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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1796
    ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्रः छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
    2

    य꣡दि꣢न्द्र꣣ या꣡व꣢त꣣स्त्व꣢मे꣣ता꣡व꣢द꣣ह꣡मीशी꣢य । स्तो꣣ता꣢र꣣मि꣡द्द꣢धिषे रदावसो꣣ न꣡ पा꣢प꣣त्वा꣡य꣢ रꣳसिषम् ॥१७९६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य꣢त् । इ꣣न्द्र । या꣡व꣢꣯तः । त्वम् । ए꣣ता꣡व꣢त् । अ꣣ह꣢म् । ई꣡शी꣢꣯य । स्तो꣣ता꣡र꣢म् । इत् । द꣣धिषे । रदावसो । रद । वसो । न꣢ । पा꣣पत्वा꣡य꣢ । र꣣ꣳसिषम् ॥१७९६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदिन्द्र यावतस्त्वमेतावदहमीशीय । स्तोतारमिद्दधिषे रदावसो न पापत्वाय रꣳसिषम् ॥१७९६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । इन्द्र । यावतः । त्वम् । एतावत् । अहम् । ईशीय । स्तोतारम् । इत् । दधिषे । रदावसो । रद । वसो । न । पापत्वाय । रꣳसिषम् ॥१७९६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1796
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ३१० क्रमाङ्क पर हो चुकी है। दान किसे चाहिए, इस विषय में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! (यावतः) जितने धन के (त्वम्) आप अधीश्वर हो (एतावत्) उतने धन का यदि (अहम्) मैं (ईशीय) अधीश्वर हो जाऊँ, तो (रदावसो) हे धनदाता ! मैं (स्तोतारम् इत्) आपके उपासक का ही, उस धन से (दधिषे) धारण-पोषण करूँ, (पापत्वाय) पाप कर्म के लिए (न रंसिषम्) दान न करूँ ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य को चाहिए कि सत्पात्र को ही धन आदि का दान करे, पाप की वृद्धि के लिए कभी दान न दे ॥१॥

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    टिप्पणी

    (देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या ३१०)

    विशेष

    ऋषिः—वसिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाला उपासक)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥<br>

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    विषय

    स्तोता का उपालम्भ

    पदार्थ

    जिस समय भक्त प्रभु की उपासना करते-करते कभी-कभी निराश होने लगता है तब वह इन शब्दों में उपालम्भ-सा देता हुआ कहता है – हे इन्द्र- परमैश्वर्यशाली प्रभो ! (यत्) = यदि (यावत:) = जितने ज्ञानादि-ऐश्वर्यों के (त्वम्) = आप ईश हो (एतावत्) = इतने ऐश्वर्यों का (अहम्) = मैं (ईशीय) = ईश्वर होता तो (स्तोतारम्) = अपने स्तोता को (इत्) = निश्चय से (दधिषे) = धारण करता । मेरा स्तोता कभी आवश्यकताओं से वञ्चित नहीं रहता । उसकी वह वह आवश्यकता अवश्य पूर्ण होती चलती । हे (रदावसो) = [ रद् to rend, scratch] बड़े-बड़े अभिमानी, नास्तिक वृत्तिवाले धनी पुरुषों के धनों को समाप्त कर देनेवाले प्रभो ! मैं भी (पापत्वाय) = पाप की वृद्धि के लिए (न रंसिषम्) = धन को कभी न देता । आप भी पापवृद्धि के लिए न दें यह तो ठीक है, परन्तु मैं तो सब प्रकार की पापवृत्ति से दूर रहने का प्रयत्न करता हुआ आपका स्तोता हूँ। मेरी आवश्यकताएँ तो आप पूरी करें ही ।

    प्रभु संसार में अपने भक्तों की बड़ी कड़ी परीक्षा लेते हैं । यह ठीक है कि कोई भी कल्याणकृत् दुर्गति को प्राप्त नहीं हुआ करता, परन्तु उसे कड़ी परीक्षा में से उत्तीर्ण होकर अपने धैर्य का प्रमाण तो देना ही पड़ता है। यह धैर्य की परीक्षा में उत्तीर्ण होनेवाला व्यक्ति ही वशिष्ठ वशियों में श्रेष्ठ इस मन्त्र का ऋषि है ।

    भावार्थ

    ‘प्रभु स्तोता का धारण अवश्य करेंगे', ऐसे निश्चय से चलना ही ‘धृतिमान्' होना है। 

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    व्याख्या देखो अविकल सं० [३१०] पृ० १५८।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ नृमेधः। ३ प्रियमेधः। ४ दीर्घतमा औचथ्यः। ५ वामदेवः। ६ प्रस्कण्वः काण्वः। ७ बृहदुक्थो वामदेव्यः। ८ विन्दुः पूतदक्षो वा। ९ जमदग्निर्भागिवः। १० सुकक्षः। ११–१३ वसिष्ठः। १४ सुदाः पैजवनः। १५,१७ मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। १६ नीपातिथिः काण्वः। १७ जमदग्निः। १८ परुच्छेपो देवोदासिः। २ एतत्साम॥ देवता:—१, १७ पत्रमानः सोमः । ३, ७ १०-१६ इन्द्रः। ४, ५-१८ अग्निः। ६ अग्निरश्विानवुषाः। १८ मरुतः ९ सूर्यः। ३ एतत्साम॥ छन्द:—१, ८, १०, १५ गायत्री। ३ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री उत्तरयोः। ४ उष्णिक्। ११ भुरिगनुष्टुप्। १३ विराडनुष्टुप्। १४ शक्वरी। १६ अनुष्टुप। १७ द्विपदा गायत्री। १८ अत्यष्टिः। २ एतत्साम । स्वर:—१, ८, १०, १५, १७ षड्जः। ३ गान्धारः प्रथमस्य, षड्ज उत्तरयोः ४ ऋषभः। ११, १३, १६, १८ गान्धारः। ५ पञ्चमः। ६, ८, १२ मध्यमः ७,१४ धैवतः। २ एतत्साम॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३१० क्रमाङ्के व्याख्यातपूर्वा। दानं कस्मै देयमित्याह।

    पदार्थः

    हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! (यावतः) यावत्परिमाणस्य धनस्य (त्वम्) त्वम् (ईशिषे) अधीश्वरोऽसि (एतावद्) एतावतः धनस्य यदि (अहम् ईशीय) अधीश्वरो भवेयम्, तर्हि हे (रदावसो) धनदातः ! अहम् (स्तोतारम् इत्) तवोपासकमेव, तेन धनेन (दधिषे) धारयेयम्, (पापत्वाय) पापकर्मणे (न रंसिषम्) नैव दद्याम् ॥१॥२

    भावार्थः

    मनुष्यः सत्पात्रायैव धनादिकं प्रयच्छेत्, पापवृद्धये कदापि न दद्यात् ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    If I, O King, were the lord of riches ample as thine, I would give them, O King, who scatterest wealth; to the saint and never to the sinner!

    Translator Comment

    See verse 310.^'I' refers to a learned person.

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    Meaning

    Indra, lord ruler of the world, giver of wealth and excellence, as much as you grant, so much I wish I should control and rule. I would hold it only to support the devotees of divinity and would not spend it away for those who indulge in sin and evil. (Rg. 7-32-18)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (रदावसो 'रदवसो' इन्द्र) હે ધનની ખાણ પરમાત્મન્ ! (यद् यावतः) જે જેટલા ધન જ્ઞાન આદિનો (त्वम्) તું સ્વામી છે (अहम् ईशीय) હું સ્વામી બની જાઉ તો (स्तोतारम् इत्) સ્તોતા સ્તુતિ કરનારાના પ્રતિ જ (दधिषे) ધરી દઉં-આપી દઉં (पापत्वाय) પાપી જનને માટે (न रंसिषन्) રમણ ન ઇચ્છતો-નહીં આપું. (૮)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે ધનની ખાણ પરમાત્મન્ ! જેટલા ધન ઐશ્વર્યનો તું સ્વામી છે, તેટલા ધનનો હું ઉપાસક સ્વામી બની જાઉં, તો સ્તુતિ કરનારાને આપી દઉ. ધનની ખાણ તો તું છે, હું નથી, જો હું હોત તો માગત શા માટે ? તેથી મુજ સ્તોતાને તારું ધન ખોલીને આપી દે. આ સ્વાર્થ ધન પ્રાપ્તિમાં હેતુ ભાવનાત્મક છે. અતિશય અલંકાર આપેલ છે, હું પાપીને કદીપણ નહી આપું, તું પાપીને ન આપ, પરન્તુ તારા ઉપાસક ધર્માત્માને અવશ્ય આપ અને હું પણ આપીશ, જ્યારે તારો ઉપાસક આટલો ઉદાર છે, ત્યારે તું તો મહાન ઉદાર છો, ખરેખર ધન તારા માટે છે જ નહિ, તે તો ઉપાસક માટે જ રાખેલ છે. (૮)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसाने सत्पात्रालाच धन इत्यादीचे दान करावे पापाच्या वृद्धीसाठी कधी दान देऊ नये. ॥१॥

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