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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1781
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
2
जु꣢ष्टो꣣ हि꣢ दू꣣तो꣡ असि꣢꣯ हव्य꣣वा꣢ह꣣नो꣡ऽग्ने꣢ र꣣थी꣡र꣢ध्व꣣रा꣡णा꣢म् । स꣣जू꣢र꣣श्वि꣡भ्या꣢मु꣣ष꣡सा꣢ सु꣣वी꣡र्य꣢म꣣स्मे꣡ धे꣢हि꣣ श्र꣡वो꣢ बृ꣣ह꣢त् ॥१७८१॥
स्वर सहित पद पाठजु꣡ष्टः꣢꣯ । हि । दू꣣तः꣢ । अ꣡सि꣢꣯ । ह꣣व्यवा꣡ह꣢नः । ह꣣व्य । वा꣡ह꣢꣯नः । अ꣡ग्ने꣢꣯ । र꣣थीः꣢ । अ꣣ध्वरा꣡णा꣢म् । स꣣जूः꣢ । स꣣ । जूः꣢ । अ꣣श्वि꣡भ्या꣢म् । उ꣣ष꣡सा꣢ । सु꣣वी꣡र्य꣢म् । सु꣣ । वी꣡र्य꣢꣯म् । अ꣣स्मे꣡इति꣢ । धे꣣हि । श्र꣡वः꣢꣯ । बृ꣣ह꣢त् ॥१७८१॥
स्वर रहित मन्त्र
जुष्टो हि दूतो असि हव्यवाहनोऽग्ने रथीरध्वराणाम् । सजूरश्विभ्यामुषसा सुवीर्यमस्मे धेहि श्रवो बृहत् ॥१७८१॥
स्वर रहित पद पाठ
जुष्टः । हि । दूतः । असि । हव्यवाहनः । हव्य । वाहनः । अग्ने । रथीः । अध्वराणाम् । सजूः । स । जूः । अश्विभ्याम् । उषसा । सुवीर्यम् । सु । वीर्यम् । अस्मेइति । धेहि । श्रवः । बृहत् ॥१७८१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1781
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
आगे फिर योग के विषय में कहते हैं।
पदार्थ
हे (अग्ने) मार्गदर्शक योगिराज ! (जुष्टः) सेवन किये हुए आप (हि) निश्चय ही (दूतः) दोषों को तपा डालनेवाले, (हव्यवाहनः) प्राप्तव्य योगसिद्धियों को प्राप्त करानेवाले और (अध्वराणाम्) किये जानेवाले अष्टाङ्गयोग रूप यज्ञों के (रथीः) चालक (असि) हो। आप (अश्विभ्याम्) प्राणापानों से (उषसा) तथा ज्योतिष्मती प्रज्ञा से (सजूः) सहायवान् होकर (अस्मे) हमें (सुवीर्यम्) सुवीर्ययुक्त (बृहत् श्रवः) योगशास्त्र का महान् ज्ञान और उससे मिलनेवाला यश (धेहि) प्रदान करो ॥२॥
भावार्थ
अष्टाङ्गयोग का अभ्यास करनेवाले मनुष्य के लिए प्रणव-जप, परमेश्वर की उपासना और योग के गुरु द्वारा बताये हुए मार्ग का अनुसरण करना लक्ष्यप्राप्ति में परम सहायक होते हैं ॥२॥
पदार्थ
(अग्ने) हे परमात्मन्! तू (जुष्टः-हि) हम उपासकों द्वारा सेवित हुआ उपासित हुआ (दूतः) प्रेरक—आगे ले-जानेवाला (हव्यवाहनः) स्तुतिरूप दातव्य को लेनेवाला एवं आदातव्य सद्गुण सुख शान्ति को लानेवाला (अध्वराणां रथीः) अध्यात्म यज्ञों—योगाङ्गों का नेता रथ स्वामी३ के समान आधार (असि) तू है (अश्विभ्याम्-उषसा सजूः) श्रोत्रों४ प्रकाश प्रज्ञा के द्वारा५ (अस्मे) हमारे अन्दर६ (सुवीर्यं-बृहत्-श्रवः-धेहि) शोभनबल—आत्मबल और महान् श्रवण धारण करा॥२॥
विशेष
<br>
विषय
प्राणायाम से दोष-दहन
पदार्थ
प्रस्कण्व ही प्रभु की आराधना कर रहा है कि हे (अग्ने) = सारे संसार-चक्र के चालक प्रभो! आप (हि) = निश्चय से (अध्वराणाम्) = सब हिंसाशून्य यज्ञों के (रथी:) = संचालक (असि) = हैं । संसार-चक्र को चलानेवाले वे प्रभु ही हैं, परन्तु प्रभु की सम्पूर्ण क्रिया तो हिंसाशून्य यज्ञों को ही प्रोत्साहित करती है। बीच-बीच में जीव अपनी अल्पज्ञता से कर्म करने में दी गयी स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करता है और हिंसा का कारण बन जाता है । यह सब ठीक उसी प्रकार होता है जैसे प्रभु पृथिवी में पुण्य गन्ध को प्रसारित करते हैं, परन्तु जीव उन फूलों को तोड़कर मसल-मसला कर लापरवाही से जलवाले स्थान में फेंकता है और सड़ाँद होकर दुर्गन्ध को उत्पन्न कर देता है।सन्तापक हैं।
हे प्रभो! (जुष्ट:) = प्रीतिपूर्वक सेवन किये हुए आप (हि) = निश्चय से (दूतः असि) आप अपने भक्त को आपत्ति की परीक्षाग्नि में डालकर शुद्ध कर देते हैं और तब (हव्यवाहन:) = सब हव्यों को–उत्तम पदार्थों को प्राप्त करानेवाले होते हैं ।
प्रस्कण्व याचना करता है कि हे प्रभो ! (अश्विभ्याम्) = प्राणापान के तथा (उषसा) = दोषदहन के [उष् दाहे] (सजूः) = साथ होनेवाले आप (अस्मे) = हममें (सुवीर्यम्) = उत्तम शक्ति को तथा (बृहत् श्रवः) = वृद्ध – निरन्तर बढ़ते हुए ज्ञान को (धेहि) = धारण कीजिए ।
हम प्राणापान की साधना – प्राणायाम को अपनाकर इन्द्रियों के दोषों का दहन करें । उसी का यह परिणाम होगा कि हमें उत्तम शक्ति प्राप्त होगी तथा हमारी बुद्धि सूक्ष्म होकर हमारे ज्ञान की वृद्धि होगी ।
भावार्थ
प्रभु-आराधना से मैं प्राणों की साधना करनेवाला बनूँ और शक्ति व ज्ञान को बढ़ा पाऊँ ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि योगविषय उच्यते।
पदार्थः
हे (अग्ने) मार्ददर्शक योगिराड् ! (जुष्टः) सेवितः त्वम् (हि) निश्चयेन (दूतः) दोषाणामुपतापयिता। [टुदु उपतापे, स्वादिः। ‘दुतनिभ्यां दीर्घश्च’। उ० ३।९० इति क्तः प्रत्ययो धातोर्दीर्घश्च।] (हव्यवाहनः) प्राप्तव्यानां योगसिद्धीनां प्रापयिता, (अध्वराणाम्) क्रियमाणानामष्टाङ्गयोग- यज्ञानाम् (रथीः) चालकश्च (असि) विद्यसे। त्वम् (अश्विभ्याम्) प्राणापानाभ्याम् (उषसा) ज्योतिष्मत्या प्रज्ञया च (सजूः) सप्रीतिः सन् (अस्मे) अस्मभ्यम् (सुवीर्यम्) सुवीर्ययुक्तम् (बृहत् श्रवः) योगशास्त्रस्य महद् ज्ञानम् तज्जन्यं यशश्च (धेहि) प्रयच्छ ॥२॥२
भावार्थः
अष्टाङ्गयोगमभ्यस्यते जनाय प्रणवजपः परमेश्वरोपासनं योगगुरुनिर्दिष्टमार्गानुसरणं च लक्ष्यप्राप्तौ परमसहायकानि जायन्ते ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, Thou art, the Leader of all Yajnas (sacrifices), worshipped>y all scholars, the Sustainer of the entire universe, and Omnipresent. Accordant with Prfiflta and Apfina, and with refined intellect, grant us heroic strength and vast knowledge!
Meaning
Agni, ruling lord of light and the world, invoked and lighted, you are the blazing catalyst and carrier of yajnic materials offered and fragrances received. You are the leading chariot hero of the worlds yajnic acts of love and creation. Friend of the Ashvins, sun and moon, water and air, working with the complementary powers of nature, friend and companion of ours too, bring us noble strength and valour, bless us with universal honour and fame. (Rg. 1-44-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अग्ने) હે પરમાત્મન્ ! તું (जुष्टः हि) અમે ઉપાસકો દ્વારા સેવન કરેલ-ઉપાસિત થયેલ (दूतः) પ્રેરક-આગળ લઈ જનાર (हव्यवाहनः) સ્તુતિરૂપ દાતવ્યને લેનાર અને આદાતવ્ય-સદ્ગુણ, સુખ, શાન્તિને લાવનાર (अध्वराणां रथिः) અધ્યાત્મયજ્ઞો-યોગાંગોના નેતા-રથના સ્વામી સમાન-આધાર (असि) તું છે. (अश्विभ्याम् उषसा सजूः) શ્રોત્રો-પ્રકાશ પ્રજ્ઞા દ્વારા (अस्मे) અમારી અંદર (सुवीर्यं बृहत् श्रवः धेहि) શોભનબળ-આત્મબળ અને મહાન શ્રવણ ધારણ કરાવ. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
अष्टांगयोगाचा अभ्यास करणाऱ्या माणसासाठी प्रणव-जप, परमेश्वराची उपासना व योगगुरूद्वारे सांगितल्याप्रमाणे अनुसरण करणे लक्ष्यप्राप्तीमध्ये परम सहायक असतात. ॥२॥
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