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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1780
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
2
अ꣢ग्ने꣣ वि꣡व꣢स्वदु꣣ष꣡स꣢श्चि꣣त्र꣡ꣳ राधो꣢꣯ अमर्त्य । आ꣢ दा꣣शु꣡षे꣢ जातवेदो वहा꣣ त्व꣢म꣣द्या꣢ दे꣣वा꣡ꣳ उ꣢ष꣣र्बु꣡धः꣢ ॥१७८०॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ग्ने꣢꣯ । वि꣡व꣢꣯स्वत् । वि । व꣣स्वत् । उष꣡सः꣢ । चि꣣त्र꣢म् । रा꣡धः꣢꣯ । अ꣣मर्त्य । अ । मर्त्य । आ꣢ । दा꣣शु꣡षे । जा꣣तवेदः । जात । वेदः । वह । त्व꣢म् । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । दे꣣वा꣢न् । उ꣣ष꣡र्बु꣢धः । उ꣣षः । बु꣡धः꣢꣯ ॥१७८०॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने विवस्वदुषसश्चित्रꣳ राधो अमर्त्य । आ दाशुषे जातवेदो वहा त्वमद्या देवाꣳ उषर्बुधः ॥१७८०॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने । विवस्वत् । वि । वस्वत् । उषसः । चित्रम् । राधः । अमर्त्य । अ । मर्त्य । आ । दाशुषे । जातवेदः । जात । वेदः । वह । त्वम् । अद्य । अ । द्य । देवान् । उषर्बुधः । उषः । बुधः ॥१७८०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1780
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वाचिक में ४० क्रमाङ्क पर हो चुकी है। यहाँ योग का विषय दर्शाया जा रहा है।
पदार्थ
हे (अमर्त्य) अमर कीर्तिवाले, (जातवेदः) योग का ज्ञान देनेवाले (अग्ने) योगिराज ! (त्वम्) आप (अद्य) आज (दाशुषे) आत्मसमर्पणकर्ता मेरे लिए (विवस्वत्) तामस वृत्तियों के अन्धकार को दूर करनेवाले, (उषसः) योगमार्ग में उदित हुई ज्योतिष्मती प्रज्ञा के (चित्रम्) अद्भुत (राधः) ऐश्वर्य को और (उषर्बुधः देवान्) उषाकाल में जागनेवाले दिव्य गुणों को (आ वह) प्राप्त कराओ ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा की कृपा से, जीवात्मा के निरन्तर किये जानेवाले प्रयत्न से और योग सिखानेवाले गुरु की शिक्षा से उत्तरोत्तर नवीन-नवीन उपलब्धियाँ योगाभ्यासी को होती हैं और विवेकख्याति द्वारा मोक्ष भी प्राप्त हो जाता है ॥१॥
टिप्पणी
(देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या ४०)
विशेष
ऋषिः—प्रस्कण्वः (अत्यन्त मेधावी उपासक)॥ देवता—अग्निः (ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥<br>
विषय
अग्नि, अमर्त्य व जातवेद'
पदार्थ
प्रस्तुत मन्त्र में प्रस्कण्व प्रभु को 'अग्ने, अमर्त्य तथा जातवेदाः ' शब्दों से सम्बोधित करता है । वे प्रभु (अग्निः) = सब प्रकार की अग्रगति के साधक हैं— (अमर्त्य) = किसी भी चीज के पीछे मरनेवाले नहीं हैं, अर्थात् कहीं भी आसक्त नहीं हैं, क्योंकि (जातवेदः) = व प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ के तत्त्व को जानते हैं। इस प्रकार प्रभु का स्मरण करता हुआ प्रस्कण्व यह समझता है कि उसके जीवन का लक्ष्य भी निरन्तर उन्नति करना है, उस उन्नति के लिए आवश्यक है कि वह किसी भी वस्तु के पीछे अत्यन्त आसक्त न हो जाए और इस आसक्ति से बचने के लिए वह अपने ज्ञान को निरन्तर बढ़ाने में लगा रहे, इसीलिए वह प्रार्थना करता है कि आप (उषसः) = अज्ञानान्धकार के (विवस्वत्) = निवर्तक (चित्रं राधः) = [चित्=ज्ञान] ज्ञान प्राप्त करानेवाले बुद्धिरूप धन को (दाशुषे) = मुझ आत्मसमर्पण करनेवाले के लिए (आवह) = प्राप्त कराइए । इस ज्ञान-धन को प्राप्त कराने के लिए ही (त्वम्) = आप (अद्य) = आज ही (उषर्बुधः) = प्रातः काल जागरणशील अथवा आज्ञानान्धकार से जागरित हो चुके (देवान्) = प्रकाशमय और प्रकाश को प्राप्त करानेवाले देवों को आवह प्राप्त कराइए । इन देवों के सम्पर्क में आकर ही तो मैं ज्ञान प्राप्त कर पाऊँगा, ज्ञान प्राप्त करने पर ही मेरी आसक्ति समाप्त होगी और मैं उन्नति-पथ
पर आगे बढ़नेवाला बनूँगा । प्रभु अपने भक्तों की रक्षा इसी प्रकार तो करते हैं कि वे उन्हें देवों का सङ्ग प्राप्त कराते हैं। विद्वानों के सम्पर्क के द्वारा वे उन्हें वह बुद्धि प्राप्त कराते हैं जो उन्हें ज्ञानधन देकर 'प्रस्कण्व'= मेधावी बनाती है | हमारा तो यही कर्त्तव्य है कि 'हमें अग्नि बनना है, अमर्त्य बनना है और जातवेद बनना है', अपने इस लक्ष्य-त्रय का स्मरण करते हुए हम अपने कर्त्तव्य कर्म में लगे रहें और परमेश्वरार्पण की भावना से जीवन यापन करें ।
भावार्थ
हमारा जप हो कि हम भी प्रभु की भाँति 'अग्नि, अमर्त्य, व जातवेद' बनेंगे।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४० क्रमाङ्के व्याख्यातपूर्वा। अत्र योगविषयो निरूप्यते।
पदार्थः
हे (अमर्त्य) अमरकीर्ते (जातवेदः) योगज्ञानप्रद (अग्ने) योगिराज ! (त्वम् अद्य) अस्मिन् दिने (दाशुषे) आत्मसमर्पणकारिणे मह्यम् (विवस्वत्) तामसवृत्तीनां विवासयितृ, (उषसः) योगमार्गे उदिताया ज्योतिष्मत्याः प्रज्ञायाः (चित्रम्) अद्भुतम् (राधः) ऐश्वर्यम्, (उषर्बुधः देवान्) उषसि ज्योतिष्मत्यां प्रज्ञायां ये बुध्यन्ते जाग्रति तान् दिव्यगुणांश्च (आवह) प्रापय ॥१॥२
भावार्थः
परमात्मकृपया जीवात्मनः सततप्रयासेन योगगुरोः शिक्षया चोत्तरोत्तरं नवा नवा उपलब्धयो योगाभ्यासिनो जायन्ते विवेकख्यात्या कैवल्यं चाप्यधिगम्यते ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O fire, grant wondrous wealth lo a charitably-disposed person, who rises early in the morning. O inextinguishable fire, present in all created objects, grant consciousness today to the organs of this man, with the rise of the sun!
Translator Comment
Today means every day. This man means the person who rises early in die morning.^See verse 40.
Meaning
Agni, lord of life, blazing as the sun, immortal, omniscient of things born, for the man of charity who has surrendered himself to you, you bring today wonderful wealth of the dawn, and let the yogis and blessings of nature awake at the dawn. (Rg. 1-44-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (जातवेदः अमर्त्य अग्ने) હે ઉત્પન્ન માત્રમાં વિદ્યમાન તથા ઉત્પન્ન માત્રના જ્ઞાતા અમર પરમાત્મન્ ! તું (दाशुषे) પોતાનું આત્મ સમર્પણ કરનાર ઉપાસકને માટે (उषसः) સ્વપ્રકાશરૂપ મોક્ષધામ (विवस्वत् चित्रं राधः) જેમાં વિશેષ સુખ છે, એવા અલૌકિક ઐશ્વર્યને (आवह) પ્રાપ્ત કરાવ. (अद्य) આજ આ જીવનમાં (त्वम्) તું (उषर्बुधः देवान् आवह) સ્વપ્રકાશરૂપ મોક્ષધામનો અનુભવ કરનારા મુક્ત આત્માઓની તરફ મને લઈ જા. (૬)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્માની ઉપાસના દ્વારા આત્મ સમર્પણ કરનારને તે મોક્ષનું ઐશ્વર્ય પ્રદાન કરે છે અને તેને મોક્ષ આત્મામાં પહોંચાડી દે છે. જ્યાં અમર પરમાત્માનો સંગ નિરંતર થતો રહે છે. નાશવાન સંસારમાં તો એ મર્ત્ય-મરણ ધર્મી બની રહે છે. (૬)
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याच्या कृपेने जीवात्म्याच्या निरंतर प्रयासाने व योगशिक्षकाकडून शिकलेल्या योगाद्वारे योगाभ्यासी व्यक्तीला उत्तरोत्तर नवनवीन उपलब्धी होते व विवेकख्यातीद्वारे मोक्षही प्राप्त होतो. ॥१॥
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