तुविकूर्मिम्) बहूनां कर्मणां कर्तारम्, (ऋतीषहम्) ऋतीः आक्रान्त्रीः शत्रुसेनाः (सहते) पराभवति यस्तम्, (सत्पतिम्) सतां पालकम् (इन्द्रम् त्वा) सत्याहिंसाद्यैश्वर्यवन्तं विघ्नविदारणसमर्थं परमेशं जीवात्मानं च त्वाम् (ऊतये) रक्षायै (सुम्नाय) सुखाय च, वयम् (आ वर्तयामसि) अस्मदभिमुखं प्रवर्तयामः। कथमिव ? (यथा) येन प्रकारेण (रथम्) शकटं कश्चित् प्रवर्तयति ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥
भावार्थः
मनुष्यो यदि परमेश्वरमुपासीत तस्यात्मा च यदि जागरूकः सक्रियश्च जायेत तदा स महान्तमुत्कर्षं निःश्रेयसं चापि प्राप्तुं शक्नुयात् ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Yogi, the doer of many deeds, the subduer of the impious, the master of spiritual force, the nourisher of the noble, we approach thee for protection and comfort, just as we approach a car!
Translator Comment
See verse 354.
Meaning
Indra, bravest of the brave, protector of the good and true, just as we turn the chariot, so do we draw your attention and pray you turn to us and come for our protection, welfare and enlightenment, lord of infinite action and conqueror of enemies. (Rg. 8-68-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (शविष्ठ) હે અનંત બળવાન ! પરમાત્મન્ ! (तुविकूर्मिम्) અનેક કર્મશક્તિયુક્ત , (ऋतीषहम्) જ્ઞાન કોષ ભાર વહન સમર્થ , (सत्पतिम्) સત્તા માત્રના સ્વામી (त्वा इन्द्रम्) તુજ પરમાત્માને અમે (ऊतये) રક્ષાને માટે , (सुम्नाय) સુખને માટે , (यथारथम्) રથની સમાન (आवर्तयामसि) અમારા જીવનમાં પુનઃ પુનઃ આવર્તિત કરીએ છીએ , તારું શરણ ગ્રહણ કરીએ છીએ. (૩)
भावार्थ
ભાવાર્થ : અનેક કર્મ શક્તિયુક્ત, જ્ઞાનકોષયુક્ત, સત્તા માત્રના સ્વામી પરમાત્માનું અમારી સંસાર સ્થિતિને માટે તથા વિશેષ સુખ-મોક્ષ સુખ પ્રાપ્તિ માટે રથ-વાહન-ગાડીની સમાન ધ્યાન, સ્મરણ ફરી ફરી જીવનમાં કરવું જોઈએ. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
माणसाने परमेश्वराची उपासना करून आत्म्याला जागरूक व सक्रिय केले तर तो महान उत्कर्ष व मोक्षालाही प्राप्त करू शकतो. ॥१॥
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