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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1786
ऋषिः - बिन्दुः पूतदक्षो वा आङ्गिरसः
देवता - सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
पि꣡ब꣢न्ति मि꣣त्रो꣡ अ꣢र्य꣣मा꣡ तना꣢꣯ पू꣣त꣢स्य꣣ व꣡रु꣢णः । त्रि꣣षधस्थ꣢स्य꣣ जा꣡व꣢तः ॥१७८६॥
स्वर सहित पद पाठपि꣡ब꣢꣯न्ति । मि꣣त्रः꣢ । मि꣣ । त्रः꣢ । अ꣣र्यमा꣢ । त꣡ना꣢꣯ । पू꣣त꣡स्य꣢ । व꣡रु꣢꣯णः । त्रि꣣षधस्थ꣡स्य꣢ । त्रि꣣ । सधस्थ꣡स्य꣢ । जा꣡व꣢꣯तः ॥१७८६॥
स्वर रहित मन्त्र
पिबन्ति मित्रो अर्यमा तना पूतस्य वरुणः । त्रिषधस्थस्य जावतः ॥१७८६॥
स्वर रहित पद पाठ
पिबन्ति । मित्रः । मि । त्रः । अर्यमा । तना । पूतस्य । वरुणः । त्रिषधस्थस्य । त्रि । सधस्थस्य । जावतः ॥१७८६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1786
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में यह बताया गया है कि कैसे ब्रह्मानन्द-रस को कौन पीते हैं।
पदार्थ
(तना) विस्तृत रूप से (पूतस्य) पवित्र, (त्रिषधस्थस्य) आत्मा, मन, प्राण इन तीन स्थानों में स्थित (जावतः) वेगयुक्त ब्रह्मानन्द-रस को (मित्रः) मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा वृत्तियों से युक्त योगी, (अर्यमा) सूर्यवत् तेजस्वी एवं ज्योतिष्मती प्रज्ञा से युक्त योगी और (वरुणः) व्याधि, स्त्यान, संशय आदि विघ्नों का जिसने निवारण कर दिया है, ऐसे योगी (पिबन्ति) पान करते हैं ॥२॥
भावार्थ
परिपक्व योगी ही समाधि में स्थित होकर पवित्र ब्रह्मानन्द-रस का आस्वादन करते हैं ॥२॥
पदार्थ
(त्रिषधस्थस्य) आत्मा, मन, वाणी तीन सहस्थान वाले६ उपासना, प्रार्थना स्तुति द्वारा (पूतस्य) सम्पादित—(जावतः) उपासक जन वाले (तना) धनरूप सोम—अध्यात्मरस को७ (मित्रः) प्रेरक परमात्मा (अर्यमा) आनन्ददाता परमात्मा (वरुणः) वरणकर्ता परमात्मा (पिबन्ति) पीता है स्वीकार करता है॥२॥
विशेष
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विषय
सोम की स्थापना क्यों ?
पदार्थ
सोम का पान करनेवालों का उल्लेख गत मन्त्र में इस रूप में हुआ था कि 'मरुत्, स्वराज्, व अश्विना' इसका पान करते हैं - किसी वस्तु में आसक्त न होनेवाले, अपने जीवन को नियमित बनानेवाले तथा प्राणापान की साधना करनेवाले प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि (पिबन्ति) = इस सोम का पान करते हैं। कौन ?
१. (मित्र:) = सबके साथ स्नेह करनेवाला, जिसका प्रेम व्यापक है । संकुचित प्रेम ही वासना का रूप धारण करता है और हमें सोमपान के अयोग्य बना देता है। २. (अर्यमा) = [अरीन् नियच्छति] काम-क्रोधादि शत्रुओं का नियमन करनेवाला । कामादि से आक्रान्त हो जाने पर सोमपान सम्भव नहीं रहता । ३. (वरुणः) = जो अपने को व्रतों के बन्धन में बाँधकर अपने जीवन को श्रेष्ठ बनाने का प्रयत्न करता है । व्रती पुरुष ही सोमपान किया करता है । किस सोम का ?
१. (तना पूतस्य) = [तन्- diffusion] शरीर में विस्तार व फैलाव के द्वारा जिसे पवित्र किया गया है। जब तक यह सोम सारे शरीर में रुधिर के साथ व्याप्त रहता है तभी तक पवित्र रहता है ।
२. (त्रिषधस्थस्य) = जो तीनों ज्ञान, कर्म व उपासना के साथ स्थित होता है। सोमरक्षा के द्वारा मस्तिष्क में ज्ञान, हाथों में कर्म, व हृदय में भक्ति की भावना बनी रहती है ।
३. (जावत:) = [जाः अपत्यम्] प्रजावाले सोम का । यह सोम मनुष्यों में प्रभु के द्वारा सन्ताननिर्माण के लिए ही तो रक्खा गया है । अथर्व में ('को न्वस्मिन् रेतो न्यदधात् तन्तुरा तायतामिति') इस प्रश्न के द्वारा कि 'इसमें वीर्य की स्थापना किसने की जिससे प्रजातन्तु का विस्तार हो सके ?" यह बात स्पष्ट है ।
एवं, यह स्पष्ट है कि शरीर में सोम की स्थापना 'ज्ञान की तीव्रता, कर्म की शक्ति व श्रद्धाभक्ति की पवित्रता तथा सन्तान के निर्माण' के लिए हुई है । इसी उद्देश्य से हमें सोम की सुरक्षा की व्यवस्था करनी है । उस सुरक्षा के लिए हमें १. अपने स्नेह को व्यापक बनाना है। २. कामक्रोधादि शत्रुओं का नियमन करना है। और ३. व्रती के बन्धनों में बँधकर अपने जीवन को श्रेष्ठ बनाना है।
भावार्थ
हम सोम की स्थापना के उद्देश्य को समझें और उसी प्रकार उसका विनियोग करें।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ कीदृशं ब्रह्मानन्दरसं के पिबन्तीत्याह।
पदार्थः
(तना) तनेन विस्तरेण (पूतस्य) पवित्रस्य, (त्रिषधस्थस्य) त्रयः आत्ममनःप्राणरूपाः सधस्थाः स्थितिस्थानानि यस्य तस्य, (जावतः) जवतः वेगयुक्तस्य रसस्य (मित्रः) मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षावृत्तियुक्तो योगी, (अर्यमा) सूर्यवत् तेजोमयो ज्योतिष्मतीप्रज्ञायुक्तो योगी, (वरुणः) वारितव्याधिस्त्यानसंशयाद्यन्तरायसमूहो योगी च (पिबन्ति) आस्वादनं कुर्वन्ति। [तनु विस्तारे इत्यतो निष्पन्नात् तनशब्दात् तृतीयैकवचनस्य ‘सुपां सुलुक्०’ अ० ७।१।३९ इत्यनेन आलादेशः। जवतेर्गत्यर्थाच्छतरि ‘जवतः’ इति प्राप्ते ‘जावतः’ इत्यत्र ‘अन्येषामपि दृश्यते’ अ० ६।३।१३७ इत्यनेन दीर्घः।] ॥२॥
भावार्थः
परिपक्वा योगिन एव समाधौ स्थिताः पवित्रं ब्रह्मानन्दरसमास्वादयन्ति ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Mitra, Aryaman and Varuna, realise Ida, Pingla and Sushumna divine joy, winch purified through mind is the begetter of knowledge.
Translator Comment
Mitra, Aryaman and Varuna are three classes of Yogis. He whose Intellect shines like the sun called Mitra. He who conquers the forces of nature, is the master of the organs of senses, and remains mentally steadfast is called Aryaman. He who is calm like ocean and vast space, is pure in mind and realises the true nature of the soul is called Varuna, Ida, Pingla and Sushumna are the three arteries in which the Yogis concentrate their vital breaths.
Meaning
Mitra, men of universal love, Aryama, men of adventure on the paths of rectitude, and Varuna, men of judgement and right choice, continuously drink of this soma created and sanctified by the procreative power of divinity pervading in the three regions of the universe, heaven, earth and the sky. (Rg. 8-94-5)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (त्रिषधस्थस्य) આત્મા, મન, શરીર ત્રણ સહ સ્થાનવાળા ઉપાસના, પ્રાર્થના, સ્તુતિ દ્વારા (पूतस्य) સંપાદિત, (जावतः) ઉપાસક જન વાળા (तना) ધન રૂપ સોમ-અધ્યાત્મરસને (मित्रः) પ્રેરક પરમાત્મા (अर्यमा) આનંદદાતા પરમાત્મા (वरुणः) વરણકર્તા પરમાત્મા (पिबन्ति) પાન કરે છે-સ્વીકાર કરે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
परिपक्व योगीच समाधीमध्ये स्थित होऊन पवित्र ब्रह्मानंद-रसाचे आस्वादन करतात. ॥२॥
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