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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 180
    ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    3

    इ꣢꣯न्द्रेहि꣣ म꣡त्स्यन्ध꣢꣯सो꣡ वि꣡श्वे꣢भिः सोम꣣प꣡र्व꣢भिः । म꣣हा꣡ꣳ अ꣢भि꣣ष्टि꣡रोज꣢꣯सा ॥१८०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣡न्द्र꣢꣯ । आ । इ꣣हि । म꣡त्सि꣢꣯ । अ꣡न्ध꣢꣯सः । वि꣡श्वे꣢꣯भिः । सो꣣म꣡पर्व꣢भिः । सो꣣म । प꣡र्व꣢꣯भिः । म꣣हा꣢न् । अ꣣भिष्टिः꣢ । ओ꣡ज꣢꣯सा ॥१८०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रेहि मत्स्यन्धसो विश्वेभिः सोमपर्वभिः । महाꣳ अभिष्टिरोजसा ॥१८०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र । आ । इहि । मत्सि । अन्धसः । विश्वेभिः । सोमपर्वभिः । सोम । पर्वभिः । महान् । अभिष्टिः । ओजसा ॥१८०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 180
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 7;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमेश्वर और विद्वान् का आह्वान किया गया है।

    पदार्थ

    प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (इन्द्र) दुर्गुणों को विदीर्ण तथा सद्गुणों को प्रदान करनेवाले परमेश्वर ! आप (आ इहि) हमारे जीवन-यज्ञ में आइए, (अन्धसः) हमारे पुरुषार्थरूप अन्न से तथा (विश्वेभिः) सब (सोमपर्वभिः) भक्ति-समारोहों से (मत्सि) प्रसन्न होइए। आप (महान्) महान् और (ओजसा) बल से (अभिष्टिः) हमारे कामादि रिपुओं के प्रति आक्रमण करनेवाले हो ॥ द्वितीय—विद्वान् के पक्ष में। हे (इन्द्र) विद्यारूप ऐश्वर्य से युक्त विद्वन् ! आप (आ इहि) आइए, (अन्धसः) सात्त्विक अन्न से, तथा (विश्वेभिः) सब (सोमपर्वभिः) बल बढ़ानेवाली सोम आदि ओषधियों के खण्डों से (मत्सि) तृप्त होइए। आप (महान्) गुणों में महान्, तथा (ओजसा) विद्याबल से (अभिष्टिः) अभीष्ट प्राप्त करानेवाले और समाज के अविद्या, दुराचार आदि दुर्गुणों पर आक्रमण करनेवाले, बनिए ॥६॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥६॥

    भावार्थ

    जैसे पुरुषार्थ और भक्ति से प्रसन्न किया गया परमेश्वर मनुष्यों के काम, कोध्र, हिंसा, उपद्रव आदि सब शत्रुओं को क्षण भर में ही विनष्ट कर देता है, वैसे ही विद्वान् मनुष्य को चाहिए कि वह सात्त्विक एवं पुष्टिप्रद अन्न, ओषधि आदि से परिपुष्ट होकर राष्ट्र से अविद्या आदि दुर्गुणों का शीघ्र ही विनाश करे ॥६॥

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    पदार्थ

    (इन्द्र-एहि) हे मेरे परमात्मन्! मेरे हृदय में आ (अन्धसः) आध्यानीय—ध्यानोपासन के (विश्वेभिः) सारे—(सोमपर्वभिः) मेरे द्वारा अनुष्ठित सोम्ययोग के अङ्गों से (मत्सि) तू मुझ पर हर्षित हो—मुझे उपकृत कर (ओजसा) अपने आत्मबल से (महान्-अभिष्टिः) महान् सर्वमहान् सबको बाहर भीतर से प्राप्त है प्राप्त करता है।

    भावार्थ

    परमात्मन्! तू महान् से महान् आत्मबल से सबके अन्दर बाहर प्राप्त है अतः तू मेरे अन्दर आ और मेरे ध्यानोपासन योगाङ्गों के द्वारा मुझ पर प्रसन्न हो, मुझे उपकृत कर, यह प्रार्थना है। परमात्मन् निश्चय तेरी ओर आने वाले मार्गों पर चलते हुए को देखकर तू प्रसन्न होता है और उसे उपकृत करता है॥६॥

    विशेष

    ऋषिः—मधुच्छन्दाः (मीठी इच्छा वाला, मधुतन्त्र उपासक)॥<br>

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    विषय

    गतिशील बन

    पदार्थ

    इस मन्त्र का ऋषि ‘मधुछन्दा वैश्वामित्रः' है- उत्तम इच्छाओंवाला- सबके साथ स्नेह करनेवाला। यह ऐसा बन सके, अतः प्रभु इससे कहते हैं कि (इन्द्र) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनकर अपने ‘इन्द्र' नाम को चरितार्थ करनेवाले हे जीव! तू (इहि) = गतिशील बन, सदा क्रियामय जीवनवाला बन । क्रिया तेरे लिए स्वाभाविक हो जाए। इस क्रियामय जीवन के परिणाम स्वरूप ही तू (अन्धसः) = सोम के - वीर्य के (मत्सि) = मद - हर्ष को प्राप्त करनेवाला बन। आध्यायनीय–सर्वथा ध्यान देने योग्य होने के कारण सोम का नाम अन्धस् है। इस सोम के शरीर में रक्षण से एक अद्भुत आनन्द का अनुभव होता है। क्रियाशीलता इस सोम की रक्षा
    में सहायक होती है। क्रियाशील मनुष्य पर वासनाओं का आक्रमण होता ही नहीं और उसका सोम वासनाग्नि से प्रतप्त होकर शरीर से पृथक् नहीं होता। यह मधुछन्दा मधुर, सात्त्विक भोजनों का सेवन करके शरीर में सोम का उत्पादन करता है और (विश्वेभिः सोमपर्वभिः) = सोम का शरीर में सब प्रकार से पूरण करने से (महान्) = महनीय बनता है - महत्ता को प्राप्त करता है। विश्व शब्द का अर्थ 'सब' भी है और विश्व की भावना शरीर में ही व्याप्त हो जाना–प्रविष्ट हो जाना भी है। सात्त्विक सोम वासनाग्नि से प्रतप्त नहीं होता तो शरीर में ही व्याप्त हो जाता है। पृ=धातु पूरण=भरना अर्थ की वाचक है। इस प्रकार जब सोम का शरीर में भरण होता है तो यह सोम मनुष्य को महान् बनाता है। वीर्य - रक्षा करनेवाला पुरुष ही कोई महान् कार्य कर पाता है। यह वीर्य उसे अनथक श्रम करने की शक्ति देता है।

    एवं, शक्तिशाली बनकर (ओजसा) = अपने ओज से वह मधुच्छन्दा (अभिष्टिः) = बुराई पर आक्रमण करनेवाला होता है [अभिष्ट:=to attack]। उत्तम कार्यों में शक्ति का विनियोग करके यह महान् बनता है। इसकी शक्ति औरों की रक्षा करनेवाली होती है।

    भावार्थ

    हम गतिशीलता के द्वारा शक्ति का शरीर में ही भरण करें और महान् बनें।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे ( इन्द्र ) = आत्मन् ! तू ( इहि ) = आ , साक्षात् हो । ( अन्धसः ) = प्राण की सूक्ष्म धारणाशक्ति की ( विश्वेभिः ) = समस्त ( सोमपर्वभिः ) = वीर्य के पालनकारी सामर्थ्यों  से तू ( मत्सि ) = प्रसन्न और तृप्त होता है और ( ओजसा ) = अपने बल से ( महाँ अभिष्टिः ) = बड़ी प्रबल इच्छा शक्ति वाला होजाता है। 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - मधुच्छन्दा:।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रनाम्ना परमेश्वरो विद्वांश्चाहूयते।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपरः। हे (इन्द्र) दुर्गुणविदारक सद्गुणप्रदायक परमेश्वर ! त्वम् (आ इहि) अस्माकं जीवनयज्ञम् आगच्छ, (अन्धसः) अस्मत्पुरुषार्थरूपाद् अन्नात्। अन्धः इति अन्ननाम। निघं० २।७। (विश्वेभिः) समस्तैः (सोमपर्वभिः) भक्तिसमारोहैश्च (मत्सि) हृष्टो भव। मदी हर्षे दिवादिः, लोटि बहुलं छन्दसि।’ अ० २।४।७३ इति श्यनो लुक्। मद्धि इति प्राप्ते, सर्वे विधयश्छन्दसि विकल्प्यन्ते इति सेर्हिरादेशो न भवति। त्वम् (महान्) महिमवान्, किञ्च (ओजसा) बलेन (अभिष्टिः२) अस्माकं कामादिरिपून् प्रति आक्रान्ता, वर्तसे इति शेषः। अभि पूर्वात् इष गतौ धातोः मन्त्रे वृषेषपचमनविदभूवीरा उदात्तः। अ० ३।३।९६ इति भावे विहितः क्तिन् अत्र बाहुलकात् कर्तरि ज्ञेयः। अभीष्टिः इति प्राप्ते एमन्नादिषु छन्दसि पररूपं वाच्यम्।’ अ० ६।१।९४ वा० इति पररूपम् ॥ अथ द्वितीयः—विद्वत्परः। हे (इन्द्र) विद्यैश्वर्ययुक्त विद्वन् ! त्वम् (आ इहि) आगच्छ, (अन्धसः) सात्त्विकाद् अन्नात्, (विश्वेभिः) समस्तैः (सोमपर्वभिः) बलवृद्धिकरीणां सोमाद्योषधीनां खण्डैश्च (मत्सि) तृप्यस्व। त्वम् (महान्) महागुणोपेतः, किञ्च (ओजसा) विद्याबलेन (अभिष्टिः) अभीष्टानां प्रापयिता यद्वा समाजस्य अविद्यादुराचारादिदुर्गुणान् प्रति आक्रान्ता भव इति शेषः ॥६॥३ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥६॥

    भावार्थः

    यथा पुरुषार्थेन भक्त्या च प्रसादितः परमेश्वरो मनुष्याणां कामक्रोधहिंसोपद्रवादीन् सर्वान् रिपून् क्षणेनैव विद्रावयति, तथा विद्वान् जनः सात्त्विकपुष्टिप्रदान्नौषध्यादिभिः परिपुष्टः सन् राष्ट्रादविद्यादीन् दुर्गुणान् सद्य एव विद्रावयेत् ॥६॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १।९।१, य० ३३।२५, अथ० २०।७१।७। २. अभिष्टिः आभिमुख्येन यष्टव्यः अभ्येषणशीलो वा शत्रूणाम्—इति वि०। अभिष्टोता अभिगन्ता शत्रूणाम्। अभिपूर्वाद् इषेः गतिकर्मणोऽभिष्टिः—इति भ०। अभीष्टिः शत्रूणामभिभविता—इति सा०। अभितः सर्वतो ज्ञाता ज्ञापयिता मूर्तद्रव्यप्रकाशको वा इति ऋ० १।९।१। भाष्ये, अभियष्टव्यः सर्वतः पूज्यः इति च य० ३३।२५ भाष्ये द०। ३. मन्त्रोऽयं दयानन्दर्षिणा ऋग्भाष्ये परमेश्वरपक्षे सूर्यपक्षे च, यजुर्भाष्ये च विद्वत्पक्षे व्याख्यातः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O soul, manifest thyself. Delight thee with all the vigour-infusing forces of fine breath. With thy strength, thou art filled with mighty desires.

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    Meaning

    Indra, lord of light and life, come with all the soma-celebrations of food, energy and joy, great as you are with majesty, power and splendour omnipresent, and give us the ecstasy of living with enlightenment. (Rg. 1-9-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्र एहि) હે મારા પરમાત્મન્ ! મારા હૃદયમાં આવ (अन्धसः) ધ્યાનોપાસના (विश्वेभिः) સમસ્ત (सोमपर्वभिः) મારા દ્વારા અનુષ્ઠિત સોમ્ય યોગના અંગોથી (मत्सि) તું મારા પર હર્ષ કરનાર બન - મને ઉપકૃત કર. (ओजसा) પોતાના આત્મબળથી (महान् अभिष्टिः) મહાન-સર્વથી મહાન સર્વને બહાર અને અંદરથી પ્રાપ્ત છે - પ્રાપ્ત કરે છે. (૬)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્મન્ ! તું મહાનથી પણ મહાનતમ આત્મબળ સર્વની અંદર અને બહાર પ્રાપ્ત છે, તેથી તું મારી અંદર આવ અને મારા ધ્યાનોપાસન યોગના અંગો દ્વારા મારા પર પ્રસન્ન થા, મને ઉપકૃત કર, એ જ પ્રાર્થના છે. 
    પરમાત્મન્ નિશ્ચય તારી તરફ આવનારા માર્ગો પર ચાલનારાઓને જોઈને તું પ્રસન્ન થાય છે અને તેને ઉપકૃત કરે છે. (૬)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    خُوشیوں کو برساؤ

    Lafzi Maana

    ہے اِندر پرمیشور آپ (ایہی) آئیے، میرے انتر آتما میں ساکھشات ہوئیے۔ (اندھسامتی) ہماری بھگتی رس کی بھینٹ سے پرسّن ہوویں (وشوے بھی سوم پروبھی) دھیان اُپاسنا کے انوشٹھانوں سوم یاگ وغیرہ پِوتّر یگیوں کو بھینٹ سے بھی مجُھ پر خوشی برسائیں۔ آپ اپنی (اوجسا مہان ابھشٹیہ) مہان شکتی بل سے سب کی منو اِچھاؤں کو سِدھ کرتے ہیں۔

    Tashree

    ہے اِندر آؤ سوم امرت پان کرنے کے لئے، بھگتی رَس سویکار کر خوُشیوں کی وَرشا کے لئے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसा पुरुषार्थ व भक्तीने प्रसन्न केलेला परमेश्वर माणसांचे काम, क्रोध, हिंसा, उपद्रव इत्यादी सर्व शत्रूंना क्षणभरात नष्ट करतो, तसेच विद्वान माणसाने सात्त्विक व पुष्टिप्रद अन्न औषध इत्यादींनी परिपुष्ट होऊन राष्ट्रातून अविद्या इत्यादी दुर्गुणांचा शीघ्र नाश करावा ॥६॥

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    विषय

    आत इन्द्र नावाने परमेश्वराचे व विद्वानांचे आवाहन केले आहे -

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) - परमात्मपर - (इन्द्र) दुर्गुण- विदारक आणि सद्गुण - प्रदायक हे परमेश्वर, आपण (आइहि) आमच्या जीवनयज्ञामध्ये या (तुमचमुळे आमचे जीवन आनंद व उत्साहाने भरून जाऊ द्या) (अन्धसः) आमच्या पुरुषार्थरूप अन्नाने तसेच (विश्वेभिः) सर्व (सोमपर्वभिः) भक्तिरसारोहाद्वारे (मत्सि) प्रसन्न व्हा. आपण (महान्) महान असून (ओजसा) तुमच्या बळाने (अभिष्टिः) आमच्या काय, क्रोधादी शत्रूंवर आक्रमण करणारे आहात. द्वितीय अर्थ - (विद्वानपर) - हे (इन्द्र) विद्यारूप ऐश्वर्याने संपन्न असलेले विद्वान, आपण (आ इहि) इथे या आणि (अन्धसः) सात्त्विक भोजनाने तसेच (विश्वेभिः) समस्त (सोमपर्रभिः) शक्ती वाढविणाऱ्या सोम आदी औषधीच्या सेवनाने (मत्सि) तृप्त व्हा. आपण (महान्) आपल्या महान (ओजसा) विद्याबळाद्वारे (अभिष्टिः) इच्छित पदार्थ प्राप्त करविणारे तसेच समाजातून अविद्या, दुचारण आदी दुर्गुणांवर आक्रमण करणारे व्हा. ।। ६।।

    भावार्थ

    जसा पुरुषार्थाने आणि भक्तीने प्रसन्न केलेला परमेश्वर मनुष्याच्या काम, क्रोध, हिंसा, उपद्रव आदी सर्व शत्रूंना एका क्षणात विनष्ट करतो, तद्वत विद्वान मनुष्यानेही आपल्या सात्त्विक वृत्तीद्वारे पुष्टिप्रद अन्न व औषधीचे सेवन करून त्याद्वारे राष्ट्रातील अविद्या आदी दुर्गुणआंचा नाश केला पाहिजे. ।। ६।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. ।। ६।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    (இந்திரனே!) எங்கள் செயல்களில் வரவும். சர்வமான (சோமரச ரூபமான) சத்துக்களால் உன்னை திருப்தியாக்குகிறோம். பலத்தால் பெரியவனாகி (சத்துருக்களினின்று நீ காப்பவன்).

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