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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1793
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
2
प्र꣡ वो꣢ म꣣हे꣡ म꣢हे꣣वृ꣡धे꣢ भरध्वं꣣ प्र꣡चे꣢तसे꣣ प्र꣡ सु꣢म꣣तिं꣡ कृ꣢णुध्वम् । वि꣡शः꣢ पू꣣र्वीः꣡ प्र च꣢꣯र चर्षणि꣣प्राः꣢ ॥१७९३॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । वः꣣ । महे꣢ । म꣣हेवृ꣡धे꣢ । म꣣हे । वृ꣡धे꣢꣯ । भ꣣रध्वम् । प्र꣡चे꣢꣯तसे । प्र । चे꣣तसे । प्र꣢ । सु꣣मति꣢म् । सु꣣ । मति꣢म् । कृ꣣णुध्वम् । वि꣡शः꣢꣯ । पू꣣र्वीः꣢ । प्र । च꣣र । चर्षणिप्राः꣣ । च꣣र्षणि । प्राः꣢ ॥१७९३॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वो महे महेवृधे भरध्वं प्रचेतसे प्र सुमतिं कृणुध्वम् । विशः पूर्वीः प्र चर चर्षणिप्राः ॥१७९३॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । वः । महे । महेवृधे । महे । वृधे । भरध्वम् । प्रचेतसे । प्र । चेतसे । प्र । सुमतिम् । सु । मतिम् । कृणुध्वम् । विशः । पूर्वीः । प्र । चर । चर्षणिप्राः । चर्षणि । प्राः ॥१७९३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1793
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ३८२ क्रमाङ्क पर परमात्मा की स्तुति के विषय में की जा चुकी है। यहाँ एक साथ आचार्य और परमात्मा दोनों का विषय कहते हैं।
पदार्थ
हे विद्यार्थियो वा प्रजाओ ! तुम (महेवृधे) महत्त्व के लिए बढ़ानेवाले, (महे) महान् इन्द्र अर्थात् आचार्य वा परमात्मा के लिए (प्र भरध्वम्) उत्तम उपहार लाओ। (प्रचेतसे) प्रकृष्ट चित्त वा प्रकृष्ट ज्ञानवाले उसके लिए (सुमतिम्) उत्तम स्तुति (प्र कृणुध्वम्) भली-भाँति करो। हे आचार्य वा परमात्मन्! (चर्षणिप्राः) मनुष्यों को विद्या,धन, धान्य और सद्गुणों से पूर्ण करनेवाले आप (विशः) विद्यार्थियों वा प्रजाओं को (पूर्वीः) श्रेष्ठ (प्रचर) करो ॥१॥
भावार्थ
जैसे जगदीश्वर मनुष्यों को सुखी करता है, वैसे ही आचार्य का भी यह कर्तव्य है कि वह छात्रों को विद्या आदि से पूर्ण करके सुखी करे और उनमें योगाभ्यास आदि की अभिरुचि उत्पन्न करके उन्हें अध्यात्म-मार्ग का पथिक बनाये ॥१॥
टिप्पणी
(देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या ३२८)
विशेष
ऋषिः—वसिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाला उपासक)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥<br>
विषय
तीन बातें
पदार्थ
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘मैत्रावरुणि वसिष्ठ' है— प्राणापान की साधना करनेवाला, इन्द्रियों को पूर्णरूप से वश में करनेवाला । यह अपने मित्रों से तीन बातें कहता है१. (व:) = तुम्हारी (महे वृधे) = महान् उन्नति के लिए अपने को (महे) = उस महान् प्रभु के प्रति (प्रभरध्वम्) = प्रकर्षेण ले-चलो [हृ=भृ]। प्रात:सायं नमन के द्वारा उस प्रभु के प्रति जाने से तुम्हारा जीवन अधिक और अधिक उन्नत होता चलेगा । वस्तुत: जिसके समीप उठते-बैठते हैं वैसे ही हम बन जाते हैंदोनों समय उस प्रभु के समीप उठें-बैठेंगे तो कुछ उस जैसे ही बन जाएँगे ।
२. (प्रचेतसे) = अपने प्रकृष्ट ज्ञान के लिए - चेतना को ठीक बनाये रखने के लिए - सदा (प्रसुमतिम्) = अत्यन्त प्रकृष्ट कल्याणी मति को (कृणुध्वम्) = कीजिए। हममें कभी भी अशुभ मति उत्पन्न न हो । यदि एक बार हम बदले की भावना से चल पड़े तो हमारी सब चेतना लुप्त हो जाएगी । हमें अपने जीवन का उद्देश्य भूल जाएगा और हम कहीं-के-कहीं पहुँच जाएँगे।
३. (चर्षणि-प्राः) = मनुष्यों का पूरण करनेवाला तू (पूर्वी:) = अपना पूरण करनेवाली (विशः) = प्रजाओं में (प्रचर) = उत्तम विचारों का प्रचार कर । तुझमें सबको उत्तम बनाने की भावना हो, तू लोगों में उन्नति की इच्छा उत्पन्न कर और उनमें उन्नति के साधक विचारों को फैलानेवाला बन ।
भावार्थ
अपनी महान् उन्नति के लिए हम महान् प्रभु के चरणों में उपस्थित हों। अपने जीवन के लक्ष्य को विस्मृत न होने देने के लिए सदा कल्याणी मति बनाए रक्खें। मनुष्यों का पूरण करनेवाला बनकर, उन्नति की इच्छुक प्रजाओं में उत्तम विचारों का प्रचार करें।
विषय
missing
भावार्थ
व्याख्या देखो अविकल सं० [ ३२८ ] पृ० १६९।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ नृमेधः। ३ प्रियमेधः। ४ दीर्घतमा औचथ्यः। ५ वामदेवः। ६ प्रस्कण्वः काण्वः। ७ बृहदुक्थो वामदेव्यः। ८ विन्दुः पूतदक्षो वा। ९ जमदग्निर्भागिवः। १० सुकक्षः। ११–१३ वसिष्ठः। १४ सुदाः पैजवनः। १५,१७ मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। १६ नीपातिथिः काण्वः। १७ जमदग्निः। १८ परुच्छेपो देवोदासिः। २ एतत्साम॥ देवता:—१, १७ पत्रमानः सोमः । ३, ७ १०-१६ इन्द्रः। ४, ५-१८ अग्निः। ६ अग्निरश्विानवुषाः। १८ मरुतः ९ सूर्यः। ३ एतत्साम॥ छन्द:—१, ८, १०, १५ गायत्री। ३ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री उत्तरयोः। ४ उष्णिक्। ११ भुरिगनुष्टुप्। १३ विराडनुष्टुप्। १४ शक्वरी। १६ अनुष्टुप। १७ द्विपदा गायत्री। १८ अत्यष्टिः। २ एतत्साम । स्वर:—१, ८, १०, १५, १७ षड्जः। ३ गान्धारः प्रथमस्य, षड्ज उत्तरयोः ४ ऋषभः। ११, १३, १६, १८ गान्धारः। ५ पञ्चमः। ६, ८, १२ मध्यमः ७,१४ धैवतः। २ एतत्साम॥
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३२८ क्रमाङ्के परमात्मस्तुतिविषये व्याख्याता। अत्र युगपदाचार्यपरमात्मनोर्विषय उच्यते।
पदार्थः
हे विद्यार्थिनः प्रजाः वा ! यूयम् (महेवृधे) महत्त्वाय वर्धयति यस्तस्मै, (महे) महते इन्द्राय आचार्याय परमात्मने वा (प्र भरध्वम्) उत्तमम् उपहारम् आनयत। (प्रचेतसे) प्रकृष्टचित्ताय प्रकृष्टज्ञानाय वा तस्मै (सुमतिम्) शोभनां स्तुतिम् (प्र कृणुध्वम्) प्रकुरुत। हे इन्द्र आचार्य परमात्मन् वा ! (चर्षणिप्राः) चर्षणयो मनुष्याः तान् विद्यया धनधान्यादिभिः सद्गुणैर्वा प्राति पूरयतीति तादृशः त्वम् (विशः) विद्यार्थिनः प्रजाः वा (पूर्वीः) श्रेष्ठाः (प्रचर) प्रकुरु ॥१॥२
भावार्थः
यथा जगदीश्वरो जनान् सुखयति तथाचार्यस्यापीदं कर्तव्यं यत् स छात्रजनान् विद्यादिभिः प्रपूर्य सुखयेत्, तेषु योगाभ्यासाद्यभिरुचिं च जनयित्वा तानध्यात्मपथिकानपि विदध्यात् ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O men, glean knowledge for the grand soul, that exalteth its glory. Entertain noble sentiments towards God, a Teacher, full of knowledge. O soul, the imparter of knowledge to the learned, thou lovest those who are devoted to the fulfillment of their ideal!
Translator Comment
See verse 328.
Meaning
Bear and bring homage, assistance and cooperation and offer positive thoughts and advice to Indra, your leader and ruler. Great is he, promoter of great people and the common wealth, and a leader wide- awake with deep and distant foresight. O leader and ruler of the land, be good to the settled ancient people and take care of the farming communities and other professionals so that all feel happy and fulfilled without frustration. (Rg. 7-31-10)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (त्वं हि) હે પરમાત્મન્ ! તું જ (एषां सोमानां पाता असि) એ ઉપાસનારસોનો પાનકર્તા સ્વીકાર કર્તા છે. (वृत्रहन्) હે પાપનાશક ! (सुतं "सुतः") તું ઉપાસિત થઈને (हरिभिः नः उप याहि) દુઃખહરણકર્તા ગુણોથી અમારી પાસે આવ. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
जसा जगदीश्वर माणसांना सुखी करतो, तसेच आचार्याचे ही कर्तव्य आहे, की त्याने विद्यार्थ्यांना विद्या इत्यादीने पूर्ण करून सुखी करावे व त्यांच्यात योगाभ्यास इत्यादीची अभिरुची उत्पन्न करून त्यांना अध्यात्ममार्गाचा पथिक बनवावे. ॥१॥
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