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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1784
ऋषिः - बृहदुक्थो वामदेव्यः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
2
ऐ꣡भि꣢र्ददे꣣ वृ꣢ष्ण्या꣣ पौ꣡ꣳस्या꣢नि꣣ ये꣢भि꣣रौ꣡क्ष꣢द्वृत्र꣣ह꣡त्या꣢य व꣣ज्री꣢ । ये꣡ कर्म꣢꣯णः क्रि꣣य꣡मा꣢णस्य म꣣ह्न꣡ ऋ꣢ते क꣣र्म꣢मु꣣द꣡जा꣢यन्त दे꣣वाः꣢ ॥१७८४॥
स्वर सहित पद पाठआ । ए꣣भिः । ददे । वृ꣡ष्ण्या꣢꣯ । पौ꣡ꣳस्या꣢꣯नि । ये꣡भिः꣢꣯ । औ꣡क्ष꣢꣯त् । वृ꣣त्रह꣡त्या꣢य । वृ꣣त्र । ह꣡त्या꣢꣯य । व꣣ज्री꣢ । ये । क꣡र्म꣢꣯णः । क्रि꣣य꣡मा꣢णस्य । म꣣ह्ना꣢ । ऋ꣣तेकर्म꣢म् । ऋ꣣ते । कर्म꣢म् । उ꣣द꣡जा꣢यन्त । उ꣣त् । अ꣡जा꣢꣯यन्त । दे꣣वाः꣢ ॥१७८४॥
स्वर रहित मन्त्र
ऐभिर्ददे वृष्ण्या पौꣳस्यानि येभिरौक्षद्वृत्रहत्याय वज्री । ये कर्मणः क्रियमाणस्य मह्न ऋते कर्ममुदजायन्त देवाः ॥१७८४॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । एभिः । ददे । वृष्ण्या । पौꣳस्यानि । येभिः । औक्षत् । वृत्रहत्याय । वृत्र । हत्याय । वज्री । ये । कर्मणः । क्रियमाणस्य । मह्ना । ऋतेकर्मम् । ऋते । कर्मम् । उदजायन्त । उत् । अजायन्त । देवाः ॥१७८४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1784
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
आगे फिर उसी विषय का वर्णन है।
पदार्थ
(मह्नः कर्मणः) महान् सृष्टयुत्पत्ति आदि कर्म के किये जाते समय (ये देवाः) जो दिव्यगुण, इन्द्र परमेश्वर में (ऋते कर्मम्) बिना प्रयत्न के स्वभावतः (उदजायन्त) प्रकट हुए, (येभिः) जिन दिव्य गुणों से (वज्री) वज्रधारी के समान उस जगदीश्वर ने (वृत्रहत्याय) विघ्नों के विनाशार्थ (औक्षत्) जीवात्मा को सींचा, (एभिः) उन दिव्य गुणों से वह, आज भी (वृष्ण्या) सुखवर्षक (पौंस्यानि) बलयुक्त कर्मों को (आददे) करता है ॥३॥
भावार्थ
परमेश्वर में स्वभावतः सदा रहनेवाले जो गुण हैं, उन्हीं से वह सारे सृष्टि के कार्य को करता है। उन गुणों में से कुछ अंश वह मनुष्यों में भी निहित कर देता है, जिससे वे विघ्न, पाप, दोष आदि के विनाश में समर्थ होते हैं ॥३॥
पदार्थ
(ये देवाः) जो मुमुक्षु उपासक (क्रियमाणस्य मह्नः कर्मणः) किये जाते हुए महत्त्वपूर्ण कर्म के (ऋते कर्मम्) कर्म के१ अमृत फल२ को (उदजायन्त) उद्भावित करते हैं—सम्मुख लाते हैं (एभिः-येभिः) इन जिनको हेतु बनाकर या इन जिनके लिये३ (वज्री) ओजस्वी४ परमात्मा (वृष्ट्या पौंस्यानि) सुखवर्षण योग्य बलों को (आददे) ग्रहण करें उन्हें (वृत्रहत्याय) पापनाशन५ के लिये (औक्षत्) वरसा देता है॥३॥
विशेष
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विषय
बृहदुक्थ शक्तिशाली बनता है [He Grows Strong ]
पदार्थ
गत मन्त्र में वर्णित (एभिः) = अपने गुणों व कर्मों से यह बृहदुक्थ (वृष्ण्या) = सबपर सुखों की वर्षा करनेवाले अथवा शक्तिशाली (पौंस्यानि) = पौरुषों को (आददे) = स्वीकार करता है । यह अकर्मण्य तो कभी होता ही नहीं। (येभिः) = जिन पौरुषों से (वज्री) = सदा गतिशील [वज गतौ] यह बृहदुक्थ (औक्षत्) = [उक्ष=to become strong] अधिकाधिक शक्तिशाली बनता है, उन्हीं से यह (वृत्रहत्याय) = ज्ञान की आवरणभूत कामादि वासनाओं का संहार करनेवाला बनता है। निर्बल को वासना दबाती है और सबल से डरकर वह दूर रहती है ।
इस प्रकार ये बृहदुक्थ वे व्यक्ति होते हैं ये- जो (क्रियमाणस्य कर्मणः मह्नः) = क्रियमाण कर्म की महिमा से (ऋतेकर्मम्) और उस कर्म में आसक्ति व अहंकार न होने से नैष्कर्म्य के द्वारा (उद् अजायन्त) = उन्नति को प्राप्त करते हैं और (देवा:) - देव बन जाते हैं । ये भाग्यवादी न होकर अपनाअपना उत्कर्ष ‘क्रियमाण कर्म' में ही देखते हैं – परन्तु साथ ही अनासक्ति व अनहंकार के कारण सदा नैष्कर्म्य को प्राप्त किये रहते हैं। करते हुए भी ये नहीं कर रहे होते । सतत क्रियाशील होते हुए भी उससे अलिप्त बने रहते हैं । 'प्रभु की शक्ति है, उसी से यह सारे कार्य हो रहे हैं, इसमें मेरा क्या?' यह भावना इस बृहदुक्थ की सदा बनी रहती है - और यही उसके सतत उत्थान का कारण बनती है— यह मनुष्य से 'देव' बन जाता है ।
भावार्थ
मैं निरन्तर कर्मों को करता हुआ 'देव' का उपासक बनूँ । दैव [भाग्य] का उपासक बनकर, अकर्मण्य हो, प्रभु से दूर न हो जाऊँ ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि स एव विषय उच्यते।
पदार्थः
(मह्नः कर्मणः) महतः सृष्ट्युत्पत्त्यादिकर्मणः (क्रियमाणस्य) विधीयमानस्य सतः (ये देवाः) ये दिव्यगुणाः इन्द्रे परमेश्वरे (ऋते कर्मम्) प्रयत्नं विनैव, स्वभावतः इत्यर्थः (उदजायन्त) उद्भूताः, (येभिः) यैः देवैः दिव्यगुणैः, (वज्री) वज्रधरः इव स इन्द्रो जगदीश्वरः, (वृत्रहत्याय) विघ्नानां हननाय (औक्षत्) जीवात्मानम् असिञ्चत्, (एभिः) एतैस्तैर्दिव्यगुणैः अद्यापि सः (वृष्ण्या) वृष्ण्यानि सुखवर्षकाणि (पौंस्यानि) बलकर्माणि (आददे) गृह्णाति, करोतीत्यर्थः ॥३॥
भावार्थः
परमेश्वरे स्वभावतः सदातना ये गुणाः सन्ति तैरेव स समग्रं सृष्टिव्यापारं करोति, तेषां गुणानां कञ्चिदंशं स मनुष्येष्वपि निदधाति येन ते विघ्नपापदोषादीनां विनाशाय प्रभवन्ति ॥३॥
इंग्लिश (2)
Meaning
God keeps under His control many manly powers, the showerers of happiness through these forces of nature. God bestows knowledge through these forces to remove the ignorance of men. The learned, realising the truth of the grand, practical sustenance of the universe by God , overcoming the bondage of action attain to salvation.
Meaning
With these potent and positive waves of natural energy, the virile Indra, wielder of thunderbolt, assumes those powers for breaking the clouds of darkness and want by which he brings about the showers of rain for the world of existence, which powers too for bringing about the showers of positive action and creativity arise from the grandeur of the omnipotent original doer of cosmic karma. (Rg. 10-55-7)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (ये देवाः) જે મુમુક્ષુ ઉપાસક (क्रियमाणस्य मह्नः कर्मणः) કરવામાં આવતાં મહત્ત્વપૂર્ણ કર્મના (ऋते कर्मम्) કર્મના અમૃતફળને (उदजायन्त) ઉદ્ભાવિત કરે છે-સામે લાવે છે. (एभिः येभिः) એ જેને હેતુ બનાવીને અથવા એ જેના માટે (वज्री) ઓજસ્વી પરમાત્મા (वृष्टया पौंस्यानि) સુખવર્ષણ યોગ્ય બળોને (आददे) ગ્રહણ કરે તેમને (वृत्रहत्याय) પાપનાશનને માટે (औक्षत्) વરસાવી દે છે.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वरामध्ये जे स्वाभाविक गुण असतात, त्यांच्याद्वारेच तो संपूर्ण सृष्टीचे कार्य करतो. त्या गुणांपैकी काही अंश तो माणसांमध्येही निहित करतो, ज्यामुळे ते विघ्न, पाप, दोष इत्यादींचा विनाश करण्यास समर्थ होतात. ॥३॥
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