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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 179
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    5

    इ꣡न्द्रो꣢ दधी꣣चो꣢ अ꣣स्थ꣡भि꣢र्वृ꣣त्रा꣡ण्यप्र꣢꣯तिष्कुतः । ज꣣घा꣡न꣢ नव꣣ती꣡र्नव꣢꣯ ॥१७९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣡न्द्रः꣢꣯ । द꣣धीचः꣢ । अ꣣स्थ꣡भिः꣢ । वृ꣣त्रा꣡णि꣢ । अ꣡प्र꣢꣯तिष्कुतः । अ । प्र꣣तिष्कुतः । जघा꣡न꣢ । न꣣वतीः꣢ । न꣡व꣢꣯ ॥१७९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो दधीचो अस्थभिर्वृत्राण्यप्रतिष्कुतः । जघान नवतीर्नव ॥१७९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः । दधीचः । अस्थभिः । वृत्राणि । अप्रतिष्कुतः । अ । प्रतिष्कुतः । जघान । नवतीः । नव ॥१७९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 179
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 5
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 7;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह बताया गया है कि रात्रि में जो निशाचर प्रकट हो जाते हैं, उनका वध कैसे होता है।

    पदार्थ

    (अप्रतिष्कुतः) आन्तरिक देवासुर-संग्राम में असुरों से प्रतिकार न किया गया अथवा असुरों के मुकाबले में पराजित न होता हुआ (इन्द्रः) बलवान् जीवात्मा व परमात्मा (दधीचः) ध्यान में संलग्न मन को (अस्थभिः) अस्थि-तुल्य सुदृढ़ सात्त्विक वृत्तियों से (नवतीः नव) निन्यानवे (वृत्राणि) घेरनेवाले निशाचरों को (जघान) नष्ट कर देता है। निन्यानवे निशाचर हैं—दस इन्द्रियाँ, दस प्राण, आठ चक्र, अन्तःकरणचतुष्टय और शरीर—इन तैंतीस साधनों से भूतकाल में किये गये, वर्तमान में किये जा रहे तथा भविष्य में किये जानेवाले पाप। उन सबको जीवात्मा और परमात्मा सावधान मन की सात्त्विक वृत्तियों से नष्ट कर देते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    पूर्व के दो मन्त्रों में रात्रि का और उसके निवारणार्थ उषा के प्रादुर्भाव का क्रमशः वर्णन किया गया था। इस मन्त्र में रात्रियों में उत्पन्न होनेवाले निशाचरों के विनाश का वर्णन है कि इन्द्र दध्यङ् की हड्डियों से उन्हें मार देता है। यह इन्द्र मनुष्य के शरीर में विद्यमान जीवात्मा और हृदय में स्थित परमात्मा है। दध्यङ् मन है। उस मन की सात्त्विक वृत्ति रूप हड्डियों से उन निशाचरों का वध हो जाता है ॥५॥ इस मन्त्र की व्याख्या में विवरणकार माधव ने इस प्रकार इतिहास प्रदर्शित किया है—कालकंज नामक असुर थे। उन असुरों से सताये जाते हुए देव ब्रह्मा के समीप पहुँचकर बोले—भगवन्, कालकंज असुर हमें सता रहे हैं, उनके मारने का उपाय कीजिए। यह सुनकर उसने देवों को कहा—दधीचि नाम का ऋषि है, उसके पास जाकर उसे कहो, वह मारने का उपाय कर देगा। यह सुनकर वे वैसा ही करना स्वीकार करके उस दधीचि के समीप पहुँचकर बोले—भगवन्, हमारे अस्त्रों को असुरों का पुरोहित शुक्र चुरा लेता है, उससे उनकी रक्षा कीजिए। उस ऋषि ने उनसे कहा कि इन अस्त्रों को मेरे मुख में डाल दो। तब मरुद्गणों सहित इन्द्र आदि देवों ने अस्त्र उसके मुख में डाल दिये। फिर समय आने पर जब देवासुरसंग्राम उपस्थित हुआ तब ऋषि के पास पहुँच देव बोले—भगवन्, अब वे अस्त्र हमें दे दीजिए। तब ऋषि ने कहा—वे तो पच गये। अब वे पुनः नहीं मिल सकते। तब प्रजापति आदि देव बोले—भगवन्, प्राणत्याग कर दीजिए। यह सुनकर उसने प्राणत्याग कर दिया। तब दधीचि की अस्थियों से इन्द्र ने वृत्रों का वध किया । सायण ने शाट्यायनियों का उल्लेख करते हुए उनके नाम से यह इतिहास लिखा है—अथर्वा के पुत्र दधीचि जब जीवित थे तब उनके देखने से ही असुर पराजित हो जाते थे। फिर जब वे स्वर्गवासी हो गये तब भूमि असुरों से भर गयी। तब इन्द्र ने उन असुरों से युद्ध करने में स्वयं को असमर्थ पाकर जब उस ऋषि की खोज की तब उसने सुना कि वे तो स्वर्ग चले गये। तब वहाँ के लोगों से पूछा कि क्या उन ऋषि का कोई अङ्ग बचा हुआ है? उन लोगों ने उसे बतलाया कि उसका घोड़ेवाला सिर अवशिष्ट है, जिस सिर से उसने अश्वि देवों को मधुविद्या का प्रवचन किया था, पर हम यह नहीं जानते कि वह कहाँ है। तब इन्द्र ने उसने कहा कि उसे खोजो। उन्होंने उसे खोजा और शर्यणावत् सरोवर में, जो कुरुक्षेत्र के जघनार्ध में प्रवाहित होता है, उसे पाकर ले आये। उसके सिर की अस्थियों से इन्द्र ने असुरों का वध किया। कुछ नवीन पात्रों को कल्पित कर पुराण, महाभारत आदियों में भी कुछ-कुछ भेद से इस प्रकार की कथाएँ वर्णित हैं। ये सब कथाएँ इसी मन्त्र को आधार बनाकर रची गयी हैं। वे वास्तविक नहीं, अपितु आलङ्कारिक ही जाननी चाहिएँ। आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक क्षेत्रों में सर्वत्र ही देवासुरसंग्राम चल रहा है। मनुष्य के मन में दिव्य प्रवृत्तियों और आसुरी प्रवृत्तियों का संग्राम आध्यात्मिक क्षेत्र का संग्राम है, जैसा हमारे द्वारा कृत इस मन्त्र की व्याख्या में स्पष्ट है। इन्द्र परमेश्वर दध्यङ् सूर्य की अस्थियों से अर्थात् अस्थिसदृश किरणों से मेघों का और रोग आदियों का वध करता है, यह अधिदैवत व्याख्या है। इन्द्र राजा दध्यङ् सेनापति की अस्थियों अर्थात् अस्थियों के समान सुदृढ़ शस्त्रास्त्रों से शत्रुओं का संहार करता है, यह अधिभूत व्याख्या है। वेदों में दध्यङ् नाम के किसी ऐतिहासिक मुनिविशेष की गाथा का होना तो संभव ही नहीं है, क्योंकि वेद सभी ऐतिहासिक मुनियों से पूर्व ही विद्यमान थे और पूर्ववर्ती वेद में परवर्तियों का इतिहास कैसे हो सकता है? ऋषि दयानन्द ने ऋग्भाष्य (ऋ० १।८४।१३) में इस मन्त्र की व्याख्या में सूर्य के दृष्टान्त से सेनापति का कृत्य वर्णित किया है। वहाँ उन द्वारा प्रदर्शित भावार्थ यह है—यहाँ वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। मनुष्यों को उसे ही सेनापति बनाना चाहिए जो सूर्य के समान दुष्ट शत्रुओं का हन्ता और अपनी सेना का रक्षक हो ॥

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    पदार्थ

    (अप्रतिष्कुतः) ‘कुतोऽपि गुणकर्मस्वभावात्-अप्रतिः-न प्रतिनि-धिर्यस्य सः-अप्रतिष्कुतः’ गुणकर्म स्वभाव से प्रतिनिधिरहित तथा न प्रति-आप्रवणशील—अपने गुणकर्म स्वभाव से न विचलित होनेवाला—एकरस “स्कुञ् आप्रवणे” [क्र्यादि॰] एवं न प्रतिकृत—प्रतिकार से रहित “मध्ये सकारागमश्छान्दसः” और किसी से न प्रतिहिंसित “अप्रतिष्कुतः-अप्रतिष्कृतः” [निरु॰ ६.१६] (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (दधीचः) दधि-ध्यान—परमात्म-ध्यान को प्राप्त ध्यानी के “दध्यङ् प्रत्यक्तो ध्यानम्” [निरु॰ १२.३६] (वृत्राणि) पापों—पापविचारों को “पाप्मा वै वृत्रः” [श॰ ११.१.५.७] (अस्थभिः) अस्थियों उपतापित करने वाली “असु उपतापे” [कण्ड्वादि॰] समिधाओं—समिद्ध ज्ञानप्रकाश से प्रदीप्त स्वशक्तियों से “अस्थीनि समिधः” [श॰ ९.२.६.४६] (जघान) नष्ट कर देता है तथा (नव नवतीः) नौ—पाँच ज्ञानेन्द्रियों मन बुद्धि चित्त अहङ्कार वाली गतिप्रवृत्तियों वासनाओं को भी “नवते गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४] नष्ट कर देता है।

    भावार्थ

    किसी भी ज्ञान दया न्याय शक्ति आदि गुण, सृष्टिरचना, जीवों के कर्मफलादि कर्म सर्वगत, विभु आदि स्वभाव से प्रतिनिधि—समकक्ष से रहित तथा स्वगुणादि से अविचलित एकरस एवं प्रतिकार न कर सकने योग्य न प्रतिकार का इच्छुक और अन्य से अहिंसित होता हुआ अपने ध्यान में अपनी उपासना में रत हुए ध्यानी उपासक के पापों स्वविषयक पापों अन्य के प्रति पापों को नष्ट किया करता है अपितु वह ध्यानी के नौ प्रकार की वासनाओं को भी नष्ट कर देता है जो कि पाँच ज्ञानेन्द्रियों में गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द ग्रहण वासनाएँ हैं एवं मन बुद्धि चित्त अहङ्कार के अर्थात् मन के संकल्प बुद्धि की तर्कनाएँ, चित्त के स्मरण, अहङ्कार की ममताएँ संसार को लक्ष्य कस्के होती हैं उन्हें भी नष्ट करता है निरुद्ध कर देता है॥५॥

    विशेष

    ऋषिः—गोतमः (उपासना में अत्यन्त गतिशील ध्यानी)॥<br>

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    विषय

    दध्यङ् की प्रक्षेपण क्रिया

    पदार्थ

    जीवात्मा के लिए ‘इन्द्र' शब्द का प्रयोग तब होता है जबकि वह इन्द्रियों का स्वामी हो, न कि दास। उष:काल में जागकर जो अपने को निर्मल व पूर्ण बनाने में लगा है, क्या वह इन्द्र न बनेगा? यह इन्द्र (वृत्राणि) = ज्ञान को आवृत करनेवाले काम, क्रोध व लोभ को (जघान)=समाप्त करता है। इसीलिए यह इन्द्र (नवती:) = [नव् गतौ] निरन्तर गतिशील अत्यन्त चञ्चल इन (नव) = पाँच ज्ञानेन्द्रियों तथा चार अन्तःकरणों [ मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार] इन नौ को (जघान) = मारता है । 'मन को मारना' इस मुहावरे का अर्थ इसे काबू करना ही होता है। वस्तुत: इन मन आदि को मारे बिना मनुष्य के लिए जीना कठिन है। मन न मरेगा तो मनुष्य मरेगा, मन को मार लिया तो जीवन को ठीक कर लिया।

    इन्द्र यह कैसे कर पाता है? (दधीचः अस्थभिः) = [दध्यङ् = ध्याता] ध्यान करनेवाले की प्रक्षेपण [असु क्षेपणे] क्रियाओं से। जो मनुष्य सदा प्रातः - सायं ध्यान का अभ्यास करता है, और सब विषयों को चित्त से परे फेंकने का प्रयत्न करता है वह इस मन को कुछ देर के लिए निर्विषय [ ध्यानं निर्विषयं मनः ] बनाने के अभ्यास से (अप्रतिष्कुतः) = नहीं दिया जाता है आह्वान [Challenge] जिसको [अ-प्रति-कु-तः, कु शब्दे], ऐसा शक्तिशाली अद्वितीय योद्धा बन जाता है। कामादि वृत्र अब इसपर आधिपत्य नहीं जमा पाते। इसने उनके सब किलों को जीत लिया है। इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि ही इनके गढ़ थे। इन सबको इस इन्द्र ने जीत लिया है। इनको इसने ऐसा कुचल दिया है कि ये सिर उठा ही न सकें। इस प्रकार अपनी इन्द्रियों को पवित्र बनाकर यह 'गो-तम' कहलाया है- प्रशस्त इन्द्रियोंवाला ।
    वस्तुतः काम, क्रोध, लोभ का विजेता सर्वमहान् त्यागी है। इसने भोगों को त्यागकर त्यागियों में अपनी गणना कराई है, इसी से यह राहू - [छोड़ना]  - गण कहलाया है।

    भावार्थ

    दध्यङ् की प्रक्षेपणादि क्रियाओं से हम 'गोतम राहूगण' बनें।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( इन्द्रः ) = आत्मा ( दधीचः ) = ध्यान द्वारा प्राप्त करने योग्य परमात्मा की ( अस्थभिः ) = तमोनाशक शक्तियों द्वारा ( अप्रतिष्कुतः ) = किसी से भी पराजित न होकर ( नव नवती: ) ८१० ( वृत्राणि ) = ज्ञान के आवरण करने वाले विघ्नों को ( जघान ) = नाश करता है ।

    आत्मा की शक्ति प्रकृति के तीन गुण सत्व, रजस्, तमस्, तीन कालों के भेद से ९ प्रकार की हुई । प्रभाव, उत्साह और मन्त्र तीन शक्तियों के भेद से २७ प्रकार की हुई । फिर सात्विकादि के सम विषम होने से ८१ प्रकार की, दश दिशाओं के भेद से ८१० प्रकार की होजाती है । इतनी प्रकार की शक्तियों से वह इतनी ही व्युत्थान वृत्तियों पर विजय करता है ।

    इन्द्र की कथा भी आलंकारिक है, स्थानाभाव से नहीं लिखते ।
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - गोतम:।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    निशायां ये निशाचराः प्रादुर्भवन्ति ते कथं हन्यन्ते इत्याह।

    पदार्थः

    (अप्रतिष्कुतः२) आन्तरिके देवासुरसंग्रामे असुरैः अप्रतिकृतः अप्रतिस्खलितो वा। अप्रतिष्कुतः अप्रतिकृतः अप्रतिस्खलितो वेति निरुक्तम्। ६।१६। (इन्द्रः) बलवान् जीवात्मा परमात्मा वा (दधीचः) ध्यानतत्परस्य मनसः। दध्यङ् प्रत्यक्तो ध्यानमिति वा प्रत्यक्तमस्मिन् ध्यानमिति वा। निरु० १२।३३। (अस्थभिः) अस्थिवत् सुदृढाभिः सात्त्विकवृत्तिभिः। अस्थिभिः इति प्राप्ते छन्दस्यपि दृश्यते। अ० ७।१।७६ इति इकारस्य अनङादेशः। (नवतीः नव३) नवोत्तरां नवतिं एकोनशतमित्यर्थः। (वृत्राणि) आवरकान् निशाचरान् (जघान) हतवान् हन्ति वा। नवनवतिर्निशाचरास्तावत्—दशेन्द्रियाणि, दश प्राणाः, अष्टौ चक्राणि, अन्तःकरणचतुष्टयम् शरीरं चेति त्रयंस्त्रिंशत्साधनैः कृतानि, क्रियमाणानि करिष्यमाणानि च भूतवर्त्तमानभविष्यत्कालिकानि पापानि, तानि इन्द्रो जीवात्मा परमात्मा च सावधानस्य मनसः सात्त्विकवृत्तिभिर्हन्ति ॥५॥

    भावार्थः

    पूर्वतनयोर्द्वयोर्मन्त्रयोर्निशायास्तन्निराकरणार्थम् उषसः प्रादुर्भावस्य च क्रमेण वर्णनं कृतम्। अस्मिन् मन्त्रे निशासु जायमानानां पापरूपाणां निशाचराणां ध्वंसो वर्ण्यते—इन्द्रो दधीचोऽस्थिभिस्तान् हन्तीति। अयमिन्द्रो नाम मनुष्यदेहे विद्यमानो जीवात्मा हृदये स्थितः परमात्मा च। दध्यङ् च मनः। तस्य मनसः सात्त्विकवृत्तिरूपैरस्थिभिस्ते निशाचराः हन्यन्ते ॥५॥ एतन्मन्त्रस्य व्याख्याने विवरणकृता माधवेनेत्थमितिहासः प्रादर्शि—“अत्रेतिहासमाचक्षते। कालकञ्जा नाम असुराः। तैरसुरैर्बाध्यमाना देवा ब्रह्माणमुपगम्योक्तवन्तः। भगवन् कालकञ्जैरसुरैर्बाध्यामहे। तेषां मारणोपायं विधत्स्वेति। तच्छ्रुत्वा स तानुवाच दधीचिर्नाम ऋषिः। तमुपगम्य ब्रूत। स मारणोपायं विधास्यतीति। ते तच्छ्रुत्वा तथेत्यङ्गीकृत्य तं दधीचिमुपगम्य उक्तवन्तः—भगवन्नस्मदीयान्यस्त्राणि शुक्रस्तेषाम् असुराणाम् पुरोधा अपहरति, तानि रक्षस्व। ततः स ऋषिस्तानुवाच—मम मुखे प्रक्षिपध्वम्। तत इन्द्रादिभिर्दैवैः समरुद्गणैस्तस्य मुख प्रक्षिप्तानि। पुनः कालेन देवासुरसंग्रामे पर्युपस्थिते एत्य देवा ऊचुः—भगवन् तान्यस्त्राणि प्रयच्छस्वास्माकम्। ततस्तेनोक्तम्—तानि मे जीर्णानि। न तानि पुनः प्राप्तुं शक्यानि। ततः प्रजापतिमुखा देवा ऊचुः—भगवन् ! प्राणत्यागं कुरुष्वेति। तत्छ्रुत्वा पुनः कृतश्च तेन प्राणत्यागः। तस्य दधीचः स्वभूतैरस्थिभिरिन्द्रो वृत्राणि जघान इति।” सायणस्तु ब्रूते—अत्र शाट्यायनिन इतिहासमाचक्षते। आथर्वणस्य दधीचो जीवतो दर्शनेन असुरा पराबभूवुः। अथ तस्मिन् स्वर्गते असुरैः पूर्णा पृथिव्यभवत्। अथेन्द्रस्तैरसुरैः सह योद्धुमशक्नुवंस्तमृषिमन्विच्छन् स्वर्गं गत इति शुश्राव। अथ पप्रच्छ तत्रत्यान् इह किमस्य किञ्चित् परिशिष्टमङ्गमस्ति ? इति। तस्मा अवोचन्—अस्त्येतद् आश्वं शीर्षं, येन शिरसा अश्विभ्यां मधुविद्यां प्राब्रवीत्, तत्तु न विद्मः तद्यत्राभवदिति। पुनरिन्द्रोऽब्रवीत्—तदन्विच्छतेति। तद् वा अन्वेषिषुः। तच्छर्यणावत्यनुविद्य आजह्रुः। शर्यणावद्ध वै नाम कुरुक्षेत्रस्य जघनार्द्धे सरः स्यन्दते। तस्य शिरसोऽस्थिभिरिन्द्रोऽसुरान् जघानेति। केषाञ्चिन्नूतनानां पात्राणां कल्पनापुरस्सरं पुराण-महाभारतादिष्वपि किञ्चिद्भेदेनैवंविधाः कथा वर्णिताः सन्ति। सर्वा एताः कथा इमं मन्त्रमुपजीव्यैव रचिताः। तास्तु न वास्तविक्यः, प्रत्युतालङ्कारिक्य एव विज्ञेयाः। आध्यात्मिकाधिदैविकाधिभौतिकेषु क्षेत्रेषु सर्वत्रैव देवासुरसङ्ग्रामः प्रवर्तते। मनुष्यस्य मनसि दिव्यप्रवृत्तीनामासुरप्रवृत्तीनां च संग्राम इत्याध्यात्मम्, यथास्मत्कृते मन्त्रव्याख्याने स्पष्टम्। इन्द्रः परमेश्वरः दधीचः सूर्यस्य अस्थिभिः अस्थिसदृशैः किरणैः मेघान् रोगादींश्च हन्तीत्यधिदैवम्। इन्द्रो राजा दधीचः सेनापतेः अस्थिभिः अस्थिवत् सुदृढैः शस्त्रास्त्रैः शत्रून् हन्तीत्यधिभूतम्। एवमुच्चावचैरभिप्रायैर्ऋषीणां मन्त्रदृष्टयो भवन्तीति बोध्यम्। वेदे दध्यङ्नाम्नः कस्यचिदैतिहासिकस्य मुनिविशेषस्य गाथा तु न संभवति, वेदस्य सर्वेभ्योऽपि मुनिभ्यः पूर्वमेव विद्यमानत्वात्, पूर्ववर्तिनि च वेदे परिवर्तिनामितिहासस्यासंभवाच्च। दयानन्दर्षिणा ऋ० १।८४।१३ भाष्येऽस्य मन्त्रस्य व्याख्याने सूर्यदृष्टान्तेन सेनापतिकृत्यं वर्णितम्। एष च मन्त्रस्य तत्कृतो भावार्थः—“अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः स एव सेनापतिः कार्यो यः सूर्यवच्छत्रूणां हन्ता स्वसेनारक्षकोऽस्तीति वेद्यम्” इति ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १।८४।१३, अथ० २०।४१।१, साम० ९१३। २. अप्रतिस्खलितः—इति वि०। ष्कुञ् आप्रवणे। अप्रत्यागतः केनापि—इति भ०। परैरप्रतिशब्दितः प्रतिकूलशब्दरहितः—इति सा०। ३. नवतीर्नव नवसंख्याका नवतीः दशोत्तराणि अष्टौ शतानि (९०*९) इति विवरणकृतो भरतस्वामिनः सायणस्य चाशयः। तानि च सायणेनेत्थं परिगणितानि—लोकत्रयवर्तिनो देवान् जेतुम् आदावासुरी माया त्रिधा सम्पद्यते। त्रिविधा सा अतीतानागतवर्तमानकालभेदेन तत्कालवर्तिनो जेतुं पुनरपि प्रत्येकं त्रिगुणिता भवति, एवं नव सम्पद्यन्ते। पुनरपि उत्साहादिशक्तित्रयरूपेण त्रैगुण्ये सति सप्तविंशतिः सम्पद्यन्ते। पुनः सात्त्विकादिगुणत्रयभेदेन त्रैगुण्ये सति एकोत्तरा अशीतिः सम्पद्यते। एवं चतुर्भिस्त्रिकैर्गुणिताया मायाया दशसु दिक्षु प्रत्येकमवस्थाने सति नव नवतयः सम्पद्यन्ते इति।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Soul, with the aid of ignorance-dispelling forces of God, Attainable through contemplation. Unvanquished by any earthly power, overcomes eight hundred and ten impediments that overshadow knowledge.

    Translator Comment

    Eight hundred and ten impediments are enumerated below. Three forces of matter, Satva, (Truth) Rajas (Possession). Tamas (Darkness) become nine, multiplied by three divisions of time, past, present and future. They become twenty seven, multiplied by the three attributes of प्रभाव (Power), उत्साह (perseverance) मन्त्र (Counsel). Multiplied by three stages of उत्तम, मध्यम, अधम i.e. High, Medium and Low, the number becomes 81. Taking into consideration the ten directions, the number becomes 810. This is a plausible explanation offered by Pt. Jaidev Vidyalankar, and Swami Tulsi Ram. Some commentators have translated the word नवतीर्नव as many. Sayana has fabricated a historical story on this verse, which is unacceptable as Vedas are free from historical references, being the word of God in the beginning of creation.^Griffith translates Dadhicha as a Rishi, son of Atharvan, with his bones converted into a thunderbolt. Indra is said to have slain the host of vritras or demons who withhold the rain. Vritras arc impediments of ignorance in the way of knowledge. Dadhicha means God attainable through contemplation.^Griffith’s translation is not plausible.

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    Meaning

    Indra, lord of light and space, unchallenged and unchallengeable, wields the thunderbolt and, with weapons of winds, light and thunder, breaks the clouds of ninety-nine orders of water and electricity for the sake of humanity and the earth. (Rg. 1-84-13)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अप्रतिष्कुतः) ગુણ, કર્મ, સ્વભાવ દ્વારા પ્રતિનિધિ રહિત તથા ન પ્રતિ - આપ્રવણશીલ પોતાના ગુણ, કર્મ, સ્વભાવથી વિચલિત ન થનાર, એકરસ અને ન પ્રતિકૃત = પ્રતિકારથી રહિત તથા કોઈથી પ્રતિહિંસિત ન થનાર (इन्द्रः) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા (दधीचः) દધિ = ધ્યાન-પરમાત્માના ધ્યાનને પ્રાપ્ત ધ્યાનીના (वृत्राणि) પાપો - પાપી વિચારોને (अस्थभिः) અસ્થિઓને ઉપતાપિત કરનારી સમિધાઓ-સમિદ્ધ જ્ઞાન પ્રકાશથી પ્રદીપ્ત સ્વશક્તિઓથી (जघान) નષ્ટ કરી નાખે છે તથા (नव नवतीः) નવ = પાંચ જ્ઞાનેન્દ્રિયો, મન, બુદ્ધિ, ચિત્ત, અહંકાર યુક્ત ગતિ પ્રવૃત્તિઓ-વાસનાઓને પણ નષ્ટ કરી નાખે છે. (૫)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : કોઈપણ જ્ઞાન, દયા, ન્યાયશક્તિ આદિ ગુણ, સૃષ્ટિ રચના, જીવોના કર્મફળાદિ કર્મમાં સર્વગત, વિભુ આદિ સ્વભાવથી પ્રતિનિધિ - સમકક્ષથી રહિત, સ્વગુણોથી અવિચલિત, એકરસ, પ્રતિકાર કરવાથી રહિત, પ્રતિકારની ઇચ્છા રહિત, અન્ય દ્વારા અહિંસિત થનાર, પોતાના ધ્યાનમાં, પોતાની ઉપાસનામાં મગ્ન રહેનાર ઉપાસકના પાપો-પોતાના વિષયક પાપો તથા અન્ય પ્રત્યેના પાપોને નષ્ટ કર્યા કરે છે; પરંતુ તે ધ્યાનીની નવ પ્રકારની વાસનાઓનો પણ નાશ કરી નાખે છે - જે પાંચ જ્ઞાનેન્દ્રિયોમાં શબ્દ, સ્પર્શ, રૂપ, રસ અને ગંધ ગ્રહણ વાસનાઓ છે તથા મન, બુદ્ધિ, ચિત્ત અને અહંકારના અર્થાત્ મનના સંકલ્પ, બુદ્ધિ તર્કો, ચિત્તના સ્મરણ, અહંકારની મમતાઓ સંસારને લક્ષ્ય કરીને થાય છે તેને પણ નષ્ટ કરે છે, નિરુદ્ધ કરી નાખે છે. (૫)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    پاپوں کا وِناشک پرماتما

    Lafzi Maana

    اِندر پرماتما جو کہ (اپری تش کُتہ) کسی سے بھی ہرایا نہیں جا سکتا (استھی بھی) اپنی گیان پرکاش شکتیوں سے (ودھیچہ) پرمیشور کا دھیان کرنے والے بھگت آتما کی (نوتی) "نہ" کرنے والی یعنی ناستک اِیشور کو نہ ماننے والی (نوورترانی) 9 پاپ ورتیوں یعنی 5 گیان اِندری ناک، کان، آنکھ، جِلد اور زبان تتھا 4 انتہہ کرن ارتھات من، بُدھی، چِت اور اہنکار یہ 9 ورتیاں جب پرکرتی کے دو گُنوں رَج اور تَم کے حملے سے بُرائیوں میں پھنس جاتی ہیں تو ان کو (جگھان) وہ اِندر پرمیشور نشٹ کر دیتا ہے۔

    Tashree

    اِس منتر کے انیک بھاشیہ کاروں (مترجموں) نے نو اور نوتی (90) کو ضرب دے کر 810=9x90 پاپ ورِتیاں (خیالاتِ بدیا وِشے واسنائیں) مان کر تفسیر کی ہے اور اِندر (کسی منش) نے ودھیچی نام کے کسی رشی کی ہڈیوں سے اُسروں اور راکھشسوں کو مارا۔ یہ پورانک کتھا بھی اِس وید منتر کے ارتھ کا انرتھ کر کے بنا لی گئی ہے، جو وید شاستروِر ودھ ہے۔ یوگیوں کو دھیان کرتے جب اُکھاڑتی ورِتیاں، نشٹ کر کے اِندر اُن کو دیتے سب سُو متیاں۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    पूर्व दोन मंत्रांमध्ये रात्रीचे व तिच्या निवारणार्थ उषेच्या प्रादुर्भावाचे क्रमश: वर्णन केले गेलेले आहे. या मंत्रात रात्री उत्पन्न होणाऱ्या निशाचराच्या विनाशाचे वर्णन आहे, की इंद्र दध्यऽच्या हाडांनी त्यांना मारतो. हा इंद्र माणसाच्या शरीरात विद्यमान जीवात्मा व हृदयात स्थित परमात्मा आहे. दध्यऽमन आहे. त्या मनाच्या सात्त्विक वृत्तीरूपी हाडांनी त्या निशाचरांचा वध होतो ॥५॥

    टिप्पणी

    या मंत्राच्या व्याख्येत विवरणकार माधवने या प्रकारे इतिहास प्रदर्शित केलेला आहे - कालकंज नावाचा असुर होता. त्या असुराकडून सतावलेले देव ब्रह्माजवळ पोचून म्हणाले - भगवान! कलकंज असुर आम्हाला त्रास देत आहेत, त्याला मारण्याचा उपाय करा. त्याने देवाला म्हटले - दधीचि नामक ऋषी आहे, त्याच्याजवळ जाऊन त्याला सांगा म्हणजे तो त्याला मारण्याचा उपाय सांगेल. हे ऐकून त्याप्रमाणे स्वीकार करण्यासाठी दधीचिजवळ ते पोचले व म्हणाले - भगवान, आमची अस्त्रे असुरांचा पुरोहित शुक्र चोरून घेतो तेव्हा आमचे रक्षण करा. तेव्हा ऋषीने म्हटले, ही अस्त्रे माझ्या मुखात घाला तेव्हा मरुद्गणांसहित इंद्र इत्यादी देवांनी त्यांच्या मुखात अस्त्रे घातली. नंतर जेव्हा देवासुरसंग्राम झाला तेव्हा देव ऋषीजवळ पोचले व अस्त्रे परत मागितली. तेव्हा ऋषी म्हणाले, ती अस्त्रे पचून गेली, ती पुन्हा मिळू शकत नाहीत. तेव्हा प्रजापती इत्यादी देव म्हणाले - भगवान, प्राणत्याग करा. हे ऐकून ऋषीने प्राणत्याग केला. तेव्हा दधीचिच्या अस्थींनी इंद्राने वृत्रांचा वध केला. सायणने शाट्यायनियांचा उल्लेख करत त्यांच्या नावाने इतिहास लिहिलेला आहे - अथर्वाचा पुत्र दधीचि जेव्हा जीवित होता तेव्हा त्यांच्या पाहण्यानेच असुर पराजित होत असत. नंतर जेव्हा ते स्वर्गवासी झाले तेव्हा भूमी असुरांनी भरून गेली. तेव्हा इंद्राने त्या असुरांशी युद्ध करण्यास असमर्थ वाटून जेव्हा त्या ऋषींचा शोध घेतला तेव्हा त्यांना कळले की ते स्वर्गवासी झाले. तेव्हा तेथील लोकांना विचारले, की त्या ऋषीचा एखादा अवयव उरलेला आहे का? तेव्हा लोकांनी म्हटले की त्यांचे घोड्यासारखे मस्तक शिल्लक आहे, ज्या मस्तकाने त्याने अश्विदेवांना मधुविद्येचे प्रवचन दिलेले होते, परंतु ते कुठे आहे हे आम्ही जाणत नाही, तेव्हा इंद्राने त्याचा शोध घेण्यास सांगितले. त्यांनी त्याचा शोध घेतला व शर्यणावत् सरोवरात, जे कुरुक्षेत्राच्या जघनार्था प्रवाहित होते ते घेऊन ते आले. त्याच्या डोक्याच्या अस्थींनी इंद्राने असुरांचा वध केला. काही नवीन पात्रांना कल्पित करून पुराणे, महाभारत इत्यादीमध्ये थोड्या थोड्या भेदाने या प्रकारच्या कथा वर्णिलेल्या आहेत. या सर्व कथा या मंत्राचा आधार घेऊन रचलेल्या, त्या वास्तविक नाहीत तर आलंकारिक आहेत. आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक क्षेत्रामध्ये सर्वत्र देवासुरसंग्राम चालतो. माणसाच्या मनात दिव्य प्रवृत्ती व आसुरी प्रवृत्तीचा संग्राम, आध्यात्मिक क्षेत्राचा संग्राम आहे. जसा आमच्याद्वारे या मंत्राच्या व्याख्येत स्पष्ट आहे. इंद्र परमेश्वर दध्यऽसूर्याच्या अस्थींनी अर्थात् अस्थिसदृश्य किरणांनी मेघांचा व रोग इत्यादीचा वध करतो ही आधिदैविक व्याख्या आहे. इंद्र राजा दध्यऽसेनापतीच्या अस्थींनी अर्थात् अस्थीप्रमाणे सृदृढ शस्त्रास्त्रांनी शत्रूंचा संहार करतो. ही अधिभूत व्याख्या आहे. वेदामध्ये दध्यऽनावाच्या कोणत्याही ऐतिहासिक मुनिविशेषाची गाथा असणे शक्यच नाही, कारण वेद सर्व ऐतिहासिक मुनीपूर्वीच विद्यमान होते व पूर्ववर्ती वेदात परवर्तीचा इतिहास कसा असू शकेल? ऋषी दयानंदानी ऋग्भाष्य (ऋ. १/८४/१३) मध्ये या मंत्राच्या व्याख्येत सूर्याच्या दृष्टांताने सेनापतीचे कृत्य वर्णित केलेले आहे. तेथे त्यांच्याद्वारे प्रदर्शित भावार्थ हा आहे - येथे वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. माणसांनी त्यालाच सेनापती बनवावे जो सूर्याप्रमाणे दुष्ट शत्रूंचा हंता व आपल्या सेनेचा रक्षक असावा ॥

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    विषय

    रात्री जे विशाचर प्रकट होतात, त्यांचा वध कशा प्रकारे केला जातो, हे पुढील मंत्रात सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    (अप्रतिष्कुतः) आंतरिक देवासुर संग्रामात असुर ज्याचा मुळीच प्रतिकार करू शकत नाहीत अथवा जो असुतांद्वारे केव्हाही पराजित होत नाही, असा (इन्द्रः) बलवान जीवाला वा परमात्मा (दधीचः) ध्यान मग्न नाने (अस्थभिः) अस्थिसम सुदृढ सात्त्विक वृत्तीद्वारे (नवतीनव) नव्याण्णवे (वृत्राणि) विशाचरांना (जघान) ठार करतो (मनातील दृढ सत्प्रवृत्तीद्वारे साधकाचा आत्मा दुष्ट प्रवृत्तींचा नाश करतो.) ते नव्याण्णवे (९९) निशाचर कोणते ? ते से - दहा इंद्रिये, दहा प्राण, आठ चक्र, अंतःकरण चतुष्ट्य आणि शरीर या तेहतीस साधनांद्वारे भूतकाळात केलेले, वर्तमान काळात घडणारे आणि भविष्यकाळात होणारे पाप. या सर्व प्रकारच्या पापांना जीवात्मा व परमात्मा सावधान मनाच्या सात्त्विक वृत्तींद्वारे नष्ट करून टाकतो. ।। २।।

    भावार्थ

    या पूर्वीच्या मंत्रात रात्रीचे आणि तिच्या निवारणार्थ उषेच्या प्राधुर्भावाचे क्रमशः वर्णऩ केले आहे. या मंत्रात रात्रीच्या वेळ (बेसावध मनोदशेत) उत्पन्न होणाऱ्या निशाचरांच्या विनाशाचे वर्णऩ केले आहे. त्यात म्हटले आहे की इन्द्र दध्यड्च्या अस्थींद्वारे त्या निशाचरांना (दुष्ट विचारांना( ठार करतो. हा इन्द्र म्हणजे शरीरात विद्यमान जीवात्मा आणि हृदयात विद्यमान परमात्मा. दध्यड् म्हणजे मन. या मनाच्या सात्त्विक रूप वृत्ती रूप अस्थीद्वारे त्या निशाचरांचा वध संभवतो. ।। ५।।

    विशेष

    विवरणकार माधव याने या मंत्राची व्याख्या करताना त्यात इतिहास दर्शविला आहे - ङ्गङ्घकालकंज नावाचे काही असुर होते. ते देवांना त्रास देत होते. त्रस्त वा पीडित देवगण ब्रह्माजवळ गेले आणि म्हणाले, ‘‘भगवन्, कालकंज असुर आम्हाला सतावीत आहेत. त्यांचा वध करण्याचा काही तरी उपाय करा. देवांची प्रार्थना ऐकून ब्रह्मा म्हणाले, ‘दधीचि नावाचा एक ऋषी आहे. त्याला विनंती करा. तो असुर संहाराचा उपाय सांगेल वा काही योजना करील. देवांना ते स्वीकार्य झाले. ते दधीचिजवळ जाऊन म्हणाले, ‘भगवन्, असुरांचा पुरोहित असलेला शुक्र आमची अस्त्रे चोरून नेतो. आपण आमच्या अस्त्रांचे रक्षण करा.’ ऋषी म्हणाले, ‘तुमची अस्त्रे माझ्या मुखात ठेवा. ते ऐकून इन्द्र आदी देवांनी व मरुद्वणांनी सर्व अस्त्र- शस्त्रे ऋषीच्या मुखात घातली. नंतर जेव्हा देवासुर संग्रामाचा प्रसंग उद्भवला, तेव्हा देवगण ऋषीजवळ जाऊन म्हणाले, ‘आमची अस्त्रे आम्हाला द्या.’ ऋषी म्हणाले, ‘माझ्या उदरात जाऊन त्या अस्त्र - शस्त्रांचे पचन झाले. आता ती अस्त्रे पुन्हा मिळणे शक्य नाही. तेव्हा प्रजापती आदी देवगण म्हणाले, ‘भगवन्, मग आपण आता प्राण त्याग करा (म्हणजे तुमच्या उदरातील अस्त्रे आम्हाला मिळतील) ते ऐकून दधीचि ऋषीने प्राण त्यागले. मग ददीचिच्या अस्थीनी निर्मित शस्त्रांद्वारे इन्द्राने वृत्रांचा वध केला. सायणाने शाक्यायनियांचा संदर्भ देत त्यांच्या नावाने या मंत्रात अशा प्रकारे इतिहास दाखविला आहे - अथर्वाचा पुत्र दधीचि जोपर्यंत जिवंत होता, तोपर्यंत त्याच्या असा काही प्रभाव होता की त्याच्या केवळ दृष्टीने असुर पराजित होत असत, पण त्याच्या निधनानंतर सारी पृथ्वी असुरांनी व्यापून गेली. मग जेव्हा इन्द्राने पाहिले की आता असुरांसी युद्ध करणे देवांना शक्य नाही, तेव्हा त्याने दधीचि ऋषीविषयी चौकशी केली. त्याला समजले की दधीचि ऋषी स्वर्गस्थ झाले. यामुळे इन्द्राने तेथील लोकांना विचारले की दधीचि ऋषीच्या शरीराचा एखादा अवयव शेष राहिला आहे का ? लोकांनी सांगितले की ऋषीचे घोड्यासारखे असलेले ते शिर शेष राहिले आहे की ज्या शिराने ऋषीने अश्विदेवांना मधुविद्येविषयी प्रवचन सांगितले होते, पण आम्ही हे सांगू शकत नाही की ते शिर आहे कुठे ? तेव्हा इन्द्राने ते शिर शोधून आणण्याचा आदेश दिला. लोकांनी ते शोधण्यास आरंभ केला तेव्हा त्यांना कुरक्षेत्राच्या जघनर्धात (पाण्याच्या तळात प्रवाहित होणाऱ्या) शर्थणावत नावाच्या सरोवरात ते शिर सापडले. त्या शिराच्या अस्थींद्वारे इन्द्राने असुरांचा वध केला. पुराण, महाभारत आदी अन्य काही ग्रंथात थोड्याशा फरकाने आणि काही नवीन पात्रांची कल्पना करून हीच कथा सांगितलेली आढळते. त्या सर्व कथा याच मंत्राला आधार मानून रचलेल्या आहेत, पण त्या वास्तविक वा सत्य न मानता अलंकारिक आहेत असे समजले पाहिजे. (हे सत्य जाणून घेतले पाहिजे की देवासुर संग्राम म्हणजे काय) वास्तविक पाहता आध्यात्मिक, आधिदैविक आणि आधिभौतिक असो, सर्वत्र एक प्रकारचा देवासुर संग्राम सुरू आहे. माणसाच्या मनातील दिव्य सत्प्रवृत्तीमध्ये आणि आसुरी दुष्यवृत्तीमध्ये होणारा संग्राम हा आध्यात्मिक क्षेत्रातील संग्राम आहे. आम्ही मंत्राच्या भाष्यामध्ये याच संग्रामाचा उल्लेख केला आहे. इन्द्र परमेश्वर इध्यड्च्या अर्थात सूर्याच्या अस्थींद्वारे अर्थात अस्थीसमान शभ्र किरणांद्वारे मेघांचा आणि रोगादींचा वध करतो, ही आधिदैविक व्याख्या आहे. इन्द्र राजा दध्यड् सेनापतीच्या अस्थींनी अर्थात अस्थीसमान सुदृढ अस्त्र- शस्त्रांनी शत्रूंचा संहार करतो. ही आधिभौोतिक व्याख्या आहे. दध्यड् नावाच्या कोणा ऐतिहासिक मुनिवशेषाची गाथा वेदात असणे कदापि शक्य नाही. कारण की वेद इतिहासात उल्लिखित सर्व मुनीपेक्षा पूर्वी आहेत. मग वेदानंतर जन्मलेल्या वा असलेल्या मुनीचे वर्णऩ वेदात असणे कसे शक्य आहे ? ऋषी दयानंदाने ऋग्वेद भाष्यात (ऋग्वेद १/८४/१३) या मंत्रावर भाष्य करताना सूर्याच्या दृष्टान्तावरून सेनाध्यक्षाच्या कर्तव्यांचे वर्णन केले आहे. तिथे त्यानी मंत्राचा केलेला भावार्थ असा आहे - ‘इथे वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. मनुयांनी (वा राष्ट्राच्या नागरिकांनी) त्यालाच सेनापती म्हणून निवडावे की जो सूर्यासम तेजस्वी सून दुष्टांचा, शत्रूचा विनाश करतो आणि जो आपल्या सैन्याचे रक्षण करण्यास समर्थ आहे. ।।’ आत इन्द्र नावाने परमेश्वराचे व विद्वानांचे आवाहन केले आहे -

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    பிரதிகூலமற்ற (இந்திரன்) [1](ததீசியின்) என்புகளால்,
    (விருத்திரர்களைக்) கொல்லுகிறான்.

    FootNotes

    [1].ததீசி - சூரியரசிமிகளால்

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