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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1785
ऋषिः - बिन्दुः पूतदक्षो वा आङ्गिरसः
देवता - सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
अ꣢स्ति꣣ सो꣡मो꣢ अ꣣य꣢ꣳ सु꣣तः꣡ पिब꣢꣯न्त्यस्य म꣣रु꣡तः꣢ । उ꣣त꣢ स्व꣣रा꣡जो꣢ अ꣣श्वि꣡ना꣢ ॥१७८५॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡स्ति꣢꣯ । सो꣡मः꣢꣯ । अ꣣य꣢म् । सु꣣तः꣢ । पि꣡ब꣢꣯न्ति । अ꣣स्य । मरु꣡तः꣢꣯ । उ꣣त꣢ । स्व꣣रा꣡जः꣢ । स्व꣣ । रा꣡जः꣢꣯ । अ꣣श्वि꣡ना꣢ ॥१७८५॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्ति सोमो अयꣳ सुतः पिबन्त्यस्य मरुतः । उत स्वराजो अश्विना ॥१७८५॥
स्वर रहित पद पाठ
अस्ति । सोमः । अयम् । सुतः । पिबन्ति । अस्य । मरुतः । उत । स्वराजः । स्व । राजः । अश्विना ॥१७८५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1785
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ९७४ क्रमाङ्क पर भक्तिरस, ज्ञानरस आदि के विषय में की जा चुकी है। यहाँ ब्रह्मानन्द-रस का विषय वर्णित करते हैं।
पदार्थ
(अयम्) यह (सोमः) आनन्द-रस (सुतः अस्ति) परमेश्वर के पास से परिस्रुत किया गया है। (स्वराजः अस्य) निज दीप्तिवाले इस रस को (मरुतः) प्राण (उत) और (अश्विनौ) आत्मा तथा मन (पिबन्ति) पीते हैं ॥१॥
भावार्थ
उपासकों द्वारा परमात्मा के ध्यान से जो ब्रह्मानन्द-रस प्राप्त किया जाता है, उससे आत्मा, मन, प्राण आदि सभी तरङ्गित हो जाते हैं ॥१॥
टिप्पणी
(देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या १७४)
विशेष
ऋषिः—विन्दुः (स्ववानसाओं को छिन्न-भिन्न करने वाला)॥ देवता—मरुतः (समस्त वासनाओं को अमृत जीवनदाता परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>
विषय
पवित्र बलवाला
पदार्थ
गत मन्त्र में उल्लेख था कि बृहदुक्थ शक्तिशाली बन जाता है । प्रस्तुत मन्त्र में उस शक्तिशालिता के रहस्य का ही प्रकाश करते हैं - (अयम्) = यह (सोमः) = सोम=वीर्य [Semen] (सुतः अस्ति) = उत्पन्न किया गया है । (अस्य पिबन्ति) = समझदार व्यक्ति इसका पान करते हैं। इसका पान करने में ही कल्याण है। शरीर की सारी वृद्धि इसी पर निर्भर करती है। शरीर की नीरोगता, मन की निर्मलता व बुद्धि की तीव्रता का हेतु यह सोम ही है। इस सोम की रक्षा करनेवाला पुरुष ही ‘विन्दतीति बिन्दुः'=उस प्रभु को प्राप्त करता है - और प्राप्त करनेवाला होने से 'बिन्दु' कहलाता है । यह अत्यन्त शक्तिशाली होता है— शक्ति का पुञ्ज ही बन जाता है, परन्तु इसकी शक्ति पवित्र होती है, यह उसका उपयोग कभी अपवित्र कर्मों में नहीं करता । परिणामतः इसका नाम ‘पूतदक्ष' होता है। इस सोम का पान कैसे हो ? इस प्रश्न का उत्तर वेद निम्न शब्दों में देता है। -
१. (मरुतः) = मरुत् इसका पान करते हैं । इसका संयम व शरीर में व्यापन वे ही कर सकते हैं जो कि मरुत् हों – संसार की किसी भी वस्तु के पीछे मरनेवाले न हों, अर्थात् किसी भी विषय के प्रति आसक्त न होनेवाला पुरुष ही वीर्य का शरीर में व्यापन कर पाता है ।
२. (उत) = और (स्वराजः) = अपने जीवन को बड़े नियमित करनेवाले व्यक्ति इसका पान करते हैं। जीवन की नियमितता ही ऋत का पालन कहलाती है और यह ऋत का पालन हमें सोमपान के योग्य बनाता है।
३. (अश्विना) = प्राणापान की साधना कर, प्राणापान के पुञ्ज बननेवाले व्यक्ति सोमपान करते हैं । प्राणायाम सोपान का सर्वोत्तम साधन है।
भावार्थ
मैं मरुत् बनूँ किसी भी वस्तु के पीछे न मरूँ, अर्थात् किसी भी वस्तु में फँस न जाऊँ; मेरा जीवन नियमित हो तथा सदा प्राणापान की साधना करूँ, जिससे सोमपान कर प्रभु को प्राप्त करनेवाला, प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि, ‘बिन्दु' बन पाऊँ ।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १७४ क्रमाङ्के भक्तिज्ञानकर्मवीरतासेवारसविषये व्याख्याता। अत्र ब्रह्मानन्दरसविषय उच्यते।
पदार्थः
(अयम्) एषः (सोमः) आनन्दरसः (सुतः अस्ति) अभिषुतो वर्तते। (स्वराजः अस्य) स्वकीयदीप्तिमतः अस्य (मरुतः) प्राणाः (उत) अपि च (अश्विनौ) आत्मा मनश्च (पिबन्ति) आस्वादनं कुर्वन्ति। [स्वराजः अस्य स्वराजम् इमम्। द्वितीयार्थे षष्ठी] ॥१॥
भावार्थः
उपासकैः परमात्मध्यानेन यो ब्रह्मानन्दरसः प्राप्यते तेनात्ममनःप्राणादीनि सर्वाण्यपि तरङ्गितानि जायन्ते ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Here is ready this divine joy. Forces of deliberation, illumined knowledge, and resolve appreciate it.
Translator Comment
See verse 174.
Meaning
O Maruts, mighty men of honour and action, this soma of glorious life is ready, created by divinity. Lovers of life and adventure, Ashwins, live it and enjoy, those who are self-refulgent, free and self-governed, and who are ever on the move, creating, acquiring, giving, like energies of nature in the cosmic circuit. (Rg. 8-94-4)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अयं सोमः सुतः अस्ति) હે ઇન્દ્ર ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! આ ઉપાસનારસ ઉત્પન્ન કરેલ છે તું એનું પાન કર, આ નિકૃષ્ટ રસ નથી, (उत) પરન્તુ (अस्य) આને (स्वराजः अश्विना ' अश्विनः ' मरुतः पिबन्ति) પોતાની શક્તિથી રાજમાન્ મારા શરીરમાં વ્યાપનશીલ પ્રાણ પણ પીવે છે એનું પાન કરે છે. જે પોતાના પ્રાણોને માટે પ્રિય છે, તે નિકૃષ્ટ નહિ તે તો પ્રાણોના પ્રાણ તને ભેટ છે.
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મન્ ! ઉપાસનારસ તને ભેટ છે, તું એનું પાન કર, એ નિકૃષ્ટ ભેટ નથી, પરંતુ ઉત્કૃષ્ટ છે. મારા પ્રાણ એ પાનને પ્રથમ પીવે છે, જે મારા શરીરમાં રાજમાન અને વ્યાપનાર છે, 'પ્રાણોથી પ્રિય કોઈ નથી’ એ લૌકિક કહેવત છે, પરન્તુ તું પ્રાણોથી પણ પ્રિય છે, તેથી આ ઉપાસના તને ભેટ ધરું છું. (૧૦)
मराठी (1)
भावार्थ
उपासकांद्वारे परमात्म्याच्या ध्यानाने जो ब्रह्मानंद रस प्राप्त केला जातो, त्यामुळे आत्मा, मन, प्राण इत्यादी सर्व तरंगित होतात. ॥१॥
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